देखने और जलाने के लिये कौन सा अखबार सर्वथा उपयुक्‍त है

विनोद विप्लव
अथश्री मीडिया मंदी कथा : द्वितीयोध्याय :
बेरोजगार हो चुकी और इन दिनों सेब बेच रही टीवी एंकर से सेब खरीद कर आगे बढ़ गया। मंडी की आपाधापी, पैर पर चढ़ आने को उतावले रिक्शों और ठेलों से बचते हुये आगे बढ़ रहा था। उत्पात मचा रहे एक बेलगाम सांड़ से बचने के लिये मैं तेजी से पैर बढ़ा रहा था कि कानों में पीछे से आती आवाज को सुन कर पैरों में आटोमेटिक ब्रेक लग गए, मरखंडे सांड़ की सींग के खौफ को भूलकर। सांड़ लोगों को दौड़ता हुआ आगे निकल गया और मैं इत्मीनान की सांस लेते हुये पीछे मुड़ा। आवाज अब भी आ रही थी - ''ताजा खबर। पांच किलो पहाड़ी आलू के साथ एक किलो अखबार फ्री।'' आखिर आज माजरा क्या है? कहीं सेब के साथ एक्सक्लूसिव स्टोरी की सीडी मिल रही है तो कहीं आलू के साथ अखबार मिल रहे हैं! लगता है मीडिया ने मंडी में डेरा जमा लिया है। जिस तरफ से आवाज आ रही थी, उधर ही मुड़ गया। वहां का दृश्य देखकर भौचक रह गया। यह क्या! एक ठेला आलू से भरा था, ठेले के नीचे आलू की कई बोरियां रखी थीं और ठेले के पीछे अखबार का एक छोटा सा पहाड़ खड़ा था।
वहां ग्राहकों का अच्छा-खासा जमावड़ा था। कई ग्राहक आलू और मुफ्त में अखबार लेने के लिये लाइन लगाये थे। एक लड़का आलू तौल रहा था। दूसरा आलू लेने वाले ग्राहक से पैसे लेकर उन्हें एक-एक किलो अखबार तौल कर दे रहा था। तीन चार ग्राहक तो सब्र तोड़कर वहीं खड़े होकर अखबार में छपी हीरोइनों और मॉडलों की नंगी और अधनंगी तस्वीरों का आनंद ले रहे थे। आलू तौलवा रहे दो लोग कनखियों से जिस्मानी सौंदर्य का विस्फोट करने वाली तस्वीरों को देख रहे थे। अखबार के पहाड़ के पास खड़े एक सज्जन ग्राहकों को आकर्षित करने के लिये चिल्ला रहे थे - ''पांच किलो आलू पर एक किलो अखबार फ्री। देखने और जलाने के लिये सर्वथा उपयुक्त।''
देखेते ही मैं उन्हें पहचान गया। नहीं पहचानने का सवाल ही नहीं था। मैं कई बार उनके साथ सामाजिक विषयों की रिपोर्टिंग के लिये गया था। वह अपनी लेखनी के जरिये समाज में सामाजिक चेतना कायम करने के लिये कृतसंकल्प थे। वह अपने प्रतिबद्ध लेखन के साथ-साथ अपनी ईमानदारी और निष्ठा के लिये जाने जाते थे। वह पत्रकारिता को व्यवसाय अथवा पेशा नहीं बल्कि समाज को बदलने का एक कारगर जरिया समझते थे।
यह सब देखकर मुझे यह समझ में नहीं आया कि उन्हें यह क्या नया करने की सूझी है। हो सकता है कि अखबार में सामाजिक जागरूकता पैदा करने वाला उनका कोई लेख छापा हो और उस लेख को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के लिये उन्होंने यह युक्ति निकाली हो। यह भी हो सकता है कि मंहगाई के इस दौर में घर का खर्च चलाने के लिये अतिरिक्त पैसे का जुगाड़ करने के लिये उन्होंने छुट्टी के दिन आलू बेचने का काम शुरू कर दिया हो। यह सही है कि कुछ अखबारों ने पत्रकारों की सेलरी बढ़ा दी है लेकिन दिल्ली जैसे महानगर में रहने और घर-परिवार चलाने का खर्च जिस तेजी से बढ़ा है उसे देखते हुये पत्रकारों को नौकरी के अलावा अलग से कुछ न कुछ करते रहना पड़ता है। कुछ लोग अनुवाद करते हैं, तो कुछ लोग कहीं पार्ट टाइम काम भी कर लेते हैं और कुछ लोग पत्नी के नाम से या किसी छदम नाम से लिखते रहते हैं। कुछ लोग पीआर एजेंसी से गुपचुप तरीके से जुड़ जाते हैं तो कई अपने पत्नी के नाम से पीआर एजेंसी खोल लेते हैं। कुछ लोग विज्ञापन एजेंसियों में स्क्रिप्ट राइटिंग के जरिए अतिरिक्त कमाई कर लेते हैं। हालांकि इन उपायों से ज्यादा कुछ नहीं मिलता है और इसलिये अगर हमारे वरिष्ठ पत्रकार महोदय ने यह तरीका आजमाना शुरू किया हो तो कोई आश्चर्य नही।
मैंने आगे बढ़कर उनसे नमस्ते करने के बाद पूछ बैठा, ''यह क्या भाई साहब। सामाजिक पत्रकारिता के बाद अब किस तरह की पत्रकारिता करने को सोची है।''
''नौकरी छूटने के बाद खर्च चलाने के लिये कुछ न कुछ तो करना पड़ेगा। ऐसे में आलू बेचने का यह धंधा क्या बुरा है।''
''लेकिन आलू के साथ अखबार फ्री देने का तजुर्बा मुझे कुछ समझ में नहीं आया। फिर इतना अखबार आप कहां से लाते हैं। ऐसा लगता है कि रद्दी अखबारों का ठेका आपने ले रखा है।'' मैंने पूछा।
''दरअसल यह लंबी कहानी है। कभी घर आयें तो विस्तार से बताउंगा और अपनी आंखों से आप खुद देख सकते हैं। लेकिन घर में आपको मैं बिठा नहीं पाउंगा, क्योंकि मेरे घर में बैठने की जगह भी नहीं बची है। पूरे घर में अखबार भरा है। पिछले कुछ दिनों से हम लोग अपने पड़ोस के यहां रह रहे हैं। उन्होंने हम पर दया करके एक कमरा रहने के लिये दे दिया है।''
''लेकिन आपके यहां इतने अखबार आए कहां से?''
उन्होंने अपने दुखड़े को बयान किया, ''बड़ी दर्द भरी कहानी है। नौकरी से निकाले जाने का नोटिस लेने के लिये संपादक ने मुझे जब अपने चैम्बर में बुलाया तो मुझसे कहा कि आपको दो महीने की सैलरी देकर नौकरी से हटाया जा रहा है। लेकिन कंपनी के पास सैलरी देने के पैसे नहीं है। अखबार बिक नहीं रहे हैं। इसका कारण यह है कि आप जैसे पत्रकारों के लेखों एवं रिपोर्टों को अखबारों में छपने के कारण अखबार का सरकुलेशन बिल्कुल डाउन हो गया है। पिछले कई महीनों से वापसी इतनी बढ़ गई है कि गोदमा फुल हो गए हैं। गोदामों में जगह न होने से प्रबंधन ने फैसला किया है कि नौकरी से हटाये जाने वाले कर्मचारियों को जितना भुगतान करना है, उसके बराबर का रद्दी अखबार उन्हें दे दिया जाये। इसलिये आपको जितने का भुगतान किया जाना है, उसके बदले अखबार ट्रक में भरकर आपके घर भिजवा दिया जायेगा। आपको करना कुछ नहीं है। अखबार भिजवाने और ट्रक से अखबार उतरवा कर आपके घर में रखने की सारी व्यवस्था कंपनी की ओर से की जायेगी। आप तो आराम से घर जायें और घर में अखबार रखवाने के लिये जगह निकाल लें। ऐसा नहीं हो कि आपके घर पर ट्रक पहुंच जाये और आप घर में अखबार रखने की जगह ही ढूंढते रहें क्योंकि इसी ट्रक से आपके किसी अन्य सहयोगी के यहां अखबार भिजवाया जायेगा। आप केवल जगह देख लें, ताकि ट्रक को आपके घर अधिक समय तक न रुकना पड़े। इसके दो दिन बाद ही पुराने अखबारों को एक ट्रक में भरकर मेरे घर पर भिजवा दिया गया और दो कमरे के मेरे मकान में पुराने अखबार ठूंस-ठूंस कर भर दिये गये। कंपनी का इतने से भी मन नहीं भरा।''
''यह तो वाकई बहुत ज्यादती है। लेकिन इसका विरोध क्यों नहीं किया?'' मैंने पूछा।
''मैंने इस बारे में कंपनी के मालिक से बात करनी चाही, उनसे बात नहीं हुयी। कंपनी के सीईओ को फोन करके इस बात पर आपत्ति जतायी और इस मामले को कोर्ट में ले जाने की धमकी दी। लेकिन इसके दो दिन के बाद कंपनी ने रजिस्टर्ड पोस्ट से पांच हजार रुपये का ट्रक का बिल भेज दिया।'' उनकी आवाज में हताशा के भाव थे।
''लेकिन इतने अखबार का आप करेंगे क्या? फिर अगर घर में अखबार ही भरा होगा तो आप और आपके परिवार के लोग रहेंगे कहां?'' मैंने पूछा।
''फिलहाल तो हम लोग अपने पड़ोस के घर में रह रहे हैं। वैसे अब तो काफी अखबार हट चुका है। हमने कई क्विंटल अखबार तो कबाड़ी वालों को पांच-पांच रूपये किलो के हिसाब से बेच दिया। कई क्विंटल अखबार संब्जी मंडी में निकल गया। इसके अलावा हमने पिछले कुछ दिनों से खाना भी अखबार जलाकर ही बनाना शुरू कर दिया है। मेरा तो लोगों से यही कहना है कि हमारा यह अखबार देखने और जलाने के लिये बेहतरीन है। इन दोनों कामों के लिये दुनिया भर में इससे बेहतर अखबार नहीं होगा।'' उन्होंने बताया।
''मैं कुछ समझा नहीं। अखबार पढ़ने के लिये होते हैं, देखने और जलाने के लिये नहीं।'' मैं आश्चर्य में पड़ गया।
''आप किस दुनिया में हैं। अखबार पढ़ने के लिये होते थे, ऐसा वर्षों पहले माना और कहा जाता था।'' वे अतीत की ओर लौटते हुए बोलने लगे, ''कहानी उस समय की है जब देश में श्रम का मूल्य हुआ करता था, बाजार नाम की चीज सूखी नदी की तरह रेंगा करती थी। सरोकार और मूल्य जैसे शब्द हर मुंह से सुनाई पड़ जाते थे। लेखन में मानवीय संवेदना और मनुष्यता एजेंडे पर होता था। उन दिनों अखबारों को गंभीरता के साथ पढ़ा जाता था।'' तभी नए ग्राहक की आवाज ने उन्हें वापस वर्तमान में ला पटका।
उन्होंने अपना काम जारी रखते हुए बोलना भी जारी रखा, ''जनाब, अब अखबार पढ़ने की चीज नहीं होती, देखने की चीज होती है। अब अखबारों के पाठक नहीं, दर्शक होते हैं। अब अखबारों में हीरोइनों और मॉडलों की नंगी-अधनंगी तस्वीरें और जांघिया-बनियान, कंडोम, क्रीम-लिपिस्टिक और ब्रेस्ट इनहैंसमेंट पिल्स एवं सर्जरी आदि के उत्तेजक विज्ञापन छपने के बाद जो थोड़ी जगह बच जाती है उसमें चमचे पत्रकारों की खबरें और परिचितों-रिश्तेदारों के लेख छाप दिये जाते हैं। अगर खबरें जानने के लिये कोई व्यक्ति अखबार पढ़ रहा है तो वह पैसा, समय और अपना दिमाग तीनों बर्बाद कर रहा है। मेरा तो मानना है कि मंदी के नाम पर अखबारों से इतने बड़े पैमाने पर पत्रकारों को निकाले जाने का कारण मंदी या अखबारों के मुनाफे में कमी आना नहीं है बल्कि इसका कारण यह है कि अब अखबारों में रिपोर्टरों और उप-संपादकों की जरूरत ही नहीं है। कुछ दिनों में अखबारों में केवल पेज डिजाइनर और फोटोग्राफर ही रह जायेंगे।''
अखबारों में विकसित हुये इस नये ट्रेंड से बेखबर होने पर मुझे अपने आप पर कोफ्त हुई और थोड़ी शर्मिंदगी भी महसूस हुई। अखबारों में इतना परिवर्तन आ गया और मैंने कभी महसूस नहीं किया। मुझे सोच में पड़ा देखकर पत्रकार महोदय ने कहा, ''अब चिंता करने की जरूरत नहीं है। अखबारों में आए इस परिवर्तन के बाद अब यह अखबार सभी के लिये बहुत उपयोगी बन गये हैं। पत्रकारों के साथ-साथ अखबार भी मल्टी-टास्किंग के वर्तमान मैनेजमेंट फंडे पर खरे उतर रहे हैं। हमारे इस अखबार में छपी तस्वीरों में इतनी उर्जा एवं उत्तेजना भरी होती हैं कि जब इन अखबारों का इस्तेमाल खाना पकाने के लिए करते हैं तो इन तस्वीरों को छूकर आग की लपटें भी पागल हो उठती हैं। मैंने यह खास तौर पर गौर किया है कि जब आग की लपटें इन तस्वीरों के उपर से गुजरती है तो तेजी से भभक उठती हैं, लेकिन जब ये लपटें अखबार के संपादकीय पेज को स्पर्श करने को होती हैं तो वहां से मुंह मोड़ कर गुजर जाती हैं, ठीक उसी तरह से जैसे अखबार के दर्शक इन लेखों को देखे बगैर ही आगे निकल जाते हैं।''
पत्रकार महोदय के मुंह से अखबार की इतनी विशेषताएं सुनकर मैं अनायास बोल उठा, ''भाई, मुझे तो पांच किलो आलू तौल दीजिये, लेकिन मुझे दस किलो अखबार चाहिये। इसके लिये आप अलग से जो भी पैसे चाहें, लगा लें।'' यह कहते हुये मैं आलू के साथ लेने वालों की लाइन में लग गया, जो तेजी से लंबी होती जा रही थी।
(अगले भाग में पढ़िए एक साप्ताहिक पत्रिका से निकाले गए पत्रकार की दास्तान, जो मंडी में टमाटर बेच रहे थे।)
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इस कहानी के लेखक विनोद विप्लव संपर्क करने के लिए 09868793203 का सहारा ले सकते हैं।
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1 comment:

Anonymous said...

मंदी के नाम पर निकाले जा रहे पत्रकारों के बहाने आपने मीडिया के भीतर की गडबडियों और अंदर खाने में क्‍या कुछ चल रहा है इसे आपने अच्‍छी तरह बयान किया है। संभवत पहली बार किसी ने मीडिया के भीतरखाने और मीडिया के खोख्‍ालेपन को उजागर किया है।
सर्वेश, दिल्‍ली