भारत सरकार केप्रेस इंफॉरमेशन ब्यूरो में कार्यरत श्री जयसिंह अखबारों एवं पत्र- पत्रिकाओं में लिखते रहते हैं। अबला बनाम सबला ’’ के बारे में यहां पेश है उनकी राय।
पुस्तक - अबला बनाम सबला
महिला सशक्तिकरण - कामयाबी और चुनौतियां
हमारे देश में जब भी महिलाओं की बात चलती है तो सामने दो तरह की तस्वीर उभरकर आती है।एक तस्वीर सबला की जो पढी- लिखी है, साधन-संपन्न है, कमाती है और अपने कार्यक्षेत्र में सफल होने के साथ- साथ नीतियों- निर्णयों में दखल रखती हैं और जिसे आज की महिला होने का गौरव हासिलहै।
दूसरी तस्वीर इसके उलट है। यह तस्वीर उस महिला की है जो अनपढ. है, साधनहीन है, उसका कार्यक्षेत्र उसका घर है, परिवार है और नीतियों तथा निर्णयों से उसका दूर-दूर तक नाता नहीं। दोनों में एक समानता बस यही है कि दोनों महिला हैं तथा आज की महिला हैं। हां, एक सबला है, दूसरी अबला।
ऐसा क्यों है, इतना बडा फर्क कैसे पैदा हुआ, वे क्या परिस्थितियां हैं, इस फर्क को पाटने के लिए सरकारी और गैर-सरकारी पहल हुई हैं, कानून भी बने हैं लेकिन वे कारगर क्यों नहीं हुए और अगर हुए तो इतने कम क्यों हुए कि आजादी के 60 वर्षों बाद भी देश की महिलाएं, देश के विकास का हिस्सा नहीं बन सकीं। ये सभी सवाल सुशीला कुमारी की पुस्तक’अबला बनाम सबला’ में उठाए गए हैं और जिनका उत्तर तलाशने की ईमानदार कोशिश की गई है।
महिला सशक्तिकरण- स्थितियां, पहल, कानूनी संबल और कामयाबी के अंतर्गत पुस्तक में कुल 21 अध्याय है। महिला सशक्तिकरण- पहल के अंतर्गत महिलाओं की स्थिति, स्वास्थ्य, भागीदारी और ‘शोषण तथा हिंसा’ पर बात की गई है। आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं को मिली कामयाबी के कारण समाज में महिलाओं की स्थिति मे सुधार तो हुआ है लेकिन साथ ही साथ नई प्रवृत्तियां भी उभरी हैं जिनके चलते नई समस्याएं भी पैदा हुई हैं। पुस्तक में इन प्रव़त्तियों और समस्याओं पर खुलकर बात की गई है। इसी खंड में मीडिया पर भी एक अध्याय है जिसमें मीडियाकी नजर में महिलाओं की उपयोगिता या आवश्यकता पर गंभीर टिप्पणी की गई है खासकर प्रिंट मीडिया पर जो महिलाओं के असली मुददों से अधिक महत्व उनकी सुंदरता, दाम्पत्य, सेक्स आदि मुद्दों को देती है। वहीं इलेक्टानिकमीडिया ने महिलाओं की अलग ही छवि बनाईहै।इलेक्टानिक मीडिया के बारे में लेखिका की टिप्पणी- ‘मीडिया विज्ञापनों, धारावाहिकों और फिल्मों के भीतरस्त्री का निर्माण करते हुए यह भूल जाता है कि भारत की शोषित, दमित स्त्री की मुक्ति का लक्ष्य बाजार में साबुन बेचने वाली स्त्री नहीं हो सकती।
महिला सशक्तिकरण- पहल खंड के अंतर्गत दो अध्याय हैं जिनमें महिला आंदोलनों और शिक्षा पर फोकस है। आजादी के बाद से हुए महिला आंदोलनों से महिलाओं में आत्मनिर्भरताबढ है, वे अधिक सजग हुई हैंऔर उनमें फैसले लेने की समझ विकसित हुई है। हालांकि शैक्षिक स्तर पर महिलाएं आज भी पीछेहै। पुस्तक में शैक्षिक पिछडेपन के कारणों को विस्तार से बताया गया है।
महिला सशक्तिरण- कानूनी संबल खंड में कुल छह अध्याय सम्मिलित किये गए हैं जिनमें महिलाओं के खिलाफ अपराध और कानून, यौन दुर्व्यवहार, बलात्कार, तलाक, दहेज और बाल विवाह जैसे कानूनों का जिक्र है तथा बताया गया है कि तमाम कानूनों के बावजूद महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में कमी नहीं आई है, बल्कि बढ.ोत्तरी ही हुई है। हालांकि सरकारी प्रयास जारी हैं लेकिन बिना पारिवारिक भागीदारी के सफल नहीं हो सकते।
अंतिम खंड ‘कामयाबी’ में महिलाओं की आर्थिक, राजनैतिक, प्रबंधकीय, प्रशासकीय क्षेत्र में कामयाबी पर चर्चा है।
पुस्तक में महिलाओं से संबंधित लगभग प्रत्येक पक्ष पर विस्त़त विश्लेषण किया है जिससे एक स्पष्ट नजरिया बनाने में पाठक को सहायता मिलती है। पुस्तक की एक खासियत यह है कि इसमें ग्रामीण और शहरी दोनों वर्गों की महिलाओं की स्थितियोंका विवेचन है तथा बडीईमानदारी सेउन शहरपढी-लिखी कामयाब महिलाओं की सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर यह बेवाक टिप्पणी की गई है कि इनमें से कुछ अपवादों को छोड्कर अधिकतर महिलाएं अभी भी पुरूष प्रधान समाज तथा वर्तमान बाजारीकरण का एक मोहरा भर हैं।
पुस्तक - अबला बनाम सबला
लेखिका - सुशीला कुमारी
पृष्ठ - 142
मूल्य - 200 रूपये
प्रकाशक - साची प्रकाशन
पता -- 81, समाचार अपार्टमेंटस, मयूर विहार- फेज - एक- एक्सटेंशन, नयी दिल्ली -110001
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Wednesday, May 16, 2007
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महिला सशक्तिकरण का रास्ता स्वछंदता से नहीं गुजरता
महिला सशक्तिकरण का रास्ता स्वछंदता से नहीं गुजरता
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2 comments:
"जिमि स्वतन्त्र होहिँ बिगरहिँ नारी..." -- रामायण से।
आजकल सुप्रीम कोर्ट के "sexual harassment of women..." कानूनों का दुरुपयोग करते हुए कुछ महिला(सूपर्णखा जैसी) ने कई पुरुषों की जिन्दगी को अकारण नर्क बना डाला है।
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