सत्यवादी क्रांति - अंगारे

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हाथों में अंगारों को लिये सोच रहा था / कोई मुझे अंगारों की तासीर बताये ।

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Saturday, August 8, 2009

सत्यवादी क्रांति

- विनोद विप्लव

भारत दिनों एक महान क्रांति के दौर से गुजर रहा है। वैसे तो हमारे देश और दुनिया में कई क्रांतियां हुयी हैं। मसलन औद्योगिक क्रांति, साम्यवादी क्रांति, समाजवादी क्रांति, पूंजीवादी क्रांति, और श्वेत एवं हरित जैसी रंगवादी क्रांतियां। लेकिन भारत में आज जिस क्रांति की लहर चल रही है उसकी तुलना में बाकी क्रांतियंा पसांग भर भी नहीं हैं। इसी महान क्रांति का असर है कि आज हर आदमी सच बोलने के लिये छटपटा रहा है। ऐसा लग रहा है कि मानो उन्होंने अगर सच नहीं बोला तो उनका दम घुट जायेगा, देश का बंटाधार हो जायेगा, धरती फट जायेगी और दुनिया रसातल में चली जायेगी। यही कारण है हर भारतीय सच बोलने का एक मौका देने की गुजारिष कर रहा है। लोग दिन-रात फोन करके गुहार लगा रहे हैं, ‘‘प्लीज, एक बार मुझे भी सच बोलने के लिये बुला लो।’’ लोग फोन करने के लिये इस कदर उमड़ पड़े हैं कि फोन लाइनें ठप्प पड़ गयी हंै। लोग रात में जाग-जाग कर फोन कर रहे हैं। सच बोलने के प्रति लोगों में ऐसा भयानक जज्बा इतिहास में शायद ही कभी देखा गया। वैसे भी हमारे देश में सच बोलने की परम्परा नहीं रही है। हमारे इतिहास में सच बोलने वाले केवल एक ही व्यक्ति का जिक्र आता है - राजा हरिश्रचन्द्र का। लेकिन उनके बारे में भी ऐसा कोई सबूत नहीं मिलता कि उन्होंने कभी अपनी निजी जिंदगी के बारे में सच बोला हो। उन्होंने कभी भी खुलासा नहीं किया कि उनके अपनी पत्नी के अलावा कितनी महिलाओं से संबंध थे, उन्होंने अपनी पुत्री से कम उम्र की कितनी लड़कियों से संबंध बनाये थे, उन्होंने पांच सितारा सरायों से कितनी सफेद या अन्य रंगों की चादरें चुरायी थी। लेकिन इसके वाबजूद उन्हें सत्यवादी का खिताब दे दिया गया जो दरअसल इस बात का सबूत है कि उनके जमाने में सच बोलने वालों का कैसा भयानक अकाल था। वाकई हमारा देष सच बोलने के मामले में पूरी तरह कंगाल रहा है। यहां सच उगलवाने के लिये हमारी बहादुर पुलिस को लोगों को बर्फ की सिल्लियों पर लिटाना पड़ता रहा है और मार-मार कर उनकी चमड़ी उधेड़नी पड़ती रही है। यहां गीता और ईश्वर से लेकर मां-बहन की कसमें खाकर, सत्यनिष्ठा की शपथ लेकर और अदालत में एफिडेविट देकर झूठ बोले जाते रहे हैं। लेकिन अब झूठ का यह अंधकार युग गुजर चुका है। अब सच और सत्यवादियों का बोलवाला हो चुका है। आज लोग वैसे-वैसे सच बोल रहे हैं जिसके कारण उनकी जिंदगी नर्क बन सकती हैं, उनका दाम्पत्य जीवन नर्क बन सकता है, समाज में उनकी इज्जत मिट्टी में मिल सकती है। लेकिन इन्हें इन सबकी परवाह नहीं है, उन्हें तो सच बोलना है - इसकी कीमत चाहे जो भी चुकानी पड़े या जो भी कीमत पानी पड़े। ऐसे सत्यवादियों को शत्-शत् नमन। आश्चर्य तो यह है इतनी महान क्रांति एक टेलीविजन कार्यक्रम ने कर दी। लेकिन कुछ समाज विरोधियों की साजिष तो देखिये। वे इस क्रांति का सूत्रपात करने वाले कार्यक्रम पर ही प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहे हैं। यह तो हम सबका सौभाग्य है कि हमें बहुत ही समझदार सरकार मिली है जिसे पता है कि ऐसी मांग करने वाले लोगों की क्या मंशा है। सरकार जानती है कि ऐसे लोग देश को आगे बढ़ने नहीं देना चाहते। वे जनता को दाल, रोटी, पानी, बिजली, पानी, पेट्रोल, रसोई गैस और सड़क जैसे पुरातन और बेकार मुद्दों में ही उलझाये रखना चाहते हैं, लोगों को पिछड़ा बनाये रखना चाहते हैं। आज जब लोग ऐसे टेलीविजन कार्यक्रमों की बदौलत सच बोल रहे हैं, जमीन से उपर उठकर समलैंगिकता, एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर्स, राखी सावंत, मल्लिका शेरावत, माइकल जैक्सन, सरकोजी और बू्रनी के बीच के संबंध आदि उच्च स्तरीय मुद्दों के बारे में सोच रहे हैं तो देश और समाज को पीछे ले जाने वाले कुछ मुट्ठी भर लोगों को यह पच नहीं पा रहा है। सरकार को चाहिये कि देश में सच बोलने की क्रांति पैदा करने वाले एंकर को भारत रत्न से सम्मानित करे। उसे ऐसी योजनायें बनानी चाहिये ताकि देश के हर टेलीजिवन चैनल ऐसे ही बल्कि इससे भी आगे के कार्यक्रम प्रसारित करें ताकि यह क्रांति देश के दूरदराज के इलाकों में भी फैले। मुझे तो पूरा विश्वास है कि ऐसा जरूर होगा। सत्य की विजय होगी। कहा भी तो गया है - सत्यमेव जयते।

यह व्यंग्य नवभारत टाईम्स में ०७-०८-२००९ को प्रकाशित हो चुका है

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