अरविंद शेष
बचपन से एक सूक्ति सुनता आया हूं कि इस ब्रह्मांड में बिना ईश्वर की इच्छा के एक पत्ता भी नहीं हिलता है। जब से बेहोशी टूटी ऐसा लगने लगा कि हर अकाल मानी जाने वाली मौतें] उन्मादियों के द्वारा किए जाने वाले कत्लेआम या दो महीने की बच्ची से लेकर किसी साठ साल तक की औरत के साथ होने वाले बलात्कार] धर्म के नाम पर मासूम बच्चों और औरतों की निर्मम हत्यायें क्या ईश्वर करवाता है। भूख से तड़प कर या कर्ज नहीं चुका पाने की वजह से अपनी जान खुद ही लेते हुए लोगों को देख कर ईश्वर क्यों बेहोश हो जाता है। क्यों ईश्वर हमेशा शोषकों] दलालों] अमीरों और कौन और कैसे मुझे बताएगा कि मैं पिछले जन्म में कोई हाथी था या कुत्ता था या अगले जन्म में मैं उसी रूप में पैदा होऊंगा।फिर याद आती है वे तस्वीरें जिसमें पिता कुछ ईश्वर की कही जाने वाली तस्वीरों के सामने हाथ जोड़े खड़े होते हैं और मां हर सप्ताह एक या दो दिन उपवास करके हमारे कल्याण की भीख मांग रही होती। फिर मैं भी उस ईश्वर के सामने सिर झुका कर कभी परीक्षा में पास होने की तो कभी हवाई जहाज में सफर करने की भीख मांगने लगा। आज समझ में आता है कि वह ईश्वर और मेरे दिमाग में घुसाए गए हिंदू होने के धर्म या उसमें मेरी तब की आस्था मेरी कितनी निजी थी।
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3 comments:
ईश्वर को सब दिखता है.. वह् भी जो है, और वह भी जो हमे नही दिखता...
घडा तभी छलकता है जब वह भर जाता है...वैसे हम किसी वस्तु को पा लेते हैं तो उसे अपनी सफलता का नाम देते है.. और यदि कष्ट आन पडे तो ईश्वर को दोष देने लगते है... बत्तईये दोषी कौन है ?
अच्छा ब्लाग बनाया हॆ विनोद जी आपने.इसमे साहित्य की दुनिया के कचरे के बारे मे लिखना चाहिये.
बहुत अच्छा लिखा है आपने.. इस विषय मैने भी लिखा था...
http://sureshchiplunkar.blogspot.com/2007_01_01_archive.html
हमारे यहाँ तर्कपूर्ण बात करने वाले को हमेशा सन्देह की निगाह से देखा जाता है...
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