दारू-जूए का अड्डा, जो कहलाता है प्रेस क्लब



(ढिबरी चैनल का घोषणा पत्र - भाग - दो) भाग एक से आगे


.........................जैसा कि पहले बताया जा चुका है, टेलीविजन चैनल खोलने के पीछे हमारा मुख्य इरादा तो अपने पूज्य पिता जी को अमर बनाना ही था, लेकिन साथ ही साथ अगर आम के आम, गुठली के दाम की तरह अगर इससे मोटी आमदनी कमाने तथा और तर माल खाने को मिले तो बुराई ही क्या है। दरअसल हमारे पिता जी को और पिताजी की तरह मेरे दादाजी को अमर बनने की बहुत लालसा थी। मेरे पिताजी ने दादाजी को अमर बनाने के लिये मेडिकल कालेज खोलकर अपने समय के हिसाब से सबसे उचित एवं कारगर काम किया था। आज भले ही समय बदल गया है और पांच साल तक झखमार कर पढ़ाई करने वाले डाक्टरों की कोई पूछ नहीं रह गयी है और जो लोग डाक्टर बने हैं वे अब अब अपनी किस्मत को रो रहे हैं। आज भले ही कोई डाक्टर या इंजीनियर नहीं बनना चाहता लेकिन जिस समय हमारे पिताजी ने मेरे दादाजी के नाम पर मेडिकल कालेज खोला था उस समय समाज में डाॅक्टर-इंजीनियरों का बड़ा सम्मान था। जिस लड़के का इंजीनियरिंग या मेडिकल कालेज में प्रवेश मिल जाता था, शहर भर की लड़कियां उसे बड़ी हसरत भरी नजर से देखती थी और उन लड़कियों के मां-बाप उसे अपना दामाद बनाने के सपने पालते थे, भले ही उसने डोनेशन या रिश्वत देकर कालेज में प्रवेश लिया हो। लेकिन अब तो कोई मेडिकल या इंजीनियरिंग में जाना ही नहीं चाहता है तो डोनेशन क्या खाक देगा। जाहिर है समय बदलते ही मेडिकल कालेज का हमारा धंधा और इसलिये दादाजी का नाम भी नहीं चल पाया। आज लोगों ने और यहां तक कि दादाजी के नाम पर बने मेडिकल कालेज के से पढ़ाई करके निकलने वाले लड़कों ने भी दादा जी के नाम को भुला दिया या मरीजों एवं उनके रिष्तेदारों ने उनकी समय-समय पर डाक्टर बनने वाले उन लड़कों की इतनी पिटाई की वे दादाजी के कालेज का नाम लेने से तो क्या अपने को डाक्टर कहने से डरने लगे। दरअसल पुराने समय में जिन लड़कांे ने डोनेशन देकर दादीजी के नाम वाले कालेज में प्रवेश लिया था, उनमें से ज्यादातर दूरदर्शी किस्म के लड़कों का उददेष्य मेडिकल कालेज में प्रवेश लेकर लड़कीवालों को फंास कर उनसे दहेज की भारी रकम वसूलना होता था और जब वे अपने उद्देश्य में सफल हो जाते तो मेडिकल की पढ़ाई छोड़कर दहेज में मिली रकम से या तो रेलवे बोर्ड या बिहार कर्मचारी चयन आयोग में कोई अच्छी खासी नौकरी खरीद लेते या फिर पंसारी की दुकान खोल लेते क्योंकि उन्हें पता था कि जब वे पांच साल के बाद मेडिकल की पढ़ाई करके निकलेंगे तो डाक्टरी के धंधे से क्लिनिक का किराया भी नहीं निकाल पायेगा। इस तरह से ऐसे लड़कों ने तो कुछ महीनों में ही अपने कालेज का नाम भुला दिया। मुर्ख किस्म के जो लड़क डाक्टरी की पढ़ाई पूरी करके डाक्टर बन गये उन्हें मरीजों के रिश्तेदारों ने मार-मार कर डाक्टरी के धंधे से हमेशा के लिये छोड़ देने के लिये मजबूर कर दिया। इस तरह वे भी शीघ्र कालेज का और दादाजी का नाम भूल गये। ऐसे में आज दादाजी का नाम लेने वाला कोई बिरला ही बचा होगा। ऐसे में हमने अपने अनुभवों से सीख लेते हुये अपने पिताजी के नाम को अमर करने के लिये कोई मेडिकल या इंजीनियरिंग कालेज खोलने के बजाय टेलीविजन चैनल खोलने का फैसला किया। इसमें एक फायदा यह हुआ कि जहां कालेज खोलने के लिये कुछ पैसों की जरूरत पड़ती है, वहीं टेलीविजन चैनल खोलने के लिये हमें अपने पास से एक धेला भी लगाने की जरूरत नहीं पड़ी। ऐसा कैसे हुआ, बाद में बताउंगा। टेलीविजन चैनल खोलने का एक और कारण था। दरअसल पंसारी की दुकान संभालने वाला हमारा एक लड़का एक पत्रकार की बुरी सोहबत में फंस गया था। उस पत्रकार के जरिये वह और भी पत्रकारों की संगत में आ गया और वह भी उन पत्रकारों के साथ दारू-जूए के किसी अड्डे पर, जिसका नाम वह प्रेस क्लब बताया करता था, बारह-बारह बजे रात तक दारू पीता था और नशे में लोगों को गालियां बकता हुआ, सड़क पर लोटता-पोटता और गिरता-पड़ता घर पहुंचता था। वह पढ़ा-लिखा तो ज्यादा था, लेकिन उसकी जिद कर ली कि वह भी पत्रकार बनेगा। मैंने यह सोचकर उसकी सातवें तक की पढ़ाई करायी थी कि उसे जब दुकान पर ही बैठना है तो उसके लिये यही बहुत होगा कि जोड़-घटाव जान ले। लेकिन उसने जब बताया कि पत्रकार बनने में कितना फायदा है तो मैंने सोचा कि उसे पत्रकार ही बना दिया जाये और जब पत्रकार बनना है तो क्यों नहीं उसे टेलीविजन चैनल का मालिक बना दिया जाये। मेरे उसी लड़के ने अपने कुछ दारूबाज एवं लफंगे पत्रकार दोस्तों को हमसे मिलवाया और सबने मिलकर टेलीविजन चैनल खोलने के जो लाभ बताये उसे सुनकर मेरा दिल बाग-बाग हो गया। उसी दिन मैंने सोच लिया कि पिताजी के नाम को अमर करने और तर माल खाने के लिये इससे अच्छा साधन दुनिया में कुछ और नहीं है। आज जब हमारा चैनल टीआरपी की दौड़ में सबसे आगे है, पैसे की ऐसी बरसात हो रही है कि नगदी के बंडलों को बोरों में पैरों से ढूंढ-ढूंस कर भरना पड़ता है, क्योंकि हाथ के जोर से उन्हें ढूंढना मुष्किल है, ऐसी-ऐसी सुंदर-सुंदर कन्यायें हमारी हर तरह सेवा करने को हाथ जोड़े खड़ी रहती है कि भगवान इन्द्र और कृष्ण को भी हमसे इष्र्या होने लगे, वैसे में लगता है कि मैंने अपने पूर्वजन्म में जरूर ऐसे पुण्य कार्य किये थे कि मुझे ऐसा समझदार पुत्र मिला जिसकी बदौलत इसी लोक में मै स्वर्ग लोक के सुखों को भोग कर रहा हूं।


.......................शष भाग तीन में

ढिबरी चैनल का घोषणापत्र




(नोट - यह व्यंग्य रचना महान व्यंग्कार एवं गुरूवर हरिशंकर परसाई की एक प्रसिद्ध व्यंग्य रचना से प्रभावित है और मुझे लगता है कि अगर परसाई जी आज जीवित तो इस विषय पर जरूर कलम चलाते। इस व्यंग्य का पहला हिस्सा यहां पेश हैं।)



(वैसे ढिबरी चैनल के बारे में विज्ञापन तो अखबारों में छप चुका था, लेकिन ढिबरी न्यूज के ‘‘एम्स एंड आब्जेक्टिव्स् तथा उसके गठन के मेमोरेंडम बही खातों के बीच दबे रह गये थे। यह लेखक जब किसी काम से चैनल के मुख्यालय में गया तो सेठजी के आसान के पास की एक पुरानी बही में यह नत्थी किया हुआ मिला जिसे हम यहां घोषणापत्र के नाम से प्रस्तुत कर रहे हैं। वैसे सबसे पहले इसे छापा जाना चाहिये था, लेकिन समय पर यह उपलब्ध नहीं होने के कारण इसे अब सुधी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है - लेखक)



।। श्री लक्ष्मीजी सदा सहाय ।।



हम बत्तीलाल ढिबरीलाल एंड सन्स के वर्तमान मालिक अपनी प्रसिद्ध दुकान की नयी शाखा खोल रहे हैं।इस शाखा का नाम होगा ढिबरी न्यूज चैनल। जैसा कि विश्व विदित है, ढिबरीलाल हमारे पुज्यपिता जी थे जो इस नश्वर संसार में अब नहीं है और इस कारण इस संसार में हमारे फर्म के अलावा सब कुछ निस्सार है। हमारे परिवार में व्यवसाय को हमारे दादा बत्तीलाल ने शुरू किया था लेकिन इस व्यवासाय को हमारे परमपूज्य पिताजी ने एक उंचाई दी और इस व्यवसाय को दुनिया भर में फैलाया इसलिये हमने अपने पिताजी के नाम को अमर करने के लिये अपनी दुकान की नयी शाखा के रूप में टेलीविजन चैनल शुरू करने का फैसला किया। हमारी तरह हमारे पिताजी ने भी अपने पिताजी अर्थात मेरे दादाजी का नाम अमर करने के लिये बत्तीलाल मेडिकल कालेज खोला था और लाख-लाख रूपये डोनेशन लेकर सैकड़ों लंफगों और अनपढ़ों को डाक्टर बना कर देश की आबादी को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। ऐसे में हम भी अपने परिवार की परम्परा को आगे बढ़ाने के लिये अपने पुज्यपिताजी के नाम पर टेलीविजन चैनल खोल रहे हैं ताकि देश में बुद्धिजीवियों एवं विवेकवादियों की आबादी पर अंकुश लगाया जा सके और देश में अज्ञानता, अविवेक, अंधविश्वास और अष्लीलता जैसी लोकतंत्र हितैषी प्रवृतियों को बढ़ावा दिया जा सके ताकि दंगाइयों, भ्रश्ट अधिकारियों एवं मंत्रियों, एवं पंूजीपतियों को निर्भय और निडर होकर काम करने का सौहार्द्रपूर्ण माहौल मिल सके। उम्मीद है कि मेरे सुपृत्र भी परिवार की इसी पवित्र परम्परा को आगे बढ़ाते हुये मेरे नाम पर कोई प्राइवेट विश्वविद्यालय खोलेंगे, जैसा कि आजकल ‘‘लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर’’ वाले लोग कर रहे हैं और शिक्षा की नाकारी संस्थाओं को विशुद्ध मुनाफा कमाने वाले दुकानों में बदल कर सरकार की नीतियों को साकार करते हुये भावी पीढ़ी के भविष्य को गर्त में गिराने के महान कार्य को अंजाम दे रहे हैं।



आप पूछ सकते हैं कि आज इतने तरह के धंधे तरह के धंधे हैं जिनमें पैसे ही पैसे हैं तो फिर टेलीविजन चैनल क्यों। मेरा कहना यह है कि कमाई के तो कई रास्ते हैं, लेकिन बाकी धंधांे में वह मजा नहीं है जो टेलीविजन चैनलों में है। यह धंधा ‘‘हींग लगे न फिटकरी और रंग चोखा, केवल जनता को देते रहो धोखा ही धोखा’’ - की तरह है। सबसे बड़ी बात है कि इस धंधे को षुरू करने में हालांकि पैसे तो थोड़े खर्चने पड़ते हैं लेकिन दिमाग बिल्कुल नहीं लगाने पड़ते हैं। (असल में दिमाग तो दर्शकों को यह सोचने में लगाने पड़ते हैं कि वे चैनल देख क्यों रहे हैं)। चैनल चलाने के लिये दिमाग नहीं लगाने का फायदा यह है कि आप इस बात पर दिमाग खर्च कर सकते हैं कि कमाये गये भारी काले धन को कैसे सफेद बनाया जाये। सबसे बड़ी बात कि इसमें इतने तरह के माल (सजीव और निर्जीव दोनों तरह के) मिलते हैं कि चाहे इन्हें जितना खाओ और खिलाओ कभी कम नहीं पड़ता। दरअसल टेलीविजन चैनल दोनों तरह के मालों का ऐसा बहता दरिया है कि जब इच्छा हुयी तन-मन की प्यास बुझा ली। खुद भी प्यास बुझाओं और अपने यार दोस्तों की प्यास को भी बुझाओ। हां। तो बात हो रही थी टेलीविजन चैनल शुरू करने के कारणों के बारे में। असल में आज के समय में स्कूल-कालेज, समाज सेवा, अखबार और सत्संग-प्रवचन जैसे जैसे माल कमाने के जो नये क्षेत्र उभरे हैं उनमें टेलीविजन चैनल सबसे चोखा धंधा है। आप पूछ सकते हैं कि आप और आपके बाप दादा जीवन भर अनाज, दूध, तेल, घी आदि में मिलावट करके तिजोरियां भरते रहे तो अब फिर टेलीविजन चैनल खोलने की क्या सूझी। आपका सवाल बहुत अच्छा और विषयानुकुल है। आपके सवाल के जवाब में मैं कहूंगा कि दरअसल टेलीविजन चैनल का यह धधंा हमारे पुश्तैनी धंधे का ही आधुनिक एवं विकसित रूप है। पहले हम अनाज में कंकड मिलाते थे और दूध में यूरिया मिलाते थे और लोगों का स्वास्थ्य खराब करते थे। अब मिलावट के काम को आगे बढ़ाते हुये हम संस्कृति में अश्लीलता, विश्वास में अंधविश्वास और धर्म में अधर्म मिलाकर लोगों के दिमाग को खराब करेंगे। काम तो वही मिलावट का ही हुआ न। चूंकि फर्म एक है, इसलिये हमारा काम भी एक है। मिलावट का हमारा जो खानदानी अनुभव है वह सही अर्थों में अब काम आयेगा। वैसे भी इस मिलावट में खतरे कम है क्योंकि अनाज, दूध और तेल में मिलावट को तो सरकार और जनता पकड़ भी लेती है और कभी-कभी छापे मारे जाने का भी डर भी रहता है, लेकिन टेलीविजन चैनलों के जरिये संस्कृति में कुसंस्कृति ओर लोगों के विवेक में अज्ञानता एवं अंधविश्वास की मिलावट को जनता बिल्कुल पकड़ नहीं पाती और जहां तक सरकार की बात है वह तो इसे बढ़ावा ही देती है। ऐसे में न तो छापे का डर है न जनता के गुस्से का। उल्टे इस तरह की मिलावट करने पर पदमश्री और भारत रत्न मिलने की भी प्रबल संभावना रहती है। अतीत में कई मिलावटियों को सरकार ऐसे पद्म सम्मानों से नवाज भी चुकी है।



.................. जारी .....(शेष अगले भाग में)