यह चुनाव है या दंगों हमलों का आगाज?-

- डा. बनवारी लाल शर्मा

लखनऊ से प्रकाशित होने वाले एक हिन्दी के अखबार के पहले पृष्ठ पर सबसे ऊपर फोटो छपा है जिसके नीचे लिखा है,’’ तीसरे चरण के मतदान से पहले लखनऊ के गोमती नगर इलाके में मंगलवार को स्थानीय पुलिस कर्मियों के साथ लैग मार्च करते सीमा सुरक्षा बल के जवान। माथा ठनका,लखनऊ में कभी-कभी शिया-सुन्नियों के बीच तकरार के समय शान्ति का माहौल बनाने के लिए सीमा सुरक्षा बलों का लैग मार्च का होना समझ में आता है। छत्तीसगढ़, झारखण्ड में माओवादी चुनाव बहिष्कार का फरमान जारी किये हुए हैं, वहाँ के मतदाताओं में भरोसा पैदा करने के लिए सुरक्षा बलों का लैग मार्च हो तो कुछ समझ में आता है। लेकिन लखनऊ में चुनाव के वक्त लैग मार्च और वह भी गोमती नगर में जहाँ पुराने- नये राजनेताओं, अफसरशाहों और बड़े पैसेवालों के महल खड़े हैं।बात केवल लखनऊ की नहीं है, पूरे देश में ऐसा माहौल है कि जहाँ-तहाँ पुलिस और फौज के लैग मार्च कराये जा रहे हैं। दरअसल पूरा चुनाव पुलिस-फौज की दम पर हो रहा है। देश में पूरा चुनाव हते-10 दिन में पूरा हो जाना चाहिए था मगर उसके लिए दो महीने लग रहे हैं, वह इसलिए कि एक साथ मतदान कराने के लिए इतना पुलिस बल नहीं है। जहाँ मतदान होता है, उस इलाके का नजारा छावनी जैसा लगता है। मतदान के दिन एक शहर को देखने का मौका मिला, लगता था, कर्यु लगा है पूरे शहर में, स्टेशन पर यात्री परेशान है क्योंकि सारे रिक्शेवाले भाग गये या भगा दिये गये।क्या कारण है इस बदले माहौल का? येां तो आत्म प्रशंसा करते अघाते नहीं कि हमारे देश में दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, कहते हैं पड़ोसी देशों को पाकिस्तान को देखो! पर इस लोकतंत्र के मुखौटे के पीछे असलियत यह है कि यहाॅ लोकतांत्रिक प्रक्रिया लचर हो गयी है। तीन बातें एकदम साफ जाहिर हो रही हैं-पहली अपराधियों, बाहुबलियों और माफियाओं का दबदबा हरदल में बढ़ गया हैं। दर्जनों उम्मीदवार कई-कई अपराधों में जेल के सीकंचों के अन्दर हैं पर चुनाव लड़ रहे हैं। उन्हें चुनाव लड़ने से रोका नहीं जाता, सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग को आदेश दिया था ऐसे अपराधियों का नमांकन रद्द करने का। पर सभी राजनैतिक दलों ने एकमत होकर इसे रोक दिया, कहा, जब तक सजा हो न जाय, तब तक कोई व्यक्ति अपराधी नहीं है भले ही वह जेल में पड़ा हो। रोकने की बात तो दूर, अपराधी तत्वों को अपने दल में लेने की जैसे होड़ मची रहती है दलों में। दूसरी बात यह है कि हर दल में चुनाव लड़ने वाले ज्यादतर उम्मीदवार करोड़पति हैं, समाजसेवी, निष्ठावान, पर सामान्य स्थिति वाले के लिए चुनाव पहुँच के बाहर हो गया है। तीसरी बात , एक आध अपवाद को छोड़कर, अधिकांश दलों ने सार्वजनिक हितों के मुद्दे नहीं उठाये हैं चुनाव प्रचार में जाति, धर्म अथवा अन्य किसी संकीर्ण बात को लेकर लोगों को अपनी-अपनी ओर राजनैतिक दल खींच रहे हैं। साथ ही, चुनाव प्रचार में भीड़ जुटाने के लिए सिनेमा के एक्टरों और सिने तारिकाओं, क्रिकेट के खिलाड़ियों को टिकट दिया जाता है या उनसे प्रचार कराया जा रहा है। चैथी बात यह है कि राष्ट्रीय मुद्दों के अभाव में चुनाव प्रचार अपने विरोधियों पर कीचड़ उछालने के निम्नतम स्तर पर उतर आया है साथ ही, आपस में मार-पीट, हिंसा आम बात हो गयी है।एक और विशेष लक्षण है इस चुनाव का इसमें राजनैतिक दल विचित्र- विचित्र गठबन्धन कर रहे हैं। उदाहरण के लिए वामपंथी भूमण्डलीकरण आदि का विरोध करते रहे हैं पर चन्द्रबाबू नाइडू और नवीन पटनायक की पार्टियों के साथ तीसरा मोर्चा बना लिये हैं यह जानते हुए कि ये दोनों व्यक्ति भूमण्डलीकरण के घोर समर्थक हैं। अब गठबन्धन इस चुनाव के लिए कम, चुनाव के बाद सत्ता हथियाने के लिए किस-किस के साथ तालमेल बिठायी जा सकती है, यह कवायद तेजी से हो रही है। नतीजा यह है कि चुनाव मुद्दा विहीन और जाति, धर्म अपराध हिंसा और पैसा आधारित बन गया है। इससे आम मतदाता को चुनाव में कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी दे रही है। अब तक हुए मतदान में 40-45 फीसदी से ज्यादा लोगों ने मत नहीं डाले हैं। जगह- जगह पर लोगों ने चुनाव का बहिष्कार किया है क्योंकि चुनाव लड़ने वाले लोगों की समस्या नहीं उठाते।दरअसल मतदाता की उदासीनता का मूल कारण लोकतंत्र के पूरे ढ़ाँचे में है’ वर्तमान लोकतंत्र, केवल भारत में ही नहीं, अमरीका, फ्रांस जैसे देशों में भी बड़ी सम्पति वालों का खेल बन गया है। जैसे अन्य व्यवसायों में मुनाफा कमाने के लिए पूॅजी लगायी जाती है, चुनाव भी वैसा ही एक व्यवसाय बन गया है। बड़े पँूजी घराने, बहुराष्ट्रीय कम्पनियाॅ के दाँव लगे होते हैं। यह बदलना चाहिए , ऐसा ज्यादा तर लोग चाहते हैं, पर बदला कैसे जाय? इसके लिए पूरा ढ़ाँचा बदलने की जरूरत है। लोकतन्त्र प्रतिनिधात्मक नहीं चलेगा, वह भागीदारी वाला (चंतजपगपचंजवतल) लोकतन्त्र होना चाहिए। केवल वोट डालने में ही नहीं, पूरी व्यवस्था के संचालन में लोगों की भागीदारी होनी चाहिए। वह तभी संभव है जब देश के संसाधनों पर लोगों की मालकियत हो और उन संसाधनों का उपयोग कोई हो, इसका निर्णय का अधिकार उनके हाथ में हो। तब जो लोकतंत्र उभरेगा, वह लोकतंत्र लोगों का लोगों द्वारा और लोगों के लिए होगा।
(प्रो। बनवारी लाल शर्मा आजादी बचाओ आन्दोलन के राष्ट्रीय संयोजक हैं)

साभार - पीपुल्स मीडिया नेटवर्क (कारपोरेट उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्षों को आगे बढ़ाने के लिए और भारत में पूर्ण स्वराज की स्थापना के लिए समर्पित वैकल्पिक मीडिया सेवा)

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