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फिल्मों में मां का किरदार निभाने वाली निरूपा रॉय ने हिरोइन बन कर जीता था लोगाें का दिल

 


जब भी बॉलीवुड में मां के किरदार की बात होती है। तो जुंबा पर सबसे पहला नाम मशहूर अभिनेत्री निरूपा रॉय का आता है। निरूपा रॉय ने अपने फिल्मी करियर में करीबन 200 से भी ज्यादा फिल्मों मेंकाम किया था। जिसमें उन्होंने कई दिग्गज स्टार्स की मां की भूमिका को निभाया। आज भी दर्शको के दिमाग में जंजीर में अमिताभ बच्चन और निरूपा रॉय के डायलॉग मुंह जबानी याद हैं।

विपक्षी दलों की बौखलाहट का सुविचारित प्रतिफल है खगड़िया की घटना

विपक्षी दलों की बौखलाहट का सुविचारित प्रतिफल है खगड़िया की घटना
-अरुण कुमार मयंक-
पटना.बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सूबे में अधिकार यात्रा कर रहे हैं. यह मुख्यमंत्री द्वारा बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने की मुहिम है. इस के दौरान खगड़िया में पिछले दिनों घटित घटना सुविचारित है.इस में अवरोध पैदा करने का कुत्सित प्रयास है. बिहार के लोग सूबे के सवाल पर जाति-धर्म से ऊपर उठ रहे हैं. सूबे के लोग नीतीश की मुहिम को ताकत दे रहे हैं. विपक्षी दलों की परेशानी लगातार बढ़ रही है. इन दलों के राजनेताओं को लग रहा है कि उनके हाथों के तोते उड़ चुके हैं. यही कारण है कि वे बुरी तरह बौखला उठे हैं. विपक्षी दलों की इसी परेशानी और राजनेताओं की बौखलाहट का सुविचारित प्रतिफल है खगड़िया की घटना.

ढिबरी चैनल का घोषणापत्र

(नोट - यह व्यंग्य रचना महान व्यंग्कार एवं गुरूवर हरिशंकर परसाई की एक प्रसिद्ध व्यंग्य रचना से प्रभावित है और मुझे लगता है कि अगर परसाई जी आज जीवित तो इस विषय पर जरूर कलम चलाते। इस व्यंग्य का पहला हिस्सा यहां पेश हैं।)

(वैसे ढिबरी चैनल के बारे में विज्ञापन तो अखबारों में छप चुका था, लेकिन ढिबरी न्यूज के ‘‘एम्स एंड आब्जेक्टिव्स् तथा उसके गठन के मेमोरेंडम बही खातों के बीच दबे रह गये थे। यह लेखक जब किसी काम से चैनल के मुख्यालय में गया तो सेठजी के आसान के पास की एक पुरानी बही में यह नत्थी किया हुआ मिला जिसे हम यहां घोषणापत्र के नाम से प्रस्तुत कर रहे हैं। वैसे सबसे पहले इसे छापा जाना चाहिये था, लेकिन समय पर यह उपलब्ध नहीं होने के कारण इसे अब सुधी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है - लेखक)

।। श्री लक्ष्मीजी सदा सहाय ।।


हम बत्तीलाल ढिबरीलाल एंड सन्स के वर्तमान मालिक अपनी प्रसिद्ध दुकान की नयी शाखा खोल रहे हैं।इस शाखा का नाम होगा ढिबरी न्यूज चैनल। जैसा कि विश्व विदित है, ढिबरीलाल हमारे पुज्यपिता जी थे जो इस नश्वर संसार में अब नहीं है और इस कारण इस संसार में हमारे फर्म के अलावा सब कुछ निस्सार है। हमारे परिवार में व्यवसाय को हमारे दादा बत्तीलाल ने शुरू किया था लेकिन इस व्यवासाय को हमारे परमपूज्य पिताजी ने एक उंचाई दी और इस व्यवसाय को दुनिया भर में फैलाया इसलिये हमने अपने पिताजी के नाम को अमर करने के लिये अपनी दुकान की नयी शाखा के रूप में टेलीविजन चैनल शुरू करने का फैसला किया। हमारी तरह हमारे पिताजी ने भी अपने पिताजी अर्थात मेरे दादाजी का नाम अमर करने के लिये बत्तीलाल मेडिकल कालेज खोला था और लाख-लाख रूपये डोनेशन लेकर सैकड़ों लंफगों और अनपढ़ों को डाक्टर बना कर देश की आबादी को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। ऐसे में हम भी अपने परिवार की परम्परा को आगे बढ़ाने के लिये अपने पुज्यपिताजी के नाम पर टेलीविजन चैनल खोल रहे हैं ताकि देश में बुद्धिजीवियों एवं विवेकवादियों की आबादी पर अंकुश लगाया जा सके और देश में अज्ञानता, अविवेक, अंधविश्वास और अष्लीलता जैसी लोकतंत्र हितैषी प्रवृतियों को बढ़ावा दिया जा सके ताकि दंगाइयों, भ्रश्ट अधिकारियों एवं मंत्रियों, एवं पंूजीपतियों को निर्भय और निडर होकर काम करने का सौहार्द्रपूर्ण माहौल मिल सके। उम्मीद है कि मेरे सुपृत्र भी परिवार की इसी पवित्र परम्परा को आगे बढ़ाते हुये मेरे नाम पर कोई प्राइवेट विश्वविद्यालय खोलेंगे, जैसा कि आजकल ‘‘लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर’’ वाले लोग कर रहे हैं और शिक्षा की नाकारी संस्थाओं को विशुद्ध मुनाफा कमाने वाले दुकानों में बदल कर सरकार की नीतियों को साकार करते हुये भावी पीढ़ी के भविष्य को गर्त में गिराने के महान कार्य को अंजाम दे रहे हैं।

आप पूछ सकते हैं कि आज इतने तरह के धंधे तरह के धंधे हैं जिनमें पैसे ही पैसे हैं तो फिर टेलीविजन चैनल क्यों। मेरा कहना यह है कि कमाई के तो कई रास्ते हैं, लेकिन बाकी धंधांे में वह मजा नहीं है जो टेलीविजन चैनलों में है। यह धंधा ‘‘हींग लगे न फिटकरी और रंग चोखा, केवल जनता को देते रहो धोखा ही धोखा’’ - की तरह है। सबसे बड़ी बात है कि इस धंधे को षुरू करने में हालांकि पैसे तो थोड़े खर्चने पड़ते हैं लेकिन दिमाग बिल्कुल नहीं लगाने पड़ते हैं। (असल में दिमाग तो दर्शकों को यह सोचने में लगाने पड़ते हैं कि वे चैनल देख क्यों रहे हैं)। चैनल चलाने के लिये दिमाग नहीं लगाने का फायदा यह है कि आप इस बात पर दिमाग खर्च कर सकते हैं कि कमाये गये भारी काले धन को कैसे सफेद बनाया जाये। सबसे बड़ी बात कि इसमें इतने तरह के माल (सजीव और निर्जीव दोनों तरह के) मिलते हैं कि चाहे इन्हें जितना खाओ और खिलाओ कभी कम नहीं पड़ता। दरअसल टेलीविजन चैनल दोनों तरह के मालों का ऐसा बहता दरिया है कि जब इच्छा हुयी तन-मन की प्यास बुझा ली। खुद भी प्यास बुझाओं और अपने यार दोस्तों की प्यास को भी बुझाओ। हां। तो बात हो रही थी टेलीविजन चैनल शुरू करने के कारणों के बारे में। असल में आज के समय में स्कूल-कालेज, समाज सेवा, अखबार और सत्संग-प्रवचन जैसे जैसे माल कमाने के जो नये क्षेत्र उभरे हैं उनमें टेलीविजन चैनल सबसे चोखा धंधा है। आप पूछ सकते हैं कि आप और आपके बाप दादा जीवन भर अनाज, दूध, तेल, घी आदि में मिलावट करके तिजोरियां भरते रहे तो अब फिर टेलीविजन चैनल खोलने की क्या सूझी। आपका सवाल बहुत अच्छा और विषयानुकुल है। आपके सवाल के जवाब में मैं कहूंगा कि दरअसल टेलीविजन चैनल का यह धधंा हमारे पुश्तैनी धंधे का ही आधुनिक एवं विकसित रूप है। पहले हम अनाज में कंकड मिलाते थे और दूध में यूरिया मिलाते थे और लोगों का स्वास्थ्य खराब करते थे। अब मिलावट के काम को आगे बढ़ाते हुये हम संस्कृति में अश्लीलता, विश्वास में अंधविश्वास और धर्म में अधर्म मिलाकर लोगों के दिमाग को खराब करेंगे। काम तो वही मिलावट का ही हुआ न। चूंकि फर्म एक है, इसलिये हमारा काम भी एक है। मिलावट का हमारा जो खानदानी अनुभव है वह सही अर्थों में अब काम आयेगा। वैसे भी इस मिलावट में खतरे कम है क्योंकि अनाज, दूध और तेल में मिलावट को तो सरकार और जनता पकड़ भी लेती है और कभी-कभी छापे मारे जाने का भी डर भी रहता है, लेकिन टेलीविजन चैनलों के जरिये संस्कृति में कुसंस्कृति ओर लोगों के विवेक में अज्ञानता एवं अंधविश्वास की मिलावट को जनता बिल्कुल पकड़ नहीं पाती और जहां तक सरकार की बात है वह तो इसे बढ़ावा ही देती है। ऐसे में न तो छापे का डर है न जनता के गुस्से का। उल्टे इस तरह की मिलावट करने पर पदमश्री और भारत रत्न मिलने की भी प्रबल संभावना रहती है। अतीत में कई मिलावटियों को सरकार ऐसे पद्म सम्मानों से नवाज भी चुकी है।

(ढिबरी चैनल का घोषणा पत्र - भाग - दो)
जैसा कि पहले बताया जा चुका है, टेलीविजन चैनल खोलने के पीछे हमारा मुख्य इरादा तो अपने पूज्य पिता जी को अमर बनाना ही था, लेकिन साथ ही साथ अगर आम के आम, गुठली के दाम की तरह अगर इससे मोटी आमदनी कमाने तथा और तर माल खाने को मिले तो बुराई ही क्या है। दरअसल हमारे पिता जी को और पिताजी की तरह मेरे दादाजी को अमर बनने की बहुत लालसा थी। मेरे पिताजी ने दादाजी को अमर बनाने के लिये मेडिकल कालेज खोलकर अपने समय के हिसाब से सबसे उचित एवं कारगर काम किया था। आज भले ही समय बदल गया है और पांच साल तक झखमार कर पढ़ाई करने वाले डाक्टरों की कोई पूछ नहीं रह गयी है और जो लोग डाक्टर बने हैं वे अब अब अपनी किस्मत को रो रहे हैं। आज भले ही कोई डाक्टर या इंजीनियर नहीं बनना चाहता लेकिन जिस समय हमारे पिताजी ने मेरे दादाजी के नाम पर मेडिकल कालेज खोला था उस समय समाज में डाॅक्टर-इंजीनियरों का बड़ा सम्मान था। जिस लड़के का इंजीनियरिंग या मेडिकल कालेज में प्रवेश मिल जाता था, शहर भर की लड़कियां उसे बड़ी हसरत भरी नजर से देखती थी और उन लड़कियों के मां-बाप उसे अपना दामाद बनाने के सपने पालते थे, भले ही उसने डोनेशन या रिश्वत देकर कालेज में प्रवेश लिया हो। लेकिन अब तो कोई मेडिकल या इंजीनियरिंग में जाना ही नहीं चाहता है तो डोनेशन क्या खाक देगा। जाहिर है समय बदलते ही मेडिकल कालेज का हमारा धंधा और इसलिये दादाजी का नाम भी नहीं चल पाया। आज लोगों ने और यहां तक कि दादाजी के नाम पर बने मेडिकल कालेज के से पढ़ाई करके निकलने वाले लड़कों ने भी दादा जी के नाम को भुला दिया या मरीजों एवं उनके रिष्तेदारों ने उनकी समय-समय पर डाक्टर बनने वाले उन लड़कों की इतनी पिटाई की वे दादाजी के कालेज का नाम लेने से तो क्या अपने को डाक्टर कहने से डरने लगे। दरअसल पुराने समय में जिन लड़कांे ने डोनेशन देकर दादीजी के नाम वाले कालेज में प्रवेश लिया था, उनमें से ज्यादातर दूरदर्शी किस्म के लड़कों का उददेष्य मेडिकल कालेज में प्रवेश लेकर लड़कीवालों को फंास कर उनसे दहेज की भारी रकम वसूलना होता था और जब वे अपने उद्देश्य में सफल हो जाते तो मेडिकल की पढ़ाई छोड़कर दहेज में मिली रकम से या तो रेलवे बोर्ड या बिहार कर्मचारी चयन आयोग में कोई अच्छी खासी नौकरी खरीद लेते या फिर पंसारी की दुकान खोल लेते क्योंकि उन्हें पता था कि जब वे पांच साल के बाद मेडिकल की पढ़ाई करके निकलेंगे तो डाक्टरी के धंधे से क्लिनिक का किराया भी नहीं निकाल पायेगा। इस तरह से ऐसे लड़कों ने तो कुछ महीनों में ही अपने कालेज का नाम भुला दिया। मुर्ख किस्म के जो लड़क डाक्टरी की पढ़ाई पूरी करके डाक्टर बन गये उन्हें मरीजों के रिश्तेदारों ने मार-मार कर डाक्टरी के धंधे से हमेशा के लिये छोड़ देने के लिये मजबूर कर दिया। इस तरह वे भी शीघ्र कालेज का और दादाजी का नाम भूल गये। ऐसे में आज दादाजी का नाम लेने वाला कोई बिरला ही बचा होगा। ऐसे में हमने अपने अनुभवों से सीख लेते हुये अपने पिताजी के नाम को अमर करने के लिये कोई मेडिकल या इंजीनियरिंग कालेज खोलने के बजाय टेलीविजन चैनल खोलने का फैसला किया। इसमें एक फायदा यह हुआ कि जहां कालेज खोलने के लिये कुछ पैसों की जरूरत पड़ती है, वहीं टेलीविजन चैनल खोलने के लिये हमें अपने पास से एक धेला भी लगाने की जरूरत नहीं पड़ी। ऐसा कैसे हुआ, बाद में बताउंगा। टेलीविजन चैनल खोलने का एक और कारण था। दरअसल पंसारी की दुकान संभालने वाला हमारा एक लड़का एक पत्रकार की बुरी सोहबत में फंस गया था। उस पत्रकार के जरिये वह और भी पत्रकारों की संगत में आ गया और वह भी उन पत्रकारों के साथ दारू-जूए के किसी अड्डे पर, जिसका नाम वह प्रेस क्लब बताया करता था, बारह-बारह बजे रात तक दारू पीता था और नशे में लोगों को गालियां बकता हुआ, सड़क पर लोटता-पोटता और गिरता-पड़ता घर पहुंचता था। वह पढ़ा-लिखा तो ज्यादा था, लेकिन उसकी जिद कर ली कि वह भी पत्रकार बनेगा। मैंने यह सोचकर उसकी सातवें तक की पढ़ाई करायी थी कि उसे जब दुकान पर ही बैठना है तो उसके लिये यही बहुत होगा कि जोड़-घटाव जान ले। लेकिन उसने जब बताया कि पत्रकार बनने में कितना फायदा है तो मैंने सोचा कि उसे पत्रकार ही बना दिया जाये और जब पत्रकार बनना है तो क्यों नहीं उसे टेलीविजन चैनल का मालिक बना दिया जाये। मेरे उसी लड़के ने अपने कुछ दारूबाज एवं लफंगे पत्रकार दोस्तों को हमसे मिलवाया और सबने मिलकर टेलीविजन चैनल खोलने के जो लाभ बताये उसे सुनकर मेरा दिल बाग-बाग हो गया। उसी दिन मैंने सोच लिया कि पिताजी के नाम को अमर करने और तर माल खाने के लिये इससे अच्छा साधन दुनिया में कुछ और नहीं है। आज जब हमारा चैनल टीआरपी की दौड़ में सबसे आगे है, पैसे की ऐसी बरसात हो रही है कि नगदी के बंडलों को बोरों में पैरों से ढूंढ-ढूंस कर भरना पड़ता है, क्योंकि हाथ के जोर से उन्हें ढूंढना मुष्किल है, ऐसी-ऐसी सुंदर-सुंदर कन्यायें हमारी हर तरह सेवा करने को हाथ जोड़े खड़ी रहती है कि भगवान इन्द्र और कृष्ण को भी हमसे इष्र्या होने लगे, वैसे में लगता है कि मैंने अपने पूर्वजन्म में जरूर ऐसे पुण्य कार्य किये थे कि मुझे ऐसा समझदार पुत्र मिला जिसकी बदौलत इसी लोक में मै स्वर्ग लोक के सुखों को भोग कर रहा हूं।

ढिबरी चैनल का घोषणा पत्र - भाग - तीन
अपने फर्म की इस दुधारू शाखा को शुरू करने के लिये, सच कहा जाये तो, हमारी अंठी से एक धेला भी नहीं लगा। हालांकि दुनियावालों को पता है कि हमने इसके लिये करोड़ांे रूपये फूंक डाले। इस झूठ के फैलने से इससे हमारी इज्जत भी बढ़ गयी और हमंे अपने काले धन को सफेद करने में भी मदद मिल गयी।
दरअसल जिस तरह से हाथी के दांत के दो तरह के दांत होते है - खाने के और दिखाने के और, ठीक उसी तरह हमारे और हमारे धंधे के दो चेहरे होते हैं - एक दुनियावालों के लिये और एक अपने और अपने जैसे धंधेबाजों के लिये। इसी परम्परा का पालन करते हुये हमने इस धंधे की नयी शाखा के लिये दो घोषणापत्र बनावाये थे। एक घोषणापत्र तो वह था जिसे हमने अखबारों में छपावाये थे ताकि चैनल में पैसे लगाने वालों को फंसाया जा सके जबकि असली घोषणापत्र को हमने तैयार करके बही खाता के बीच सुरक्षित रखकर गद्दी के नीचे दबाकर रख दिया ताकि जरूरत के समय इस्तेमाल में लाया जा सके।
सबसे पहले हम अखबारों में छप चुके नकली घोषणापत्र और लुभावने प्रस्ताव को लेकर प्रोपर्टी डीलर से बिल्डर बने अपने एक पुराने कारिंदे के पास गये। जब हमने कई साल पहले प्रोपर्टी डीलरी का एक नया धंधा शुरू किया था तब उसे हमने दुकान की साफ-सफाई और देखरेख तथा वहां आने वाले ग्राहकों को पानी पिलाने के लिये रखा था। बाद में वह ग्राहकों को पानी पिलाने में माहिर हो गया। धीरे-धीरे उसने ग्राहकों को फंसा कर हमारे पास लाना शुरू किया और हम उत्साह बढ़ाने के लिये उसे कुछ पैसे भी देने लगे। कुछ समय में ही वह इस काम में इतना होशियार हो गया कि उसने बाद में खुद ही प्रोपर्टी डीलिंग का काम शुरू कर दिया। बाद में वह बिल्डर बन गया और आज उसकी गिनती देश के प्रमुख बिल्डरों में होने लगी है। उसने जब पिताजी के नाम पर टेलीविजन चैनल शुरू करने के प्रस्ताव को पढ़ा तो वह खुशी से उछल पड़ा। वह इस प्रस्ताव से इतना प्रभावित हुआ कि वह उसने खुशी-खुशी दस करोड़ रूपये टेलीविजन चैनल में निवेश करने को तैयार हो गया। उसकी केवल एक शर्त थी कि लड़कियों के चक्कर में पिछले पांच साल से बारहवी की परीक्षा में फेल हो रहे अपने एकलौते बेटे को चैनल में कोई महत्वपूर्ण पद पर नौकरी दी जाये, जिसे हमने सहर्ष स्वीकार कर लिया। बाद में हमने उसके लफंगे बेटे को इनपुट हेड का पद दिया। पैसे की उसे कोई जरूरत थी नहीं, इसलिये हमने उसके लिये कोई सैलरी तय नहीं की।
इसके बाद हम इस प्रस्ताव को लेकर अपने एक लंगोटिया यार के पास गये जो इस समय लाटरी और चिटफंड बिजनेस का टायकून माना जाता था। वह जुएबाजी में माहिर था और उसने जुए से पैसे जमा करके ‘‘वाह-वाह लाॅटरी’’ नाम से एक कंपनी षुरू की। उसका यह धंधा चल निकला और उसके पास पैसे छप्पड़ फाडू तरीके से इस कदर बरस रहे हैं कि उसके यहां नगदियों के बंडलों की औकात रद्दी के बंडलों से ज्यादा नहीं रही है। वहां अगर किसी उपरी रैक से कोई कागज या कोई सामान निकालना होता है तो नगदियों के बंडलों का इस्तेमाल सीढ़ी या मेज के तौर पर किया जाता है। नगदियों के बंडलों को गिनते समय या बंडल खोलते समय जो नोट खराब निकलते हैं या फट जाते हैं उन्हें कूड़े की टोकरियों में डाल दिया जाता है और दिन भर में ऐसी कई टोकरियां भर जाती है। बाद में फटे नोटों को कूड़े के ढेर में मिला कर जला दिया जाता है। वह मेरे पिताजी का मुरीद था और उनका बहुत सम्मान करता था, क्योंकि उन्होंने ही उसे लाॅटरी का ध्ंाधा शुरू करने के लिये प्रेरित किया था। जब उसने सुना कि हम पिताजी के नाम को अमर करने के लिये टेलीविजन चैनल षुरू कर रहे हैं तो उसने उसी समय नगदी नोटों के बंडलों से भरा एक ट्रक हमारे गोदाम में भिजवा दिया। जब हमने कहा कि अभी इनकी क्या जरूरत है तो उसने कहा कि ‘यह तो उसकी तरफ से पिताजी की महान स्मृति को विनम्र भेंट है। आगे जब भी पैसे की जरूरत हो केवल फोन कर देने की जरूरत भर है। वैसे भी उसके लिये उसके खुद के गोदामों में नगदी के बंडलों को असुरक्षित है, क्योंकि कभी भी सीबीआई वालों का छापा पड़ सकता है जबकि टेलीविजन चैनल के दफ्तर में नगदी के बंडलों को रखने में इस तरह का कोई खतरा नहीं है। वह चाहता है कि उसके यहां के गोदाम में जो नोटों के बंडल भरे पड़े हैं, उन्हें ट्रकों में भर कर ढिबरी न्यूज चैनल के आफिस में भिजवा देगा ताकि उन्हें वहां चैनल के दफ्तरों के दो-चार कमरों में इन नोटों को रखकर बंद कर दिया जाये।’ हमने अपने दोस्त की यह इच्छा मान ली।
उस दोस्त की एक और इच्छा थी और उसे भी हमने उसके अहसानों को देखते हुये सिरोधार्य कर लिया। असल में उसकी पत्नी को पूजा-पाठ एवं धर्म-कर्म में खूब आस्था थी। वह दिन भर बैठ कर धार्मिक चैनलों पर बाबाओं के प्रवचन सुनती रहती थी। प्रवचन सुनते-सुनते उन्हें भी आत्मा, परमात्मा, परलोक, माया-मोह, भूत-प्रेत, पुनर्जन्म आदि के बारे में काफी ज्ञान हो गया था वह मेरे दोस्त चाहता था कि उसकी पत्नी को ढिबरी चैनल पर सुबह और शाम एक-एक घंटे का कोई विशेष कार्यक्रम पेश करने को दिया जाये अथवा उन्हें किसी विषय पर प्रवचन देने का विशेष कार्यक्रम दिया जाये। इससे पत्नी खुश और व्यस्त रहेगी और अपने मनचले पति पर हमेषा नजर रखने वाली पत्नी का ध्यान कुछ समय के लिये पति और उसके रंगारंग कार्यक्रमों से हट जायेगा ताकि उसके पति को अपनी शाम को रंगीन करने के सुअवसर मिल सके।
हमने मिलावटी दारू, दूध, दवाइयों आदि के कारोबारों में लगे अन्य व्यवसायियों से भी संपर्क किया और इन सभी ने हमें दिल खोल कर पैसे दिये। दिल्ली, मुबंई और बेंगलूर जैसे कई षहरों में कालगर्ल सप्लाई करने का कारोबार करने वाले एक अरबपति कारोबारी ने चैनल के लिये बीस करोड़ रूपये का दान किया। इसके अलावा उसने हर माह चैनल चलाने के खर्च के तौर पर पांच करोड़ रूपये देने का वायदा किया। उसने अपनी तरफ से एक छोटी इच्छा यह जतायी कि उसे हर दिन चैनल में एंकरिंग करने वाली लड़कियों में से एक लड़की को हर रात उसके यहां भेजा जाये। हमने उसे एक नहीं पांच लड़कियों को भेजने का वायदा किया ताकि वह अपने उन अरब पति ग्राहकों की इच्छाओं का भी सम्मान कर सके जो मीडिया में काम करने वाली सुंदर बालाओं के साथ रात गुजारने की हसरत रखते हैं।
इस तरह हमारे पास जब सौ करोड़ से अधिक रूपये जमा हो गये तब हम चैनल के इस प्रस्ताव को लेकर शिक्षा मंत्री के पास गये। शिक्षा मंत्री के पिता हमारे पिताजी की दारू की गुमटी पर दारू बेचने का काम करते थे। पिछले चुनाव में भी हमने अपने जाति के सारे वोट उन्हें दिलाये थे। इसलिये शिक्षा मंत्री को हमसे खास लगाव था। उन्होंने चैनल खोलने का हमारा प्रस्ताव देखा तो हमसे लिपट कर हमारे पिताजी की याद में रोने लगे। वह कहने लगे, ‘‘मैं तो आपके पिताजी के एहसानों तले इस कदर दबा हूं कि उनकी याद मै खुद पहल करके सरकार की तरफ से उनके नाम पर एक विश्वविद्यालय खोलने वाला था। अब अगर आप टेलीविजन चैनल खोल रहे हैं तो मैं आपसे कहूंगा कि आप टेलीविजन चैनल के साथ-साथ एक मीडिया एक कालेज भी खोल लें जिसका नाम ‘‘राष्ट्रीय ढिबरी मीडिया इंस्टीच्यूट एंड रिसर्च सेंटर’’ रखा जा सकता है। बाद में मैं इस कालेज को अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा दिला दूंगा। इससे पिताजी का नाम न केवल भारत में बल्कि दुनिया भर में रौषन हो जायेगा। इस कालेज के लिये मैं सरकार की तरफ से 100 एकड़ की जमीन एक रूपये प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से दिलवा दूंगा। साथ ही कालेज के भवन के निर्माण पर आने वाले खर्च का 50 प्रतिशत सरकार की तरफ से दिलवा दूंगा। आप इसी कालेज से अपना चैनल भी चलाइये। आपको करना केवल यह होगा कि इस कालेज में गरीब और एस टी-एस सी के 25 प्रतिशत बच्चों को निःशुल्क प्रशिक्षण देने के नाम पर हमारे जैसे मंत्रियों, अधिकारियों एवं नेताओं और उनके रिश्तेदारों के बच्चे-बच्चियों का दाखिला कर लिजिये जबकि बाकी के बच्चों से फीस के तौर पर ढाई-तीन लाख रूपये सालाना वसुलिये। ’’
शिक्षा मंत्री ने जो गुर बताये उसे सुनकर मेरी इच्छा हुयी कि मैं उनके पैर पर गिर पड़ू, हालांकि मुझसे वे उम्र में छोटे हैं, लेकिन उन्होंने क्या बुद्धि पायी है। वैसे ही वह इतनी कम उम्र में शिक्षा मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद पर आसीन नहीं हो गये। कितने तेज दिमाग के हैं। अब उनकी सफलता का राज समझ आया। आज पता चला कि ऐसे ही मंत्रियों की तीक्ष्ण बुद्धि की बदौलत ही हमारे देष ने इतनी अधिक प्रगति की है। शिक्षा मंत्री जो मंत्र सिखाया उसके आधार पर मैंने हिसाब लगाकर देखा कि आज जिस तरह से चैनलों में काम करने के लिये लड़के-लड़कियां उतावले हो रहे हैं, उसे देखते हुये पिताजी के नाम पर बनने वाले कालेज में प्रवेश लेने वालों की लाइन लग जायेगी, क्योंकि इतने हमारे कालेज और चैनल के साथ एक से एक बड़े नाम जुड़े होंगे। सभी बच्चों को सब्जबाग दिखाया जायेगा कि कोर्स पूरा होते ही उन्हें एंकर अथवा रिपोर्टर बना दिया जायेगा। अगर हर बच्चे से तीन-तीन लाख रूपये लिये जायें और पांच सौ बच्चों बच्चों को प्रवेश दिया जाये तो हर साल 15 करोड़ रूपये तो इसी तरह जमा हो जायेंगे। इस तरह एक मीडियाकालेज से ही कुछ सालों में अरबों की कमाई हो जायेगी। साथ ही साथ कैमरे आदि ढोने, सर्दी-गरमी में दौड़-धूप करने, कुर्सी-मेज और गाड़ियों की साफ-सफाई करने जैसे कामों के लिये मुफ्त में ढेर सारे लडकेे तथा चैनलों में पैसे लगाने वाले तथा अलग-अलग तरीके से मदद करने वालों की मचलती हुयी तबीयत को षांत करने के लिये मुफ्त में कमसीन लड़कियां मिल जायेंगी। कालेज में दाखिला लेने वालों में से किसी को नौकरी तो देनी नहीं है, केवल प्रलोभन ही देने हैं, क्योंकि जब पत्रकारिता स्कूल-कालेज चलाने वाले अन्य चैनलों और अखबारों के मालिक जब उनके कालेजों में पढ़ने वाले लड़के-लड़कियों को कोर्स खत्म होते ही लात मार कर निकाल देने की पावन परम्परा की स्थापना की है तो हम क्यों इस परम्परा का उल्लंघन करने का पाप लें।

ढिबरी चैनल का घोषणा पत्र- भाग 4
शिक्षा मंत्री के सदवचनों एवं सुझावों के बाद हम उत्साह से भर गये और हमें ढिबरी चैनल परियोजना का भविष्य अत्यंत उज्ज्‍वल नजर आने लगा। इस भविष्य को और अधिक चमकदार बनाने के लिये हम देश की एक प्रमुख पीआर कंपनी की मालकिन के पास गये, जिसका नाम वैसे तो कुछ और था लेकिन हम अपने लंगोटिया यारों की निजी बातचीत में हम उसका जिक्र रंडिया के नाम से ही करते थे, क्योंकि उसका काम इसी तरह का था। जब वह हमारे संपर्क में थी, तब वह अपने को रंडिया कहे जाने पर कोई शिकायत नहीं करती थी, बल्कि उसे इस नाम से पुकारे जाने पर खुशी होने लगी और बाद में उसने अपना नाम भी यही रख लिया। देखने में वह इतनी सुंदर थी कि उस पर किसी का भी दिल आ सकता था - चाहे वह कितना ही संत हो।

वह दिन के समय देश के राजनीतिक माहौल को गर्म करती थी और रात में किसी अरबपति उद्योगपति अथवा घोटालेबाज मंत्री के बिस्तर को। उसने अपनी शारीरिक एवं मौखिक क्षमता की बदौलत कई संपादकों एवं वरिष्‍ठ पदों पर बैठे पत्रकारों के लिये आदर्श बन गयी थी। रंडिया जिस पत्रकार से बात कर लेती वह अपने को धन्य समझता। जो लोग टेलीफोन पर हुयी बातचीत को रेकार्ड करके सीडी बना कर अपने मालिक को पेश कर देते उसकी उसकी सैलरी में लाखों रूपये की हाइक हो जाती, उसकी पदोन्न्ति हो जाती और उसकी नौकरी अंगद के पांव की तरह इस तरह पक्की हो जाती जिसे पूरा देश मिलकर भी हिला नहीं सकता था।

एक समय था जब वह मुझ पर भी मेहरबान थी, लेकिन आज तो उसकी हैसियत इतनी उंची हो गयी कि वह मंत्री और सरकार बनाने-बिगाड़ने का खेल करती थी। उससे मिलने का समय मिलना, किसी देवी से मिलने से भी अधिक कीमती था। महीनों तक सैकड़ों बार फोन करने के बाद जब उसने मुलाकात का समय दे दिया तब मैंने समझ लिया कि हमारी दुकान का चलना तय है। असल में जब उसने विदेश में अपने पति को छोड़कर भारत आकर व्यवसायियों, पूंजीपतियों, उद्योगपतियों, मंत्रियों और पत्रकारों से संपर्क बनाने का अपना पीआर का नया व्यवसाय शुरू किया था, तब मैंने ही उसे पहला काम दिया था। धीरे-धीरे जब उसने अपनी शारीरिक प्रतिभा का परिचय देकर मंत्रियों एवं बड़ी-बड़ी कंपनियों के मालिकों से संपर्क बढ़ाना शुरू किया और आखिरकार उसने देश के सबसे बड़े उद्योगपति से काम पाने में सफलता हासिल कर ली। उसने उस उद्योगपति की जरूरतों और इच्छाओं को इतने बेहतर तरीके से पूरा किया कि उन्हें कुंवारे रहने का अपना फैसला सही लगने लगा।

जब मैं उससे मिलने पहुंचा तब उसकी भव्यता को देखकर दंग रह गया कि एक समय दो कौड़ी की महिला आज देश की सिरमौर बन गयी। आलीशान बंगला, विदेशी कारों का काफिला, दर्जनों नौकर, हर कदम पर सुरक्षा गार्ड - ऐसा लगा कि मैं अमरीका के राष्‍ट्रपति से मिलने जा रहा हूं। उसकी हैसियत से तुलना करने पर मैं बिल्कुल डिप्रेशन में चला गया, एक सेकेंड के लिये तो आंखों के सामने अंधेरा छा गया। मुझे लगा कि टेलीविजन चैनल खोलने के बजाय पीआर कंपनी ही खोलना ज्यादा अच्छा रहता। जब मैं रंडिया के सामने पहुंचा तो साक्षात देवी लग रही थी। मैंने सोचा कि अगर उसका आशीर्वाद मिल जाये तो मेरा भी जीवन सफल हो जाये, इसलिये मैं उसके चरण छूने के लिये झुका लेकिन उसने मुझे छाती से लगा कर अपना आशीर्वाद देकर मुझे धन्य कर दिया। मुझे नहीं पता था कि वह इतनी दयावान और कृतज्ञ है कि वह अपने उपर वर्षों पूर्व किये गये छोटे से छोटे अहसान की कीमत इतनी उदात्त भावना के साथ चुकाती है। मेरे मन में अचानक उसके प्रति श्रद्धा भाव उमड़ पड़ा।

मैंने हिचकते हुये ढिबरी चैनल खोलने की अपनी योजना बतायी और उससे यथासंभव मदद करने का आग्रह किया। वह मेरी योजना सुनते ही खुशी से उछल पड़ी। उसने कहा, ''मैं तो पहले से ही कोई चैनल शुरू करने का मन बना रही थी और अगर आप चैनल शुरू कर ही रहे हैं तो वह इसी चैनल में पार्टनर बनने को तैयार है। असल में हमारा पीआर का काम और चैनल का काम एक ही तरह का होता है। पीआर के काम में जो माहिर हो गया उसे अच्छा संपादक बनने से कोई नहीं रोक सकता। मेरे यहां कितनी लड़कियां हैं जिन्होंने पीआर में महारत हासिल कर ली है और इनसे चैनल में रिपोर्टिंग या एंकरिंग का काम लिया जा सकता है। ये लड़कियां बड़े से बड़े मंत्री का ऐसा इंटरव्यू कर सकती है कि बड़ा से बड़ा पत्रकार नहीं कर सकता। ये लड़कियां ऐसे-ऐसे सवाल पूछकर बड़े से बड़े नेता और मंत्री की बोलती बंद कर सकती है, क्योंकि ये लड़कियां मंत्रियों के बारे में ऐसी बातें जानती हैं जो उनके अलावा कोई और नहीं जानता है। लेकिन हमें किसी की दुकानदारी बंद करने से क्या लाभ, हमें तो अपना काम निकालना है। लेकिन इतना पक्का है कि ये लड़कियां बेहतर पत्रकार साबित हो सकती हैं और मंत्रियों से वे काम भी करावा सकती हैं जो कोई और नहीं करवा सकता है।''

उसकी बातें सुनकर मैं उसकी काबिलियत पर मकबूल फिदा हुसैन हो गया था और अगर मैं फिल्म बनाने के धंधे में होता तो उसपर जरूर एक फिल्म बना डालता और अगर पेंटर होता तो उसकी दर्जनों पेंटिंग बना कर उनकी दुनिया भर में प्रदर्शनी करता। उसका आइडिया सुनकर मुझे चैनल खोलने का अपना फैसला बिल्कुल सही लगने लगा। उसने बताया कि चूंकि मंत्री और उद्योगपति पीआर की लड़कियों की तुलना में चैनलों में काम करने वाली सुंदर लड़कियों को अधिक भाव देते हैं इसलिये अगर आप किसी मंत्री या उद्योगपति के पास किसी महिला पत्रकार को भेजें तो आपका काम जल्दी हो जाता है। लाखों-करोड़ों के विज्ञापन चुटकी बजाते मिल जाते हैं। आपका कोई काम रूका है, तुरंत हो जाता है। इसी कारण से मैं भी अपनी पीआर कंपनी के लिये चैनल में काम करने वाली एक नामी महिला पत्रकार और कुछ और वरिष्‍ठ पत्रकारों की सेवायें लेती रहती हूं। इन्हीं पत्रकारों की बदौलत मैं बड़े-बड़े उद्योगपतियों का काम कराती रहती हूं। इसमें मुझे इतनी सफलता मिली कि मैंने दलाली का नया बिजनेस शुरू कर दिया जिसे ''लाबिंग'' कहा जाता है। यह बहुत सम्मान का काम है और इसमें न केवल मनमाने पैसे मिलते हैं बल्कि इज्जत भी खूब मिलती है। मैंने मंत्री बनवाने और मंत्री हटवाने का काम भी शुरू किया है।

रंडिया ने काफी देर तक मुझे गुरू मंत्र दिया और उसने यह भी कहा कि अगर मैं उसे चैनल में फिफ्टी-फिफ्टी का पार्टनर बना दूं तो वह मेरे पिताजी के नाम को अमर करने के लिये एक भव्य मंदिर बनायेगी। मुझे इसमें कोई दिक्कत नजर नहीं आयी इसलिये मैंने तत्काल हामी भर दी। रंडिया से मिलकर लौटते समय रास्ते भर मुझे आंखों के सामने स्वर्ग के नजारे दिखते रहे। मुझे अफसोस हो रहा था कि चैनल शुरू करने का विचार पहले क्यों नहीं आया। अगर ऐसा हो गया होता तो इस समय मैं स्वर्ग का सुख भोग रहा होता - खैर देर आये, दुरूस्त आये।

पढ़ने की उम्र में चढ़ा निखरने का चस्का - विनोद विप्लव

नयी दिल्ली।
स्कूल-कॉलेज जाने वाली लड़कियों में पढ़ाई से पहले सुंदर और आकर्षक दिखने की ललक तेजी से बढ़ रही है और यह कारण है कि कम उम्र की लड़कियां अपने को तराशने के लिये अपने शरीर पर नश्तर चलवाने से भी नहीं हिचकतीं।
आज 18-22 साल या उससे भी कम उम्र की लड़कियां परफेक्ट दिखने के लिए ब्यूटी और कॉस्मेटिक क्लिनिकों का चक्कर लगा रही हैं और सुंदर दिखने के लिये न केवल ढेर सारे पैसे खर्च करने को बल्कि हर तरह के कष्ट सहने को तत्पर रहने लगी हैं। कास्मेटिक सर्जन एवं नयी दिल्ली कास्मेटिक लेजर सर्जरी सेंटर आफ इंडिया (सीएलएससीआई) के निदेशक डा. पी. के. तलवार बताते हैं कि पिछले दो तीन सालों से स्कूल-कालेज जाने वाली लड़कियों में कास्मेटिक सर्जरी कराने की प्रवृति में तेजी से इजाफा हुआ है। खासकर स्कूल से कॉलेज में कदम रखने से वाली लड़कियां अपना मनवांछित ‘‘परफेक्ट लुक’’ हासिल करने के लिये अधिक से अधिक संख्या में लाइपोसक्शन, राइनोप्लास्टी और लेजर सर्जरी कराने के लिये आगे आने लगी हैं।
दिल्ली साइकिएट्रिक सेंटर के निदेशक डा. सुनील मित्तल के अनुसार आजकल लड़कियों पर सुंदर एवं ग्लैमरस दिखने का दवाब बहुत अधिक बढ़ गया है। मीडिया, टेलीविजन एवं फिल्मों के जरिये उनके मन में फिल्मी हीरोइनों अथवा फैशन मॉडलों की तरह दिखने की चाह पनपती ही है तथा साथ ही साथ उन पर दोस्तों का भी दवाब होता है। समाज में बढ़ते आधुनिकीकरण, उपभोक्तावाद एवं ग्लैमर के प्रभाव के कारण लड़कियों में सुंदर दिखने की होड़ तेजी से बढ़ी है और इसी तरह का दबाव उन्हें कॉस्मेटिक सर्जन के पास जाने के लिए मजबूर करता है।
एक अनुमान के अनुसार सन् 2003 में 18 साल से कम उम्र के 74 हजार से भी अधिक लड़के-लड़कियों ने कॉस्मेटिक सर्जरी का सहारा लिया। उसके बाद के तीन साल में ही इसमें 14 प्रतिशत की वृद्धि हुई। वुद्धि की दर में आकलन के आधार पर निष्कर्ष निकाला गया है कि केमिकल पील, माइक्रोडर्माब्रेजन और बोटोक्स जैसी सभी प्रकार की कॉस्मेटिक सर्जरी में अगले एक साल में ही इनमें 50 प्रतिशत की वृद्धि हो जाएगी और 18 साल से कम उम्र में कास्मेटिक सर्जरी कराने वाले लड़के-लड़कियों की संख्या तीन लाख 36 हजार से भी ज्यादा हो जाएगी।
गत वर्ष 42 हजार 515 लड़कियों ने नाक की कास्मेटिक सर्जरी (राइनोप्लास्टी) करायी और 15 हजार 973 ने कान की कास्मेटिक सर्जरी अर्थात ईयर पिनिंग (ओटोप्लास्टी) करायी जो कि युवाओं कीें सबसे अधिक पसंदीदा कॉस्मेटिक सर्जरी है। इसके अलावा तीन हजार 841 किशोरियों ने ब्रेस्ट इम्प्लांट कराया और हजारों किशोरियों ने पेट की अतिरिक्त चर्बी से निजात पाने की सर्जरी (लाइपोसक्शन) का सहारा लिया। दूसरी तरफ स्तन में उभार लाने वाली तकनीक (ब्रेस्ट इम्प्लांट) में तो हर साल 24 प्रतिशत की दर से वृद्धि हो रही है।
मैक्स हास्पीटल के कास्मेटिक सर्जन डा. तलवार बताते हैं कि आजकल ज्यादातर छात्र-छात्राएं अपने लुक को लेकर संतुष्ट नहीं होते और अपने को सुंदर बनने के लिये कास्मेटिक सर्जरी कराते हैं। स्कूल-कालेज में लंबी छुट्टियों से पहले कॉस्मेटिक सर्जरी के मामलों में भारी इजाफा हो जाता है क्योंकि सर्जरी के बाद छुट्टी के दौरान ही सर्जरी के निशान मिट जाते हैं। इससे उन्हें सर्जरी के बाद कॉलेज से छुट्टी लेने की भी जरूरत नहीं पड़ती।
डा. तलवार बताते हैं कि विवाहित महिलाओं की तुलना में कॉलेज जाने वाली लड़कियांे और अविवाहित महिलाओं में कॉस्मेटिक सर्जरी का चलन अधिक है। ये सपाट पेट के लिए लाइपोसक्शन, षरीर के बेहतर शेप के लिए आर्म लिफ्ट, थाई लिफ्ट और बट लिफ्ट, ब्रेस्ट सर्जरी, एब्डोमिनोप्लास्टी, लेजर स्ट्रेच मार्क रिमूवल और विभिन्न प्रकार के त्वचा ट्रीटमेंट को अधिक तरजीज देती हैं।
राइनोप्लास्टी के जरिये नाक के स्वरूप में मनचाहा बदलाव कराने वाली 19 वर्षीया डॉली कहती हैं, ‘‘पहले मेरे बहुत कम दोस्त थे। मुझसे दोस्ती करने में किसी की भी दिलचस्पी नहीं होती थी। लेकिन मैं अपनी तुलना अन्य लड़कियों से नहीं करती थी। लेकिन जब मै सातवीं कक्षा में थी तो मुझे यह अहसास हुआ कि ऐसा मेरी मोटी नाक के कारण हो रहा है। तब मुझे लगा कि मैं इस नाक के साथ चुड़ैल की तरह दिखती हूं। मुझे अपने आप से ही नफरत होने लगी और मैंने राइनोप्लास्टी कराने का फैसला किया।’’
16 वर्षीय रीमा ने हाल ही में लाइपोसक्शन कराया है। वह कहती हैं, ‘‘मैं बचपन से ही मोटी थी। जैसे-जैसे मैं बड़ी होती गई मेरा पेट बाहर की ओर निकलने लगा। मेरे दोस्त भी मुझे टुनटुन कहकर चिढ़ाते थे। इससे मैं बहुत निराश रहती थी और मेरा आत्मविश्वास भी कम होता जा रहा था। मुझे घर से निकलने में भी शर्म आती थी। इसलिए मैंने अपने तनाव को खत्म करने के लिए अंततः लाइपोसक्शन कराने का फैसला किया। अब मैं बिल्कुल तनावमुक्त हूं और किसी से मिलने-जुलने और कहीं आने-जाने में कोई झिझक नहीं होती है।’’
वैसे तो हर कम उम्र की लड़कियों में सुंदर दिखने की चाह बढ़ी है लेकिन विशेशज्ञों का कहना है कि कम उम्र लड़कियों को कॉस्मेटिक सर्जरी कराने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए और अगर सर्जरी करानी ही हो तो अनुभवी और विशेषज्ञ कॉस्मेटिक सर्जन से ही कॉस्मेटिक सर्जरी करानी चाहिए ताकि किसी दुष्प्रभाव का सामना न करना पड़े।

ज्ञान से नहीं, अज्ञान से हुई धर्म की उत्पत्ति


धर्म का धंधा: भाग - 2

धर्म की उत्पत्ति
- विनोद विप्लव

मानव समाज के आविर्भाव के सबसे प्रारंभिक काल में आदि मनुष्यों के बीच धर्म उसके यथावत अर्थों में विद्यमान नहीं था। आदिकालीन पाषाण युग के अन्न संग्रह करने वाले शिकारियों में देवी-देवताओं, आराधनाओं और पूजा-पाठ आदि की ओर न तो कोई झुकाव था और न उसके लिए उनके पास अवकाश ही था। उनके क्रियाकलापों का एकमात्र प्रेरणा स्रोत जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करना मात्र था। उनका मुख्य लक्ष्य ‘‘परम जीव’’ अथवा ब्रह्म नहीं, वरन् जीवित रहने और अपना आहार- फल, मूल और पशुओं का मांस प्राप्त करने के लिए संघर्श करना था। उन्हें पशु में स्थित ‘पशुत्व’ की चिंता नहीं थी। वे पशु जिनका वे शिकार करते थे और आदिकालीन हथियार उनके लिए अज्ञात तत्व नहीं थे, ये उनके लिए वस्तुपरक यथार्थ थे। इस दृष्टिकोण से आदिकालीन मनुष्य आदर्शवादी अथव अध्यात्मवादी नहीं थे, बल्कि प्राकृतिक भौतिकवादी थे।
इस प्रकार आदिकालीन मनुष्यों के दिन-प्रतिदिन के जीवन में एक स्वतः स्फूर्त भौतिकवादी दृष्टिकोण ही उनका पथ प्रदर्शन करता था। प्रकृति पर अधिकार करने के हर कदम के साथ उनका क्षितिज विस्तृत होता गया, लेकिन प्राकृतिक घटनाओं की विशाल श्रंृखला उनकी समझ से परे की चीज थी। वे इन घटनाओं को भौचक्के होकर देखते रह जाते थे। संभवत इसी अज्ञान से रहस्यपूर्ण एवं धार्मिक अवधारणाओं का जन्म हुआ और इन अवधारणाओं के आधार पर उन्होंने प्रकति की अज्ञात एवं रहस्यमय शक्तियों के प्रकोप बचने की कोशिश में यज्ञ, पूजा-पाठ और अन्य धार्मिक अनुष्ठानों तथा जादू-टोने जैसी रहस्यमय क्रियाओं का जन्म हुआ। लेकिन इन सबका उद्देेश्य अपने प्रकति की लीलाओं एवं आपदाताओं से अपने को बचाना था। अपने अस्तित्व को बनाये रखने के संघर्ष में जूझते रहने के कारण पशु-पक्षी, जंगली जानवर, जंगल आदि भी आदिम मनुष्यों के लिए कहीं अधिक बलवान प्रतीत होते थे और उन्होंने उनपर काबू पाने के लिये उन पर अलौकिक तथा रहस्यमयी शक्तियां आरोपित करके पूजा शुरू कर दी। वास्तव मंे उनकी समझ से सभी वस्तुओं में, प्रकृति की सभी घटनाओं में, अलौकिक गुण विद्यमान थे। इससे ही धार्मिक मान्यताओं तथा अन्य अंधविश्वासों का आरंभ हुआ।
ब्रह्मांड के वास्तविक स्वरूप तथा जीव-जंतुओं की भौतिक, शरीर विज्ञान संबंधी और मनोवैज्ञानिक गठन से अनभिज्ञ और जन्म, मृत्यु, विचार और स्वप्नों के कारणों की कोई वैज्ञानिक व्याख्या न कर पाने के कारण ये आदिम मनुष्य समझने लगे थे कि मनुष्य की अनुभूतियां, संवेदनाएं और विचार मानव शरीर में कही अवस्थित उस अवर्णनीय आत्मा की सृष्टि है, जो मृत्यु के साथ शरीर को छोड़ देती है। इसी प्रकार वे यह भी सोचते थे कि यह संसार केवल भौतिक वस्तुओ से ही नहीं भरा है, अपितु इसमें एक अध्यात्म पदार्थ अथवा जीव भी है, जिसे आत्मा कहते हैं और जो भौतिक वस्तुओं में छिपी रहती है अथवा उनसे अलग और स्वतंत्र भी उसका अस्तित्व है।
आदिम मनुष्यों के लिये चूंकि प्रारंभिक शक्तियों को नियंत्रित करना उनकी सामर्थ्य से परे था इसलिए उन्होंने इनपर विजय पाने या इन शक्तियों को खुश रखने के लिये तरह-तरह के कर्मकांड, रस्म, समूह नृत्य एवं गीत जैसे उपायों का सहारा लेने लगे। आदिम मनुष्य मौसम मं हेर-फेर नहीं कर सकता था। अनुभव ने उसे सिखाया कि वह अपने हाथ से वर्शा, धूप, हवा, गरमी और ठंडक नहीं पैदा कर सकता, चाहे वह ऐसी घटनाओं के बारे में कितना ही सोेचे और कितनी ही कोशिश करे। अतः उसने उनसे निपटने के लिए जादू का सहारा लिया। जादू इस समझ पर आधारित है कि यदि आप यह भ्रम पैदा कर दें कि आप वास्तविकता को अपने नियंत्रण में ला रहे हैं तो आप सचमुच उसे नियंत्रण में ले आएंगे। मानव-प्रयत्नों की कमी को पूरा करने, मनुष्य की सीमाओं को दूर करने और उत्पादन के साधनों में तकनीकी कमी को पूरा करने के लिए वे अलौकिक शक्तियों और भूत-प्रेतों की सहायता की याचना करते थे। वृक्षों, सांपों, जंगली जानवरों और सभी तरह के भूत-प्रेतों की और पूर्वजों की प्रेतात्माओं की वे पूजा करने लगे। आत्मा, मरोणोपरांत जीवन, पुनर्जन्म भूत-प्रेत, मृत्यु लोक, स्वर्ग-नर्क आदि की अवधारणाओं का विकास एवं उन पर विश्वास दरअसल आदिकालीन मनुष्यों के सीमित ज्ञान, अनुभव एवं व्यवहारों के परिणाम थे। आदिमकालीन मनुष्य विश्वास करते थे कि उनकी भावनाएं, संवदेनाएं और विचार स्वयं उनकी अपनी चेतना की उपज नहीं है, वरन आत्मा उपज है ओर जो जो शरीर में निवास करती है तथा मृत्यु के बाद शरीर छोड़कर उड़ जाती है। ये लोग इसी समझ के कारण मरने के बाद जीवन में विश्वास करने लगे और आत्मा के प्रसादन के लिए बलि देने लगे।
इस तरह से धर्म आस्तित्व में आया। दरअसल धर्म केवल ईश्वर अथवा देवी-देवीताओं पर विश्वास और उनकी आराधना मात्र नहीं बल्कि व्यापकतम अर्थ में मनुष्यों के पारस्परिक संबंधों, क्रिया कलापों, उद्देश्यों और विचारों की समविष्ट था जो अलौकिक शक्तियों के विश्वास पर आधारित है। अलौकिक शक्तियों पर विश्वास सभी धर्मों की अनिवार्य विशिष्टता है, वही उनका आधार है। इस प्रकार, किसी निषिद्ध कार्य के उल्लंघन के लिए मिलने वाले अलौकिक दंड का विश्वास उसे कुछ न कुछ धार्मिक बना देता है। किसी भौतिक वस्तु में अलौकिक गुणों की मौजूदगी का विष्वास उसे धार्मिक आराधना की वस्तु बना देता है। कह सकते हैं कि अलौकिक एवं जादुई शक्तियों पर विश्वास एवं धर्म का उदय ज्ञान के फलस्वरूप नहीं, वरन् अज्ञान और अंधविश्वास के फलस्वरूप हुआ जबकि विज्ञान का उदय प्रकृति संबंध्ाी गलत धारणाओं के विरुद्ध संघर्ष के फलस्वरूप हुआ था।
एंगेल्स ने लिखा है, ‘‘जहां तक विचारधारा की बात है जो आज भी अंतरिक्ष में उंची-उंची उड़ाने भर रही है- धर्म, दर्शन, आदि- इनका एक प्रागैतिहासिक मूल है, जिसका पहले से ही अस्तित्व था और जिसे ऐतिहासिक काल ने अपना लिया था। किंतु आज हम उसे निरर्थक कह सकते हैं। प्रकृति, मनुष्श्य के अस्तित्व, भूत, प्रेतों, जादुई शक्तियों आदि से संबंधित अनेक गलत धारणाओं के आधार के रूप में केवल एक निषेधात्मक आर्थिक तत्व था। प्रकृति संबंधी गलत धारणाएं प्रागैतिहासिक काल के निम्नस्तरीय आर्थिक विकास को और तीव्र करती थीं, आंशिक रूप में उसका स्वभाव निर्धारित करती थीं और एक हद तक उसका कारण भी थीं। और, यद्यपि प्रकृति के संबंध में ज्ञान प्राप्त करने की मूल प्रेरक शक्ति आर्थिक आवश्यकताएं थीं- और आज तो वे और अधिक हैं- तो भी तमाम आदिकालीन मूर्खता भरी बातों का मूल कारण आर्थिक बताना या आर्थिक कारणांे में उनकी खोज करना दंभपूर्ण कार्य होगा। विज्ञान का इतिहास इन निरर्थक बातों का क्रमशः उन्मूलन करने का, अथवा उनके स्थान पर नयी-नयी, परन्तु हमेशा कम मूर्खतापूर्ण और कम निरर्थक, बातों को रखने का इतिहास है।’’
उत्पादन की शक्तियों के विकास के साथ, विशेशकर कृषि की तकनीक में विकास के साथ, प्रारंभिक काल की वस्तुवादी तथा धार्मिक धारणाओं में आमूल परिवर्तन हुए। एक ओर अपने वातावरण और प्रकृति के संबंध में मनुष्य के ज्ञान में वृद्धि हुई, दूसरी ओर नये-नये देवी-देवताओं, पूजा-पाठ के नये तरीकों का भी आविर्भाव हुआ।

नाटक - विनोद विप्लव


विनोद विप्लव की कहानी

सलिलमा ट्रेजडी किंग था। गांव की नाटक मण्डली का। दूर-दूर तक उसके नाम की धूम थी। सलिममा के अभिनय एवं अन्दाज से ऐसी गहरी पीड़ा और करूणा टपकती थी कि पत्थर दिल दर्शकों की आंखों से भी आंसू टपक पड़ते थे। मरने के अभिनय के मामले में तो कोई उसका सानी नहीं था। देखने वालों को ऐसा लगता कि सलिममा वास्तव में मर गया है- जैसा दशहरे की रात गांव में खेले जा रहे गंगा जमुना नाटक के उस दृश्य में लगा था। उस दृश्य में गोली खाकर वह जिस तरह चीखता हुआ गिरा थाA गिर कर देर तक दर्द से छटपटाता रहा था और फिर शान्त हो गया- उसे देखकर दर्शकों को ऐसा लगा कि सलिममा वास्तव में मर गया है और वह फिर कभी भी नहीं उठेगा। आंख-कान से कमजोर उसके बूढ़े मां-बाप तो छाती पिटते हुये स्टेज की तरफ दौड़ पड़े थे। ऐसा था सलिममा और उसका फन।

सलिममा अपने मां-बाप का इकलौता पूत था- लेकिन कमाऊ नहीं। वह दिन-रात सिनेमा और नाटक में ही डूबा रहता था। उसका एक ही सपना था- दूसरा दिलीप कुमार बनना। उसे उम्मीद थी कि एक दिन उसका सपना जरूर पूरा होगा। एक न एक दिन वह बम्बई जाएगा और अपने अभिनय की जादू से पूरी फिल्म इण्डस्ट्री पर छा जाएगा। वह पागलपन की हद तक दिलीप कुमार का दीवाना था। वह गांव से पांच कोस की दूरी पर स्थित कस्बे के एकलौते सिनेमा घर में लगने वाली हर फिल्म देखता। अगर दिलीप कुमार की फिल्म लगती तब उसके पहले और आखिरी शो के लिये तीसरे दर्जे का टिकट खरीदने वाला वह पहला व्यक्ति होता। हर बार सिनेमा घर से सिनेमा देखकर निकलने के बाद वह दिलीप कुमार बन चुका होता- दूसरा दिलीप कुमार।

सलिममा के मां-बाप की कोई अधिक आकांक्षा-महत्वाकांक्षा नहीं थी। केवल इतनी आकांक्षा थी कि सलिममा खेती-बाड़ी के काम में उनका थोड़ा हाथ बटाये और उनके मरने के बाद घर बार एवं खेती-बाड़ी की जिम्मेदारी सम्भाल ले और अपने बाल बच्चों के साथ सुखीपूर्वक जीवन व्यतीत करे। पूर्वजों की मेहरबानी और मां-बाप की मेहनत की बदौलत इतनी तो जमीन थी ही कि अगर ठीक से खेती की जाती तो खाने भर अनाज का पैदा होना मुश्किल नहीं था। सलिममा के मां-बाप उसे समझाते-समझाते थक गये कि गरीबों के लिये सुनहरा सपना पालना पांव में कुल्हाड़ी मारने जैसा है। खुदा ने जितना दिया है, कम नहीं है। लेकिन सलिममा का दीवानापन बढ़ता ही गया। आखिरकार सलिममा के मां-बाप ने अपने पूत के जूनून के साथ समझौता कर लिया। उन्हें उम्मीद थी कि शादी के बाद जब उस पर बाल-बच्चे और घर-गृहस्थी की जिम्मेदारी आएगी और जब उसे आटे-दाल का भाव मालूम होगा तब उसके सिर पर से दिलीप कुमार का भूत उतर जाएगा और सही रास्ते पर आ जाएगा। उन्हें क्या मालूम था कि सलिममा जिधर जा रहा था उधर से वापसी का कोई रास्ता नहीं था। लेकिन सलिममा इतनी जल्दी अपने बूढ़े मां-बाप और गांव वालों से जुदा हो जाएगा, ऐसा न तो उसके बूढ़े मां-बाप ने और न ही गांव के किसी आदमी ने सोचा था।

लेकिन सलिममा गायब हो गया। कहां! यह किसी को मालूम नहीं था। दशहरे की रात को खेले गये गंगा जमुना नाटक के बाद सलिममा गायब हो गया। उस नाटक के आखिरी दृश्य में सलिममा ने मरने का करूणाजनक अभिनय किया था। ऐसा अभिनय जिसे देखकर उसके मां-बाप को तो विश्वास हो गया कि सलिममा अब वहां चला गया है जहां से कोई नहीं लौटता- खुदा के पास। लेकिन गांव वालों का कहना था कि सलिममा सलीम के के पास चला गया है- मुगले आजम में सलीम की भूमिका निभाने वाले दिलीप कुमार के पास।

गांव की नाटक मण्डली के कलाकारों का कहना था कि नाटक के उस आखिरी दृश्य में सलिममा पर गोली चलाने का अभिनय निभाने वाले उसके जिगरी दोस्त रज्जू के साथ सलिममा का झगड़ा हुआ। झगड़े के दौरान रज्जू ने सलिममा को ऐसी कड़ी बात कह दी जिससे उसके दिल को गहरी ठेस पहुंची और वह कसम खाकर वहां से चला गया कि वह दूसरा दिलीप कुमार बन कर ही गांव लौटेगा। सलिममा जज्बाती और संवेदनशील था ही। कलाकार जो ठहरा। उस समय तो ऐसा लगा कि उसके दिल को रज्जू की बात से पीड़ा पहुंची है और गुस्सा शान्त होते ही वह वापस लौट आएगा। लेकिन वह अपनी कसम निभाने के लिए अपने बूढ़े-कमजोर मां-बाप को बेसहारा छोड़ कर चला गया। ऐसा निष्ठुर था सलिममा।

सलिममा के मरने की बात गांव का कोई आदमी नहीं सोचता था- सिवाय बूढ़े मां-बाप के। सबका कहना था कि सलिममा हीरो बनने के लिए बंबई चला गया। लेकिन पता नहीं कैसे सलिममा के बूढ़े-बाप यह मान बैठे कि उनका बेटा इस दुनिया से सदा के लिए उठ गया है। पता नहीं उनके ऐसा मान लेने का आधार क्या था। ऐसा तो नहीं कि सलिममा के मरने का अभिनय देखकर उसके मां-बाप को गहरा सदमा लगा हो और उनका दिमाग फेल हो गया हो।

गांव के लोगों की भान्ति भवानी सिंह का भी ऐसा ही मानना था था, जो गांव की नाटक मण्डली के माई-बाप थे। मण्डली को जीवित रखने तथा हर दशहरे पर नाटक करवाने का श्रेय उन्हें ही जाता था। वह नाटकों के आयोजन के लिए पैसे की कोई कमी होने नहीं देते। तन-मन-धन से इसके लिए समर्पित रहते। सलिममा की प्रतिभा को पहचानने, उसे निखारने और उसे गांव वालों के सामने लाने का श्रेय उनका ही था। यही कारण था कि सलिममा और भवानी सिंह के बेटे रज्जू में खूब छनती थी।

सलिममा और रज्जू लंगोटिया यार थे। जीवन में ही नहीं नाटकों में भी दोनों की दोस्ती बरकरार रहती। ये दोनों दोस्त या भाई की ही भूमिका निभाते। दशहरे की उस रात होने वाले नाटक में भी दोनों ने सगे भाई की भूमिका निभाई थी। सलिममा ने बड़े भाई की और रज्जू ने छोटे भाई की। दोनों भाइयों में गहरा प्रेम-लगाव था। बड़ा भाई परिस्थितिवश डाकू बन जाता है और छोटा पुलिस इंस्पेक्टर। बड़े को गिरफ्तार करने की जिम्मेदारी छोटे भाई को सौंपी गई थी। छोटा भाई बड़े को गिरफ्तार कर जेल में बन्द कर देता है। बड़ा मौका पाकर जेल से भाग जाता है। छोटे भाई को इसका ज्यों ही पता चलता है वह बड़े भाई को पकड़ने के लिए पीछा करता है। छोटा भाई कर्तव्यपरायणता से भरा हुआ था। अपना कर्तव्य निभाने के लिये वह किसी भी चीज की कुबाZनी दे सकता था। वह बड़े भाई को चेतावनी देता है कि वह अपने आप को कानून के हवाले कर दे अन्यथा वह गोली चला देगा। लेकिन बड़ा भाई अपने छोटे भाई की चेतावनी को सुन कर भी नहीं रूकता है और भागता जाता है। छोटा भाई,जो पुलिस इंस्पेक्टर था और जिसकी भूमिका रज्जू निभा रहा था- आखिरकार अपने बड़े भाई पर जो डाकू था और जिसकी भूमिा सलिममा निभा रहा था, गोली चला देता है। घटना वास्तविक नहीं, नाटक थी- जिसमें सच्चाई कुछ नहीं थी। केवल दिखावा था। रज्जू को खाली पिस्तौल का ट्रिगर दबाना था- गोली चलाने का नाटक करने के लिये । रंगमंच के पीछे से एक व्यक्ति को राइफल से आसमानी फायर करना था- गोली चलने की आवाज करने के लिये। सलिममा को सीने पर हाथ रखना था और अपने कपड़े के पीछे छिपा कर रखे गये रंग भरे गुब्बारे को दबाकर फोड़ना था ,ताकि उसमें भरा खून जैसा लाल रंग बाहर आ जाये और छाती से खून की धारा फूटने का अभाास हो। सलिममा को मरने का अभिनय करना था - ऐसा अभिनय जिसे देखकर दर्शकों को लगे कि वह वास्तव में मर गया है।

सलिममा के इस अभिनय को देखकर दर्शकों की आंख में आंसू आ गये थे। सलिममा के बूढ़े मां-बाप तो छाती पीट-पीट कर `हाय सलिममा- हाय सलिममा ´की गुहार करते हुये मंच की तरफ पागलों की तरह बदहवास दौड़ पड़े थे। लेकिन वालेंटियरों ने उन्हें पकड़ लिया था और समझाया था कि `यह तो नाटक है और सलिममा तो मरने का नाटक कर रहा था। आप क्यों घबराये हुये हैं। सलिममा के नाटक करने के बेजोड़ अन्दाज की यही तो खूबी है कि देखने वालों को ऐसा लगता है कि सलिममा वास्तव में मर गया है- लेकिन यह तो नाटक है- वास्तविकता नहीं । यही तो सलिममा का फन है- जिसका कोई जोड़ नहीं है। अगर उसे मौका मिले तो वह दिलीप कुमार की भी छुट्टी कर दे।´ वालेंटियर सलिममा के मां- बाप को घेर कर समझा रहे थे और सलिममा के मां- बाप छाती पीट कर चिल्ला रहे थे-`हाय सलिममा। हाय सलिममा।´

सलिममा ने अनेक बार मरने का अभिनय किया था। लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि उसके मां-बाप को नाटक देखकर विश्वास हो जाये कि सलीममा की जान निकल गई। यह दुनिया का न तो पहला नाटक था और न ही आखिरी। दुनिया में रोजाना ऐसे कितने नाटक होते हैं जिनमें मरने के दृश्य होते हैं। गांव में ही यह नाटक कई बार खेला गया। मरने की भूमिका हर बार सलिममा ने ही और गोली चलाने की भूमिका हर बार रज्जू ने ही निभाई। सलिममा हर बार बड़े भाई की और रज्जू छोटे भाई की भूमिका निभाता। दोनों के बीच का यह प्रेम नाटक के बाद भी वास्तविक जीवन में बरकरार रहता। दोनों के बीच की दोस्ती इस बात की मिसाल थी कि इंसानी रिश्ते जाति, धर्म और वर्ग भेद से ऊपर है।

रज्जू इज्जतदार, धनी और प्रभावशाली भवानी सिंह की औलाद था जिनका समूचे इलाके में रौब और रूतबा था। दूसरी तरफ सलिमममा गरीब और दीन-हीन मां-बाप की सन्तान था जिसके सामने खाने के भी लाले पड़े रहते

थे। सलिममा के मां-बाप के पास थोड़ी जमीन थी- लेकिन उस जमीन से खाने भर भी अनाज नहीं उपजता था। दूसरी तरफ रज्जू के साथ किसी तरह का अभाव नहीं था। रूपये- पैसे का उसके लिये कोई मोल नहीं था। तभी तो भवानी सिंह मुखिया के चुनाव में पानी की तरह पैसे बहाते थे।गरीबों का वह दिल खोल कर मदद करते थे। जो भी व्यक्ति कर्ज के लिये अथवा अन्य किसी मदद के लिये उनके दरवाजे पर आता, वह खाली नहीं लौटता। भवानी सिंह उस व्यक्ति को भी कर्ज दे देते जिससे एक ढेला भी लौटने की उम्मीद नहीं होती । उनके लगातार चुनाव जीतने का यही राज था। वह अब

विधायक का चुनाव लड़ने की योजना बना रहे थे। ऐसे समय में यह काण्ड हो गया अर्थात् सलीममा गायब हो गया और उसके मां-बाप को यह अन्देशा हो गया कि सलिममा नाटक करते समय मर गया। भवानी सिंह की सफलता और सम्पन्नता से जलने वालों की तादाद भी कम नहीं थी और कोई शक नहीं कि सलिममा के मां-बाप को उकसाने में उनके विरोधियों का हाथ न रहा हो।हालांकि कोई भी व्यक्ति उनके सामने ऊंची आवाज में बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता था- क्या मजाल की कोई उनके सामने उनकी बात काट दे या अनदेखी नहीं कर दे- लेकिन पीठ पीछे मुखालफत करने वाले भी कम नहीं थे।

भवानी सिंह अपने विरोधियों द्वारा फैलाई जा रही अफवाहों को लेकर चिन्तित थे। ऐसे समय में पता चला कि सलिममा के मां-बाप भी गायब हो गये। कब, कैसे और कहां! सब की जुबान पर यही सवाल था। इस बारे में अलग-अलग लोगों की अलग-अलग राय थी। गांव में इस तरह की घटनायें पहली बार हो रही थी और इन्हें लेकर अफवाहें फैल रही थी। इन घटनाओं और विरोधियों की अफवाहों से सबसे अधिक चिन्तित जाहिर है भवानी सिंह थे। भवानी सिंह ने सलिममा की मां-बाप की देख रेख के लिये अपने दो `आदमियों ´ की ड्यूटी उनके घर में लगा रखी थी। भवानी सिंह की सख्त हिदायत थी कि सलिममा के मां- बाप की पूरी निगरानी रखी जाये। उनका दिमाग ठीक नहीं है और ऐसे में वे कुछ भी कर सकते हैं- कहीं अगर उन्होंने आत्महत्या कर ली या कहीं गांव छोड़ कर चले गये या भूल-भाल या मर मरा गये तो सलीममा को क्या जवाब देंगे- जो कभी-न-कभी गांव आयेगा- कुछ-न-कुछ बनकर। सलीममा उनके लिए बेटा से कम नहीं था और सलीममा के गायब होने का उन्हें कितना दुख है यह तो वही जानते हैं। सलीममा भी बाप की तरह उनकी इज्जत करता था। अब जब सलीममा नहीं है तब सलीममा के मां-बाप और उनके जर-जमीन की देखभाल की जिम्मेदारी तो उन पर ही आ पड़ी है। ये विरोधी लोग तो किसी के दुख और विपत्ति को भी भुनाने की फिराक में रहते हैं।

भवानी सिंह को विश्वास था कि सलीममा के मां-बाप को भगाने में उनके दुश्मनों का ही हाथ है और जैसा डर था वही हुआ। पता नहीं, वे क्या कर बैठे। कुछ भी करें, फजीहत तो उन्हीं की होगी- क्योंकि उनकी देखभाल की जिम्मेदारी तो स्वयं उन्होंने ही उठायी थी। उनके कई हितैषियों और घर के लोगों ने समझाया भी `अब भलाई का जमाना नहीं रहा। इस पचड़े में पड़ने से क्या फायदा। दानशीलता और समाज सेवा की भी एक सीमा होती है और इस सीमा के भीतर रह कर ही किसी की मदद करनी चाहिए। हमें भी सलीममा के मां-बाप से सहानुभूति है- लेकिन हम उन्हें सान्त्वना ही दे सकते हैं। किसी की लाख मदद कीजिए- जो होना होगा, वह तो होकर ही रहेगा। किसी की किस्मत तो नहीं बदल सकते। अब सलीममा के मां-बाप के भाग्य में यही लिखा था कि उनका इकलौता बेटा ही उन्हें छोड़ जायेगा- तो दूसरा आदमी क्या कर सकता है।´ लेकिन भवानी सिंह की नैतिकता इन तर्कों को मानने को तैयार न थी।`आदमी ही तो आदमी के काम आता है। फिर सलीममा तो कोई पराया आदमी था नहीं। आदमी के बीच खून का सम्बंध ही सब-कुछ नहीं होता- भावना और लगाव भी एक चीज है।´

इसी कारण भवानी सिंह ने जोखिम को महसूस करते हुए भी सलीममा के मां-बाप की देखरेख का जिम्मा उठाया। वह तो इस बात के लिए तैयार थे कि अगर सलीममा के मां-बाप को मानसिक अस्पताल में भर्ती कराने की जरूरत आ पड़ी तो वह खर्चा उठायेंगे। लेकिन सलीममा के मां-बाप के गायब हो जाने से भवानी सिंह की सारी योजना धरी की धरी रह गई। उन्होंने सलीममा के मां-बाप की निगरानी रखने की ड्यूटी सम्भालने वाले आदमियों को भरपूर डांट पिलाई और सड़ी-गली गालियां सुनाई। अगर पहलेे का माहौल होता तो उनकी खाल उधेड़ देने और नौकरी से निकाल देने में भवानी सिेह तनिक कोताही नहीं बरतते- लेकिन आज ऐसा करना उनके राजनीतिक भविष्य के लिए खतरनाक साबित हो सकता था, क्योंकि ऐसा करने पर वे विरोधी गुट में शामिल होकर उनके लिए सरदर्द बन सकते थे। वैसे भी ऐसा करने से कुछ हासिल तो होता नहीं। उन्होंने अपने कई लगुओं-भगुओं को सलीममा के मां-बाप की तलाश करने और मिल जाने पर उन दोनों को हर हाल में गांव लाने की जिम्मेदारी देकर विभिन्न दिशाओं में रवाना किया।

भवानी सिंह सलीममा और उसके मां-बाप के रहस्यमय ढंग से गायब हो जाने के कारण उत्पन्न परिस्थितियों और आगामी चुनाव में उसके असर के बारे में अपने खास-खास आदमियों के साथ बातचीत कर रहे थे तभी उनके एक चेले ने दारोगा जी के दो सिपाहियों के साथ गांव आने की सूचना दी। भवानी सिंह को आज पहली बार अहसास हुआ कि उनके विरोधी कितने सक्रिय थे।

वैसे भवानी सिंह के लिए दारोगा जी का गांव आना कोई चिन्ता की बात नहीं थी - क्योंकि दारोगा जी पर भवानी सिंह के कई तरह के कर्ज और अहसान थे। भवानी सिंह यह अच्छी तरह जानते थे कि दारोगा जी किसी न किसी आर्थिक तंगी में थे और इस तंगी से उबरने के लिए गांव आये थे। भवानी सिंह के लिए सबसे अधिक चिन्ता की बात यह थी कि आखिर उनके किस दुश्मन ने ऐसे बेसिर-पैर की बात फैलाई है। अगर इस बात को फैलने से रोका नहीं गया और विरोधियों की जुबान बन्द नहीं की गई तो अगला चुनाव समर उनके लिए हल्दी घाटी साबित हो सकता है। सलीममा के मां-बाप का तो चलो दिमाग फिर गया है- लेकिन ऐसा कौन है जो ऐसी बातें पुलिस तक पहुंचा रहा है। पुलिस का मुंह तो फिर भी बन्द किया जा सकता है लेकिन पीठ पीछे अफवाह फैलाने वालों के मुंह कैसे बन्द रखे जा सकते हैं।

दारोगा जी ने जिस समय भवानी सिंह की भव्य हवेली के बैठक खाने में प्रवेश किया उससे थोड़ी देर पहले भवानी सिंह ने छमिया से पैर और सिर दबवाया था और अब तक उसकी कोमल अंगुलियों की गुदगुदी महसूस कर रहे थे। सिर दबाने से वह कुछ हल्का और अच्छा महसूस कर रहे थे। लेकिन दारोगा जी ने भवानी सिंह को जो बात बतायी उसे सुन कर वह चिहुंक पड़े- जैसे किसी बिच्छू ने डंक मारा हो। भवानी सिंह उठ कर खड़े हो गये- क्या....

हां हुजूर, वे दोनों सलीममा के मां-बाप ही थे।

आपका होश तो ठिकाने है..... आप क्या कह रहे हैं दारोगा जी.....लगता है अब सलीममा के मां-बाप को नहीं पहले आपको ही पागलखाने में भर्ती कराने की जरूरत है। वे दोनों थाना तक कैसे पहुंच सकते हैं।´

क्यों नहीं पहुंच सकते हुजूर। मैं दोनों को पहचानता हूं। वे खुद भी तो कह रहे थे कि वे सलीममा के मां-बाप हैं। ऐसे रो-कलप रहे थे- विश्वास मानिये- जैसा कोई अपने के मर जाने पर ही रो सकता है।

दारोगा जी। आप क्या कह रहे हैं- आपको मालूम है। लगता है, आपको किसी ने मेरे खिलाफ बरगला दिया है।

हुजूर मैंने आपका नमक खाया है। इसलिए तो मैं पहले हुजूर के पास आया हूं, ताकि आपको सतर्क कर दूं। पर यकीन मानिये वे दोनों आज ही सलीममा की हत्या की रिपोर्ट लिखाने आये थे। वे कह रहे थे कि नाटक खेलने के दौरान सलीममा गोली से मर गया और उसकी लाश को छिपा कर बाद में नदी में बहा दिया गया।

उन दोनों ने जो कहा उस पर आपने विश्वास कर लिया और सलीममा की हत्या की तहकीकात करने गांव आ गये। आपको मालूम नहीं कि वे दोनों पागल हो चुके हैं। उन्हें तो मेरे दुश्मनों ने बहका दिया है। मेरे खिलाफ कितनी बड़ी साजिश रची जा रही है- आपको पता नहीं। दुख तो इस बात का है कि जिन्हें मैंने जीवन भर अपना समझा वही मेरे खिलाफ साजिश में शामिल हो गये। सलीममा को तो मैं दूसरा बेटा मानता था और आज सलीममा के कारण मुझे ऐसी जिल्लत उठानी पड़ रही है।´

मैंने हुजूर का नमक खाया है। मैं तो पहले ही समझ गया था कि ये दोनों पागल हैं और हुजूर के दुश्मनों की चाल में फंस गये हैं, लेकिन ड्यूटी निभाने का नाटक तो करना ही पड़ता है। वैसे भी आपके दर्शन करने के सौभाग्य कहां मिलते हैं। बहुत दिन से आपका आशीर्वाद लेने को सोच रहा था। संयोग से यह बहाना भी मिल गया। सोचा दोनों काम हो जायेगा- जांच भी और आपसे इनाम भी.....।

आपका इनाम तो वहीं पहुंच जाता, दारोगा जी। इत्तला भर भिजवा देते। आजकल माहौल खराब चल रहा है। गांव में पुलिस आने की बात पर ही लोग मेरे खिलाफ तरह-तरह की अफवाहें फैला देंगे।

हुजूर इतना क्यों सोचते हैं। हम हैं किसलिए। कोई गड़बड़ नहीं होगी। मैं तो दो-चार लोगों के बयान लूंगा। बस। मेरी ड्यूटी खत्म। उसके बाद आप जो कहेंगे- वही होगा। आखिर आपका नमक खाते रहे हैं।

गांव में पुलिस आने की खबर से युवकों में आतंक फैल गया था। युवक जहां-तहां छिप गये थे। बुजुर्ग और महिलायें भी घर में कैद हो गई थी। बच्चों को पुलिस की हकीकत और खौफ से क्या लेना-देना। उन्हें पुलिस से कैसा भय। लिहाजा भवानी सिंह की हवेली के बाहर अधनंगे बच्चे और कुछ बूढ़ी औरतों की भीड़ इकट्ठी हो गई थी। भवानी सिंह और दारोगा जी, दोनों सिपाहियों और अपने आदमियों के साथ हवेली से बाहर निकले। बच्चों को उन्होंने डांट कर भगाया- लेकिन बच्चे तो बच्चे ठहरे- भागने की बजाय उनके पीछे लग गये। भवानी सिंह ने अपने आदमियों को भेजा कि गांव से लोगों को बुला लाये, उन्हें डरने की जरूरत नहीं है। दारोगा जी गांव का मुआयना करने आये हैं। कुछ ही देर में वहीं युवक घुंघट डाले औरतें और बुजुर्ग जमा होने लगे। कुछ देर में पूरा गांव जमा हो गया था। भवानी सिंह ने दारोगा जी को दो-चार नहीं दस-बीस लोगों के बयान दिलवा दिये।

सलीममा तो मेरा प्राण था। हम दोनों तो लंगोटिया यार थे। उसके मन में क्या था, यह मुझसे ज्यादा कोई नहीं जान सकता है। उसका एक ही सपना था- मुम्बई जाकर अपना भाग्य चमकाना लेकिन पैसे नहीं होने के कारण नहीं जा पा रहा था। मैंने तो उसे कहा था कि अभी एक-दो साल ठहरो। जब बाबूजी चुनाव जीत जायेंगे तो वह मुम्बई भेजने की और वहां ठहरने की व्यवस्था कर देंगे। इतने बड़े शहर में अनजान आदमी कहां ठहरेगा- कोई पक्की व्यवस्था तो हानी चाहिए। सलीममा मान भी गया था। लेकिन पता नहीं उस दिन नाटक में उसके मन को क्या ठेस पहुंची कि वह गांव छोड़कर चला गया। मैंने तो उसे रात पता नहीं पता नहीं किस बात पर मजाक में उससे कह दिया कि क्या खाकर दिलीप कुमार बनोगे। अगर ऐसे ही आदमी दिलीप कुमार बनने लगे तो हो गया फिल्मी दुनिया का कल्याण। इतनी सी ही बात थी। मैंने तो यह बात मजाक में कही थी। मुझे क्या मालूम था कि सलीममा इतनी गम्भीरता से ले लेगा। उसके जाने से तो मैं अकेला पड़ गया हूं.....। यह था रज्जू का बयान।

दारोगा बाबू। इस गांव में कोई पहली बार नाटक तो हुआ नहीं। हर साल नाटक होते रहते हैं- मालिक की कृपा से। वे तो इस गांव के लिए देवता समान हैं। गांव के लिए बहुत-कुछ किया उन्होंने। सलीममा का तो उन्होंने जीवन ही बनाया। अब सोचिये, सलीममा की खातिर उन्हें ऐसी बदनामी सुनने को मिल रही है। मालिक पर क्या गुजरती होगी। सलीममा के मां-बाप तो पगला गये हैं। मैं तो कहता हूं कि उन्हें पागलखाने में भर्ती कराना जरूरी है।´ यह था रामुआ का बयान जिसे मंच के पीछे से हवाई फायर करना था।

सलीममा के मरने की बात बिल्कुल बकवास है। मालिक के दुश्मनों की करतूत है। उनके दुश्मन नहीं चाहते कि मालिक चुनाव जीतें। मैं तो वर्षों से मालिक की सेवा करता रहा हूं। मैं मालिक के स्वभाव को खूब जानता हूं। मालिक सन्त स्वभाव के हैं, इसलिए ऐसी बातें सुन कर सहन कर रहे हैं। मालिक ने तो सलीममा के लिए क्या नहीं किया। मालिक मुझे माफ करें। लेकिन आज मैं सच बात कह कर ही दम लूंगा। सलीममा नमक हराम था। वह छोटे मालिक से दोस्ती का फायदा उठाकर घर में आ जाता था और इधर-उधर तांक-झांक करता था। उसकी नज़र बुरी थी। मैं तो इस घर में वर्षों से नौकर हूं। मेरे लिए यह बर्दाश्त करना मुश्किल था कि एक गैर आदमी तांक-झांक करे। सलीममा को मैंने चेतावनी दी थी कि वह नमक हरामी न करे। तब जानते हैं दारोगा जी- उसने मुझे मार डालने की धमकी दी। वह छोटी बहू पर बुरी नज़र रखता था। एक बार तो मैंने सलिममा को छोटी बहू के साथ एकान्त में.....।

भवानी सिंह की क्रोध भरी नज़र से अपना वाक्य पूरा किये बगैर अचानक चुप हो जाने वाला यह मिश्री लाल था जो मां-बाप के मरने के बाद से ही उनका कर्ज चुकाने के लिए भवानी सिंह के घर में नौकर का काम करता था।

सच तो यह है हुजूर कि सलीममा के मां-बाप का दिमाग क्रैक कर गया है। हम सभी नाटक देख रहे थे। हमें तो ऐसा नहीं लगा कि सलीममा मर गया है। हो सकता है कि बैलून में जो लाल रंग भरा हुआ था- वह फूट कर बाहर आया और सलीममा के मां-बाप ने समझ लिया कि सलीममा के सीने से खून निकल आया। इससे दोनों को सदमा लगा हो और उनका दिमाग फेल हो गया है।´ यह था राम लाल।

मुझे भी यही लगता है कि सलीममा के मां-बाप पागल हो गये हैं।´ भवानी सिंह ने अपना अन्तिम निष्कर्ष सुनाया।

क्यों आप लोग क्या समझते हैं। क्या सलीममा के मां-बाप पागल हैं। दारोगा जी ने गांव वालों से पूछा।

एक साथ कई स्वर उभर पड़े-पागल हैं हुजूर। पागल हैं।

हम पागल नहीं हैं दारोगा बाबू यह सलीममा के बाप थे जो भीड़ के बीच से पता नहीं कहां से पैदा हो गये। उनके पीछे सलीममा की बूढ़ी माई थी।

भवानी सिंह को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। ये कहां से आ गये। उनके आदमी ऐसे जाहिल हैं कि उन्हें कच्चा चबा जाने का मन करता है। भवानी सिंह गुस्से से दान्त चबाने लगे थे लेकिन इस समय कुछ कर पाने में असमर्थ थे। भीड़ बूढ़े-बुढ़िया को आंख फाड़ कर देख रही थी।

सलीममा की लाश को इन लोगों ने नदी में बहा दिया था। सलीममा मेरे सामने ही गोली लगने से तड़प-तड़प कर मर गया था। मुझे तो पकड़ कर घर में बन्द कर दिया था- इन लोगों ने। सलीममा के हत्यारे को नहीं छोड़िये दारोगा बाबू- आपके पांव पड़ता हूं। सलीममा के बूढ़े बाप दारोगा जी के पैरों पर गिर कर गुहार करने लगे थे।

अरे ई दोनों तो एकदम पगला गये हैं दारोगा जी। इनकी बात पर विश्वास मत कीजिए। हम सब क्या झूठ बोल रहे हैं। गोव के सब लोग झूठ बोल रहे हैं और ई सत्य हरिश्चन्द्र बनने चले हैं। अरे इन्हें जल्दी पागलखाना भेजना जरूरी है.....। यह परमेश्वर था।

ऊपर वाला सब देखता है। कीड़े पड़े तुम्हें।´ सलीममा की मां विक्षिप्त हो गई थी।

सलीममा के बाप ने बालेश्वर का हाथ पकड़ लिया `तू तो सब देखते हलहीं कि कैसे ई सब सलीममा के लहास गायब कर देलकै। तू ही कहते हलहीं कि तू अपन आंख से देख ले है। चुप काहे हा हो। साहेब से बता दे न। सलीममा के बाप विनती कर रहे थे।

सलीममा के बाबू तोरा दिमाग ठिकाने पर तो है। हम तोरा का कहा था। मालिक हम इसे कुछ नहीं कहा। ई पागल हो गये हैं। सब गांव वाले को फंसाने के चक्कर में हैं। हम कुछ नहीं कहा मालिक। हम तो कुछ जानते ही नहीं हैं। तू हमरा से कौन जनम के दुश्मनी निकाल रहला ह सलीममा के बाबू। बालेश्वर भवानी बाबू से रहम की भीख मांग रहा था।

तू तो सच बोल द भैया। तू भी तो वहीं हल.....।

सलीममा की मां भीख मांग रही थी- सच्चाई के लिए। लेकिन सच्चाई इतनी सस्ती चीज साबित नहीं हुई।

दारोगा साहब आप बेकार ही इन दोनों पागलों की बात में आकर अपना समय बबाZद कर रहे हैं। यहां कुछ नहीं हुआ। इन दोनों को तो सलीममा के गांव से भाग जाने का सदमा लगा है और तभी से पागलों जैसी हरकते कर रहे हैं।´ यह पण्डित रामसुख थे।

भवानी सिंह ने भी कहा, पण्डित जी ठीक कह रहे हैं। क्या दारोगा जी। अब आपका काम हो गया होगा।

दारोगा बाबू हम पागल नहीं हैं। ई सब रज्जू आव भवानी के दलाल हैं। अरे भइया। कोई तो खुदा से डरो। वह सब देख रहा है। दारोगा साहब हम झूठ ना कह रहली ह। हमर बेटवा के ई सब मार के नदिया में फेंक देले।´ सलीममा के बाबू दुहाई दे रहे थे। उन्होंने दारोगा जी के पैर पकड़ लिये।

दारोगा जी कलम और डायरी कब का बन्द कर चुके थे। वह भवानी सिंह के साथ हवेली चलने को तैयार थे- जहां से उन्हें अपना इनाम लेना था। वह सलीममा के बाप को धकेल कर आगे बढ़ गये।

भीड़ भी वहां से छंटने लगी थी- सब खामोश थे। सलीममा के मां-बाप गुहार कर रहे थे- कोई तो बोल द भईया इतना कठजात मत बन। भगवान सब देख रहलन ह।, लेकिन कोई बोल नहीं रहा था। केवल सलीममा के मां-बाप का करूण स्वर उभर रहा था। दोनों छाती पीट रहे थे कराह रहे थे- छटपटा रहे थे- वैसे ही जैसे सलीममा मरने का अभिनय करते समय छटपटाता था- जिसे देख कर पत्थर दिल भी पिघल जाते थे और जिसे देखने के लिए दर्शक दौड़े चले आते थे लेकिन सलीममा के मां-बाप को छटपटाते देखने के लिए वहां कोई नहीं बचा था- सब वहां से खिसक गये थे।


मीडिया कालेज से बनिये अरबपति

ढिबरी चैनल का घोषणा पत्र - भाग - तीन)
अपने फर्म की इस दुधारू शाखा को शुरू करने के लिये, सच कहा जाये तो, हमारी अंठी से एक धेला भी नहीं लगा। हालांकि दुनियावालों को पता है कि हमने इसके लिये करोड़ांे रूपये फूंक डाले। इस झूठ के फैलने से इससे हमारी इज्जत भी बढ़ गयी और हमंे अपने काले धन को सफेद करने में भी मदद मिल गयी।
दरअसल जिस तरह से हाथी के दांत के दो तरह के दांत होते है - खाने के और दिखाने के और, ठीक उसी तरह हमारे और हमारे धंधे के दो चेहरे होते हैं - एक दुनियावालों के लिये और एक अपने और अपने जैसे धंधेबाजों के लिये। इसी परम्परा का पालन करते हुये हमने इस धंधे की नयी शाखा के लिये दो घोषणापत्र बनावाये थे। एक घोषणापत्र तो वह था जिसे हमने अखबारों में छपावाये थे ताकि चैनल में पैसे लगाने वालों को फंसाया जा सके जबकि असली घोषणापत्र को हमने तैयार करके बही खाता के बीच सुरक्षित रखकर गद्दी के नीचे दबाकर रख दिया ताकि जरूरत के समय इस्तेमाल में लाया जा सके।
सबसे पहले हम अखबारों में छप चुके नकली घोषणापत्र और लुभावने प्रस्ताव को लेकर प्रोपर्टी डीलर से बिल्डर बने अपने एक पुराने कारिंदे के पास गये। जब हमने कई साल पहले प्रोपर्टी डीलरी का एक नया धंधा शुरू किया था तब उसे हमने दुकान की साफ-सफाई और देखरेख तथा वहां आने वाले ग्राहकों को पानी पिलाने के लिये रखा था। बाद में वह ग्राहकों को पानी पिलाने में माहिर हो गया। धीरे-धीरे उसने ग्राहकों को फंसा कर हमारे पास लाना शुरू किया और हम उत्साह बढ़ाने के लिये उसे कुछ पैसे भी देने लगे। कुछ समय में ही वह इस काम में इतना होशियार हो गया कि उसने बाद में खुद ही प्रोपर्टी डीलिंग का काम शुरू कर दिया। बाद में वह बिल्डर बन गया और आज उसकी गिनती देश के प्रमुख बिल्डरों में होने लगी है। उसने जब पिताजी के नाम पर टेलीविजन चैनल शुरू करने के प्रस्ताव को पढ़ा तो वह खुशी से उछल पड़ा। वह इस प्रस्ताव से इतना प्रभावित हुआ कि वह उसने खुशी-खुशी दस करोड़ रूपये टेलीविजन चैनल में निवेश करने को तैयार हो गया। उसकी केवल एक शर्त थी कि लड़कियों के चक्कर में पिछले पांच साल से बारहवी की परीक्षा में फेल हो रहे अपने एकलौते बेटे को चैनल में कोई महत्वपूर्ण पद पर नौकरी दी जाये, जिसे हमने सहर्ष स्वीकार कर लिया। बाद में हमने उसके लफंगे बेटे को इनपुट हेड का पद दिया। पैसे की उसे कोई जरूरत थी नहीं, इसलिये हमने उसके लिये कोई सैलरी तय नहीं की।
इसके बाद हम इस प्रस्ताव को लेकर अपने एक लंगोटिया यार के पास गये जो इस समय लाटरी और चिटफंड बिजनेस का टायकून माना जाता था। वह जुएबाजी में माहिर था और उसने जुए से पैसे जमा करके ‘‘वाह-वाह लाॅटरी’’ नाम से एक कंपनी षुरू की। उसका यह धंधा चल निकला और उसके पास पैसे छप्पड़ फाडू तरीके से इस कदर बरस रहे हैं कि उसके यहां नगदियों के बंडलों की औकात रद्दी के बंडलों से ज्यादा नहीं रही है। वहां अगर किसी उपरी रैक से कोई कागज या कोई सामान निकालना होता है तो नगदियों के बंडलों का इस्तेमाल सीढ़ी या मेज के तौर पर किया जाता है। नगदियों के बंडलों को गिनते समय या बंडल खोलते समय जो नोट खराब निकलते हैं या फट जाते हैं उन्हें कूड़े की टोकरियों में डाल दिया जाता है और दिन भर में ऐसी कई टोकरियां भर जाती है। बाद में फटे नोटों को कूड़े के ढेर में मिला कर जला दिया जाता है। वह मेरे पिताजी का मुरीद था और उनका बहुत सम्मान करता था, क्योंकि उन्होंने ही उसे लाॅटरी का ध्ंाधा शुरू करने के लिये प्रेरित किया था। जब उसने सुना कि हम पिताजी के नाम को अमर करने के लिये टेलीविजन चैनल षुरू कर रहे हैं तो उसने उसी समय नगदी नोटों के बंडलों से भरा एक ट्रक हमारे गोदाम में भिजवा दिया। जब हमने कहा कि अभी इनकी क्या जरूरत है तो उसने कहा कि ‘यह तो उसकी तरफ से पिताजी की महान स्मृति को विनम्र भेंट है। आगे जब भी पैसे की जरूरत हो केवल फोन कर देने की जरूरत भर है। वैसे भी उसके लिये उसके खुद के गोदामों में नगदी के बंडलों को असुरक्षित है, क्योंकि कभी भी सीबीआई वालों का छापा पड़ सकता है जबकि टेलीविजन चैनल के दफ्तर में नगदी के बंडलों को रखने में इस तरह का कोई खतरा नहीं है। वह चाहता है कि उसके यहां के गोदाम में जो नोटों के बंडल भरे पड़े हैं, उन्हें ट्रकों में भर कर ढिबरी न्यूज चैनल के आफिस में भिजवा देगा ताकि उन्हें वहां चैनल के दफ्तरों के दो-चार कमरों में इन नोटों को रखकर बंद कर दिया जाये।’ हमने अपने दोस्त की यह इच्छा मान ली।
उस दोस्त की एक और इच्छा थी और उसे भी हमने उसके अहसानों को देखते हुये सिरोधार्य कर लिया। असल में उसकी पत्नी को पूजा-पाठ एवं धर्म-कर्म में खूब आस्था थी। वह दिन भर बैठ कर धार्मिक चैनलों पर बाबाओं के प्रवचन सुनती रहती थी। प्रवचन सुनते-सुनते उन्हें भी आत्मा, परमात्मा, परलोक, माया-मोह, भूत-प्रेत, पुनर्जन्म आदि के बारे में काफी ज्ञान हो गया था वह मेरे दोस्त चाहता था कि उसकी पत्नी को ढिबरी चैनल पर सुबह और शाम एक-एक घंटे का कोई विशेष कार्यक्रम पेश करने को दिया जाये अथवा उन्हें किसी विषय पर प्रवचन देने का विशेष कार्यक्रम दिया जाये। इससे पत्नी खुश और व्यस्त रहेगी और अपने मनचले पति पर हमेषा नजर रखने वाली पत्नी का ध्यान कुछ समय के लिये पति और उसके रंगारंग कार्यक्रमों से हट जायेगा ताकि उसके पति को अपनी शाम को रंगीन करने के सुअवसर मिल सके।
हमने मिलावटी दारू, दूध, दवाइयों आदि के कारोबारों में लगे अन्य व्यवसायियों से भी संपर्क किया और इन सभी ने हमें दिल खोल कर पैसे दिये। दिल्ली, मुबंई और बेंगलूर जैसे कई षहरों में कालगर्ल सप्लाई करने का कारोबार करने वाले एक अरबपति कारोबारी ने चैनल के लिये बीस करोड़ रूपये का दान किया। इसके अलावा उसने हर माह चैनल चलाने के खर्च के तौर पर पांच करोड़ रूपये देने का वायदा किया। उसने अपनी तरफ से एक छोटी इच्छा यह जतायी कि उसे हर दिन चैनल में एंकरिंग करने वाली लड़कियों में से एक लड़की को हर रात उसके यहां भेजा जाये। हमने उसे एक नहीं पांच लड़कियों को भेजने का वायदा किया ताकि वह अपने उन अरब पति ग्राहकों की इच्छाओं का भी सम्मान कर सके जो मीडिया में काम करने वाली सुंदर बालाओं के साथ रात गुजारने की हसरत रखते हैं।
इस तरह हमारे पास जब सौ करोड़ से अधिक रूपये जमा हो गये तब हम चैनल के इस प्रस्ताव को लेकर शिक्षा मंत्री के पास गये। शिक्षा मंत्री के पिता हमारे पिताजी की दारू की गुमटी पर दारू बेचने का काम करते थे। पिछले चुनाव में भी हमने अपने जाति के सारे वोट उन्हें दिलाये थे। इसलिये शिक्षा मंत्री को हमसे खास लगाव था। उन्होंने चैनल खोलने का हमारा प्रस्ताव देखा तो हमसे लिपट कर हमारे पिताजी की याद में रोने लगे। वह कहने लगे, ‘‘मैं तो आपके पिताजी के एहसानों तले इस कदर दबा हूं कि उनकी याद मै खुद पहल करके सरकार की तरफ से उनके नाम पर एक विश्वविद्यालय खोलने वाला था। अब अगर आप टेलीविजन चैनल खोल रहे हैं तो मैं आपसे कहूंगा कि आप टेलीविजन चैनल के साथ-साथ एक मीडिया एक कालेज भी खोल लें जिसका नाम ‘‘राष्ट्रीय ढिबरी मीडिया इंस्टीच्यूट एंड रिसर्च सेंटर’’ रखा जा सकता है। बाद में मैं इस कालेज को अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा दिला दूंगा। इससे पिताजी का नाम न केवल भारत में बल्कि दुनिया भर में रौषन हो जायेगा। इस कालेज के लिये मैं सरकार की तरफ से 100 एकड़ की जमीन एक रूपये प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से दिलवा दूंगा। साथ ही कालेज के भवन के निर्माण पर आने वाले खर्च का 50 प्रतिशत सरकार की तरफ से दिलवा दूंगा। आप इसी कालेज से अपना चैनल भी चलाइये। आपको करना केवल यह होगा कि इस कालेज में गरीब और एस टी-एस सी के 25 प्रतिशत बच्चों को निःशुल्क प्रशिक्षण देने के नाम पर हमारे जैसे मंत्रियों, अधिकारियों एवं नेताओं और उनके रिश्तेदारों के बच्चे-बच्चियों का दाखिला कर लिजिये जबकि बाकी के बच्चों से फीस के तौर पर ढाई-तीन लाख रूपये सालाना वसुलिये। ’’
शिक्षा मंत्री ने जो गुर बताये उसे सुनकर मेरी इच्छा हुयी कि मैं उनके पैर पर गिर पड़ू, हालांकि मुझसे वे उम्र में छोटे हैं, लेकिन उन्होंने क्या बुद्धि पायी है। वैसे ही वह इतनी कम उम्र में शिक्षा मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद पर आसीन नहीं हो गये। कितने तेज दिमाग के हैं। अब उनकी सफलता का राज समझ आया। आज पता चला कि ऐसे ही मंत्रियों की तीक्ष्ण बुद्धि की बदौलत ही हमारे देष ने इतनी अधिक प्रगति की है। शिक्षा मंत्री जो मंत्र सिखाया उसके आधार पर मैंने हिसाब लगाकर देखा कि आज जिस तरह से चैनलों में काम करने के लिये लड़के-लड़कियां उतावले हो रहे हैं, उसे देखते हुये पिताजी के नाम पर बनने वाले कालेज में प्रवेश लेने वालों की लाइन लग जायेगी, क्योंकि इतने हमारे कालेज और चैनल के साथ एक से एक बड़े नाम जुड़े होंगे। सभी बच्चों को सब्जबाग दिखाया जायेगा कि कोर्स पूरा होते ही उन्हें एंकर अथवा रिपोर्टर बना दिया जायेगा। अगर हर बच्चे से तीन-तीन लाख रूपये लिये जायें और पांच सौ बच्चों बच्चों को प्रवेश दिया जाये तो हर साल 15 करोड़ रूपये तो इसी तरह जमा हो जायेंगे। इस तरह एक मीडियाकालेज से ही कुछ सालों में अरबों की कमाई हो जायेगी। साथ ही साथ कैमरे आदि ढोने, सर्दी-गरमी में दौड़-धूप करने, कुर्सी-मेज और गाड़ियों की साफ-सफाई करने जैसे कामों के लिये मुफ्त में ढेर सारे लडकेे तथा चैनलों में पैसे लगाने वाले तथा अलग-अलग तरीके से मदद करने वालों की मचलती हुयी तबीयत को षांत करने के लिये मुफ्त में कमसीन लड़कियां मिल जायेंगी। कालेज में दाखिला लेने वालों में से किसी को नौकरी तो देनी नहीं है, केवल प्रलोभन ही देने हैं, क्योंकि जब पत्रकारिता स्कूल-कालेज चलाने वाले अन्य चैनलों और अखबारों के मालिक जब उनके कालेजों में पढ़ने वाले लड़के-लड़कियों को कोर्स खत्म होते ही लात मार कर निकाल देने की पावन परम्परा की स्थापना की है तो हम क्यों इस परम्परा का उल्लंघन करने का पाप लें।

........................शेष भाग चार में

इन्हें भी पढ़ें
1. ढिबरी न्यूज का घोषणापत्र, भाग 1


2. दारू-जूए का अड्डा, जो कहलाता है प्रेस क्लब (ढिबरी न्यूज का घोशणापत्र, भाग 2)




ढिबरी न्यूज के बारे में और जानकारी के लिये पढ़ें
1. ढिबरी न्यूज में चैनल प्रमुख के लिये खुली अर्जी


2. ढिबरी न्यूज में भर्ती अभियान