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Saturday, April 14, 2007

जब लोकतंत्र का प्रहरी ही लोक के लिये खतरा बन जाये


मीडिया को लोकतंत्र का प्रहरी कहा जाता है लेकिन दुभाZग्य से हमारे देश में इस प्रहरी की निगाह में आम लोगों के सरकारों की कोई कीमत नहीं। हमारे देश में मीडियामालिकों एवं मीडियाकर्मियों की निगाह केवल विज्ञापनों] एश्वर्य राय और अमिताभ बच्चन की अमीरी--- ऐययाशी] राखी सावंत और मल्लिका शेरावत जैसी लड़कियों के कपड़े से झांकते जिस्म और अफीम का रूप ले चुके क्रिकेट पर रहती है। मीडिया के लिये आम आदमी की जान] उसके श्रम अधिकारों और उसके संघर्षों का कोई महत्व नहीं है। यही कारण है कि मौजूदा दौर में मीडिया के जनविरोधी भूमिका को लेकर समाज का हर व्यक्ति---हर वर्ग क्षुब्ध है। ऐसे में कई विशेषज्ञ मीडिया पर लगाम लगाने के लिये कड़े कानून बनाने की वकालत कर रहे हैं। यह बात दो संगोfष्ठयों के दौरान उभरी। इन संगोfष्ठयों में मौजूद विनोद विप्लव ने कुछ प्रमुख बातों को यहां प्रस्तुत किया है। इस बारे में अगर आप भी कोई राय रखते हों तो हमें अवश्य बतायें।
नयी दिल्ली में पिछले दिनों आयोजित एक संगोष्ठी में सुप्रसिद्ध साहित्यकार से- रा- यात्री ने मीडिया के घटते जनसरोकारों पर चिंता जताते हुये मौजूदा मीडिया की निर्लज्जता का मुकाबला करने के लिये वैकल्पिक मीडया बनाने की जरूरत जतायी। श्री से रा यात्री ने पत्रकार एवं आंदोलनकमीZ राजकुमार भाटी की पुस्तक -कही----अनकही---के विमोचन के मौके पर कहा कि आज के राष्ट्रीय अखबारों एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिये वही सबसे बड़ी खबर होती है उसका सामाजिक सरोकारों और जनहित से दूर - दूर का वास्ता नहीं होता है। उन्होंने कहा कि आज के समय में मीडिया जो निर्लज्ज भूमिका निभा रहा है वह शर्मनाक है और इसका मुकाबला हर स्तर पर किया जाना चाहिये। उन्होंने कहा कि मौजूदा स्थितियों में छोटे एवं मंझोले अखबारों तथा लघु पत्रिकाओं की साथक भूमिका हो सकती है। टेलीविजन चैनल आजतक के अधिशासी संपादक राम कृपाल सिंह ने कहा आज के बाजारवाद के दौर में हर आदमी का उद्देश्य मुनाफा कमाना हो गया है। आज हर क्षेत्र में तेजी से विकास हो रहा है लेकिन मीडिया समेत हर क्षेत्र में तेजी से बाजारवाद एवं उपभोक्तावाद बढ़ रहा है और ऐसे में विचारवान पत्रकारों को रक्षात्मक भूमिका निभानी पड़ रही है। उन्होंने कहा कि आज के समय में वैसी हर पुंजी का विरोध होना चाहिये जिसका कोई सामाजिक सरोकार नहीं हो।
सामाजिक संगठन --ओपन फोरम-- एवं --ओमेक्स फाउंडेशन-- की ओर से पिछले दिनों नयी दिल्ली के साहित्य अकादमी में ``मीडिया एवं सामाजिक विकास´´ पर आयोजित एक संगोष्ठी में वक्ताओं ने देश में मीडिया खास तौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के तेजी से हो रहे विस्तार एवं इनके द्वारा परोसी जा रही आपत्तिजनक सामगि्रयों के मद्देनजर कारगर राष्ट्रीय मीडिया नीति भी बनाये जाने की मांग करते हुये कहा कि हमारे देश में फिल्मों के लिये केन्द्रीय सेंसर बोर्ड जैसी नियामक संस्थायें हैं लेकिन लोगों की मानसिकता एवं सोच को व्यापक पैमाने पर प्रभावित करने वाले टेलीविजन चैनलों के लिये कोई नियामक संस्था अभी तक नहीं बनायी गयी है।
संगोष्ठी में मौजूद अनेक सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधियों ने मुनाफा और व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा की होड़ में समाज में अंधविश्वास] अपराध एवं अन्य नाकरात्मक प्रवृतियों को बढ़ावा देने वाले निजी टेलीविजन चैनलों पर नियंत्रण रखने के लिये सरकार से तत्काल कड़े कानून बनाने की मांग की है।
सेंटर फॉर मीडिया स्टडिज ---सी एम सी-- की निदेशक पी- एन- वासंती ने कहा कि आज ज्यादातर समाचार पत्रों एवं टेलीविजन चैनलों की सामग्रियों का चयन जनहित एवं सामाजिक सरोकार के आधार पर नहीं बल्कि व्यावसायिक मुनाफे के आधार पर होता है और यही कारण है कि आज मीडिया से जनहित एवं सामाजिक विकास से जुड़ी खबरें एवं सामग्रियां गायब हो गयी हैं और इनकी जगह पर सस्ता मनोरंजन बेचा जा रहा है और यह तर्क दिया जा रहा है कि लोग ऐसा चाहते हैं जबकि लोगों की रूचियों को जानने के लिये न तो कोई अध्ययन होता है और न कोई सर्वेक्षण।
श्रीमती वासंती ने मिसाल के तौर पर बताया कि फरवरी माह के पहले पखवारे के दौरान डी डी न्यूज को छोड़कर किसी भी टेलीविजन चैनल ने प्राइम टाइम पर विकास] विज्ञान] स्वास्थ्य] पर्यावरण और इसी तरह के अन्य मुद्दों पर एक भी खबर या कार्यक्रम का प्रसारण नहीं किया। उन्होंन कहा कि आज समाचार पत्रों एवं टेलीविजन चैनलों में खबरों के लिये गेट कीपर की भूमिका विज्ञापनदाता निभा रहे हैं और इस करण उन्हीं खबरों एवं कार्यक्रमों की प्रमुखता दी जाती है जिन्हें बाजार में बेचा जा सके और विज्ञापन बटोरे जा सकें।
सुश्री वासंती ने कहा कि एक समय समाचार पत्र जनहित के मुद्दों को तरहीज देते थे क्योंकि उस समय समाचार पत्रों की आमदनी का 30 से 40 प्रतिशत हिस्सा पाठकों से प्राप्त होता था लेकिन आज समाचार पत्रों एवं टेलीविन चैनलों की आमदनी के मुख्य स्रोत विज्ञापन हो गये है। आज खबरिया चैनलों में प्राइम टाइम पर प्रसारित होने वाली खबरों में तीन प्रतिशत से भी कम खबरें सामाजिक विकास के मुद्दों से जुड़ी होती हैं।
संगोष्ठी को चेक गणराज्य के प्रेस एवं मीडिया विभाग के सचिव जयंत टूट्रल] सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक डा- बिन्देश्वर पाठक, स्पैन पत्रिका के हिन्दी संपादक गिरिराज अग्रवाल] जनमत टेलीविजन के रिसर्च प्रमुख दिवाकर] अनंत पत्रिका के संपादक कुमार अमन और नवभारत टाइम्स की सुश्री मंजरी चतुर्वेदी ने भी संबोधित किया।
ओमेक्स फाउंडेशन के श्री अरविन्द मोहन ने मीडिया से समाजिक सरकारों को तरहीज देने की अपील करते हुये कहा कि समाज और देश के विकास में मीडिया की एक महत्वपूर्ण भूमिका है और मीडिया को केवल व्यावासिक होड़ में फंस कर अपनी इस महत्वपूर्ण जिम्मेदारी की अनदेखी नहीं करनी चाहिये।

1 comment:

सुभाष मौर्य said...

सही कहा विनोद जी। यह आज के मीडिया की त्रासदी बन गया है। लेकिन इसका कोई और रास्‍ता ही नहीं बचा है। दरअसल बात यह है अब समाचार पत्रों और चैनलों का लक्ष्‍य जनता की बात उठाने के बजाए लाभ कमाना हो गया है। पहले अखबार चलाने के लिये विज्ञापन की जरूरत होती थी अब विज्ञापन हासिल करने के लिये अखबार की जरूरत पड्ने लगी है। यह जानकार अच्‍छा लगा कि अरविंद मोहन इन दिनों ओमेक्‍स फाउंडेशन में चले गए हैं।

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