ढिबरी चैनल का घोषणापत्र

(नोट - यह व्यंग्य रचना महान व्यंग्कार एवं गुरूवर हरिशंकर परसाई की एक प्रसिद्ध व्यंग्य रचना से प्रभावित है और मुझे लगता है कि अगर परसाई जी आज जीवित तो इस विषय पर जरूर कलम चलाते। इस व्यंग्य का पहला हिस्सा यहां पेश हैं।)

(वैसे ढिबरी चैनल के बारे में विज्ञापन तो अखबारों में छप चुका था, लेकिन ढिबरी न्यूज के ‘‘एम्स एंड आब्जेक्टिव्स् तथा उसके गठन के मेमोरेंडम बही खातों के बीच दबे रह गये थे। यह लेखक जब किसी काम से चैनल के मुख्यालय में गया तो सेठजी के आसान के पास की एक पुरानी बही में यह नत्थी किया हुआ मिला जिसे हम यहां घोषणापत्र के नाम से प्रस्तुत कर रहे हैं। वैसे सबसे पहले इसे छापा जाना चाहिये था, लेकिन समय पर यह उपलब्ध नहीं होने के कारण इसे अब सुधी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है - लेखक)

।। श्री लक्ष्मीजी सदा सहाय ।।


हम बत्तीलाल ढिबरीलाल एंड सन्स के वर्तमान मालिक अपनी प्रसिद्ध दुकान की नयी शाखा खोल रहे हैं।इस शाखा का नाम होगा ढिबरी न्यूज चैनल। जैसा कि विश्व विदित है, ढिबरीलाल हमारे पुज्यपिता जी थे जो इस नश्वर संसार में अब नहीं है और इस कारण इस संसार में हमारे फर्म के अलावा सब कुछ निस्सार है। हमारे परिवार में व्यवसाय को हमारे दादा बत्तीलाल ने शुरू किया था लेकिन इस व्यवासाय को हमारे परमपूज्य पिताजी ने एक उंचाई दी और इस व्यवसाय को दुनिया भर में फैलाया इसलिये हमने अपने पिताजी के नाम को अमर करने के लिये अपनी दुकान की नयी शाखा के रूप में टेलीविजन चैनल शुरू करने का फैसला किया। हमारी तरह हमारे पिताजी ने भी अपने पिताजी अर्थात मेरे दादाजी का नाम अमर करने के लिये बत्तीलाल मेडिकल कालेज खोला था और लाख-लाख रूपये डोनेशन लेकर सैकड़ों लंफगों और अनपढ़ों को डाक्टर बना कर देश की आबादी को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। ऐसे में हम भी अपने परिवार की परम्परा को आगे बढ़ाने के लिये अपने पुज्यपिताजी के नाम पर टेलीविजन चैनल खोल रहे हैं ताकि देश में बुद्धिजीवियों एवं विवेकवादियों की आबादी पर अंकुश लगाया जा सके और देश में अज्ञानता, अविवेक, अंधविश्वास और अष्लीलता जैसी लोकतंत्र हितैषी प्रवृतियों को बढ़ावा दिया जा सके ताकि दंगाइयों, भ्रश्ट अधिकारियों एवं मंत्रियों, एवं पंूजीपतियों को निर्भय और निडर होकर काम करने का सौहार्द्रपूर्ण माहौल मिल सके। उम्मीद है कि मेरे सुपृत्र भी परिवार की इसी पवित्र परम्परा को आगे बढ़ाते हुये मेरे नाम पर कोई प्राइवेट विश्वविद्यालय खोलेंगे, जैसा कि आजकल ‘‘लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर’’ वाले लोग कर रहे हैं और शिक्षा की नाकारी संस्थाओं को विशुद्ध मुनाफा कमाने वाले दुकानों में बदल कर सरकार की नीतियों को साकार करते हुये भावी पीढ़ी के भविष्य को गर्त में गिराने के महान कार्य को अंजाम दे रहे हैं।

आप पूछ सकते हैं कि आज इतने तरह के धंधे तरह के धंधे हैं जिनमें पैसे ही पैसे हैं तो फिर टेलीविजन चैनल क्यों। मेरा कहना यह है कि कमाई के तो कई रास्ते हैं, लेकिन बाकी धंधांे में वह मजा नहीं है जो टेलीविजन चैनलों में है। यह धंधा ‘‘हींग लगे न फिटकरी और रंग चोखा, केवल जनता को देते रहो धोखा ही धोखा’’ - की तरह है। सबसे बड़ी बात है कि इस धंधे को षुरू करने में हालांकि पैसे तो थोड़े खर्चने पड़ते हैं लेकिन दिमाग बिल्कुल नहीं लगाने पड़ते हैं। (असल में दिमाग तो दर्शकों को यह सोचने में लगाने पड़ते हैं कि वे चैनल देख क्यों रहे हैं)। चैनल चलाने के लिये दिमाग नहीं लगाने का फायदा यह है कि आप इस बात पर दिमाग खर्च कर सकते हैं कि कमाये गये भारी काले धन को कैसे सफेद बनाया जाये। सबसे बड़ी बात कि इसमें इतने तरह के माल (सजीव और निर्जीव दोनों तरह के) मिलते हैं कि चाहे इन्हें जितना खाओ और खिलाओ कभी कम नहीं पड़ता। दरअसल टेलीविजन चैनल दोनों तरह के मालों का ऐसा बहता दरिया है कि जब इच्छा हुयी तन-मन की प्यास बुझा ली। खुद भी प्यास बुझाओं और अपने यार दोस्तों की प्यास को भी बुझाओ। हां। तो बात हो रही थी टेलीविजन चैनल शुरू करने के कारणों के बारे में। असल में आज के समय में स्कूल-कालेज, समाज सेवा, अखबार और सत्संग-प्रवचन जैसे जैसे माल कमाने के जो नये क्षेत्र उभरे हैं उनमें टेलीविजन चैनल सबसे चोखा धंधा है। आप पूछ सकते हैं कि आप और आपके बाप दादा जीवन भर अनाज, दूध, तेल, घी आदि में मिलावट करके तिजोरियां भरते रहे तो अब फिर टेलीविजन चैनल खोलने की क्या सूझी। आपका सवाल बहुत अच्छा और विषयानुकुल है। आपके सवाल के जवाब में मैं कहूंगा कि दरअसल टेलीविजन चैनल का यह धधंा हमारे पुश्तैनी धंधे का ही आधुनिक एवं विकसित रूप है। पहले हम अनाज में कंकड मिलाते थे और दूध में यूरिया मिलाते थे और लोगों का स्वास्थ्य खराब करते थे। अब मिलावट के काम को आगे बढ़ाते हुये हम संस्कृति में अश्लीलता, विश्वास में अंधविश्वास और धर्म में अधर्म मिलाकर लोगों के दिमाग को खराब करेंगे। काम तो वही मिलावट का ही हुआ न। चूंकि फर्म एक है, इसलिये हमारा काम भी एक है। मिलावट का हमारा जो खानदानी अनुभव है वह सही अर्थों में अब काम आयेगा। वैसे भी इस मिलावट में खतरे कम है क्योंकि अनाज, दूध और तेल में मिलावट को तो सरकार और जनता पकड़ भी लेती है और कभी-कभी छापे मारे जाने का भी डर भी रहता है, लेकिन टेलीविजन चैनलों के जरिये संस्कृति में कुसंस्कृति ओर लोगों के विवेक में अज्ञानता एवं अंधविश्वास की मिलावट को जनता बिल्कुल पकड़ नहीं पाती और जहां तक सरकार की बात है वह तो इसे बढ़ावा ही देती है। ऐसे में न तो छापे का डर है न जनता के गुस्से का। उल्टे इस तरह की मिलावट करने पर पदमश्री और भारत रत्न मिलने की भी प्रबल संभावना रहती है। अतीत में कई मिलावटियों को सरकार ऐसे पद्म सम्मानों से नवाज भी चुकी है।

(ढिबरी चैनल का घोषणा पत्र - भाग - दो)
जैसा कि पहले बताया जा चुका है, टेलीविजन चैनल खोलने के पीछे हमारा मुख्य इरादा तो अपने पूज्य पिता जी को अमर बनाना ही था, लेकिन साथ ही साथ अगर आम के आम, गुठली के दाम की तरह अगर इससे मोटी आमदनी कमाने तथा और तर माल खाने को मिले तो बुराई ही क्या है। दरअसल हमारे पिता जी को और पिताजी की तरह मेरे दादाजी को अमर बनने की बहुत लालसा थी। मेरे पिताजी ने दादाजी को अमर बनाने के लिये मेडिकल कालेज खोलकर अपने समय के हिसाब से सबसे उचित एवं कारगर काम किया था। आज भले ही समय बदल गया है और पांच साल तक झखमार कर पढ़ाई करने वाले डाक्टरों की कोई पूछ नहीं रह गयी है और जो लोग डाक्टर बने हैं वे अब अब अपनी किस्मत को रो रहे हैं। आज भले ही कोई डाक्टर या इंजीनियर नहीं बनना चाहता लेकिन जिस समय हमारे पिताजी ने मेरे दादाजी के नाम पर मेडिकल कालेज खोला था उस समय समाज में डाॅक्टर-इंजीनियरों का बड़ा सम्मान था। जिस लड़के का इंजीनियरिंग या मेडिकल कालेज में प्रवेश मिल जाता था, शहर भर की लड़कियां उसे बड़ी हसरत भरी नजर से देखती थी और उन लड़कियों के मां-बाप उसे अपना दामाद बनाने के सपने पालते थे, भले ही उसने डोनेशन या रिश्वत देकर कालेज में प्रवेश लिया हो। लेकिन अब तो कोई मेडिकल या इंजीनियरिंग में जाना ही नहीं चाहता है तो डोनेशन क्या खाक देगा। जाहिर है समय बदलते ही मेडिकल कालेज का हमारा धंधा और इसलिये दादाजी का नाम भी नहीं चल पाया। आज लोगों ने और यहां तक कि दादाजी के नाम पर बने मेडिकल कालेज के से पढ़ाई करके निकलने वाले लड़कों ने भी दादा जी के नाम को भुला दिया या मरीजों एवं उनके रिष्तेदारों ने उनकी समय-समय पर डाक्टर बनने वाले उन लड़कों की इतनी पिटाई की वे दादाजी के कालेज का नाम लेने से तो क्या अपने को डाक्टर कहने से डरने लगे। दरअसल पुराने समय में जिन लड़कांे ने डोनेशन देकर दादीजी के नाम वाले कालेज में प्रवेश लिया था, उनमें से ज्यादातर दूरदर्शी किस्म के लड़कों का उददेष्य मेडिकल कालेज में प्रवेश लेकर लड़कीवालों को फंास कर उनसे दहेज की भारी रकम वसूलना होता था और जब वे अपने उद्देश्य में सफल हो जाते तो मेडिकल की पढ़ाई छोड़कर दहेज में मिली रकम से या तो रेलवे बोर्ड या बिहार कर्मचारी चयन आयोग में कोई अच्छी खासी नौकरी खरीद लेते या फिर पंसारी की दुकान खोल लेते क्योंकि उन्हें पता था कि जब वे पांच साल के बाद मेडिकल की पढ़ाई करके निकलेंगे तो डाक्टरी के धंधे से क्लिनिक का किराया भी नहीं निकाल पायेगा। इस तरह से ऐसे लड़कों ने तो कुछ महीनों में ही अपने कालेज का नाम भुला दिया। मुर्ख किस्म के जो लड़क डाक्टरी की पढ़ाई पूरी करके डाक्टर बन गये उन्हें मरीजों के रिश्तेदारों ने मार-मार कर डाक्टरी के धंधे से हमेशा के लिये छोड़ देने के लिये मजबूर कर दिया। इस तरह वे भी शीघ्र कालेज का और दादाजी का नाम भूल गये। ऐसे में आज दादाजी का नाम लेने वाला कोई बिरला ही बचा होगा। ऐसे में हमने अपने अनुभवों से सीख लेते हुये अपने पिताजी के नाम को अमर करने के लिये कोई मेडिकल या इंजीनियरिंग कालेज खोलने के बजाय टेलीविजन चैनल खोलने का फैसला किया। इसमें एक फायदा यह हुआ कि जहां कालेज खोलने के लिये कुछ पैसों की जरूरत पड़ती है, वहीं टेलीविजन चैनल खोलने के लिये हमें अपने पास से एक धेला भी लगाने की जरूरत नहीं पड़ी। ऐसा कैसे हुआ, बाद में बताउंगा। टेलीविजन चैनल खोलने का एक और कारण था। दरअसल पंसारी की दुकान संभालने वाला हमारा एक लड़का एक पत्रकार की बुरी सोहबत में फंस गया था। उस पत्रकार के जरिये वह और भी पत्रकारों की संगत में आ गया और वह भी उन पत्रकारों के साथ दारू-जूए के किसी अड्डे पर, जिसका नाम वह प्रेस क्लब बताया करता था, बारह-बारह बजे रात तक दारू पीता था और नशे में लोगों को गालियां बकता हुआ, सड़क पर लोटता-पोटता और गिरता-पड़ता घर पहुंचता था। वह पढ़ा-लिखा तो ज्यादा था, लेकिन उसकी जिद कर ली कि वह भी पत्रकार बनेगा। मैंने यह सोचकर उसकी सातवें तक की पढ़ाई करायी थी कि उसे जब दुकान पर ही बैठना है तो उसके लिये यही बहुत होगा कि जोड़-घटाव जान ले। लेकिन उसने जब बताया कि पत्रकार बनने में कितना फायदा है तो मैंने सोचा कि उसे पत्रकार ही बना दिया जाये और जब पत्रकार बनना है तो क्यों नहीं उसे टेलीविजन चैनल का मालिक बना दिया जाये। मेरे उसी लड़के ने अपने कुछ दारूबाज एवं लफंगे पत्रकार दोस्तों को हमसे मिलवाया और सबने मिलकर टेलीविजन चैनल खोलने के जो लाभ बताये उसे सुनकर मेरा दिल बाग-बाग हो गया। उसी दिन मैंने सोच लिया कि पिताजी के नाम को अमर करने और तर माल खाने के लिये इससे अच्छा साधन दुनिया में कुछ और नहीं है। आज जब हमारा चैनल टीआरपी की दौड़ में सबसे आगे है, पैसे की ऐसी बरसात हो रही है कि नगदी के बंडलों को बोरों में पैरों से ढूंढ-ढूंस कर भरना पड़ता है, क्योंकि हाथ के जोर से उन्हें ढूंढना मुष्किल है, ऐसी-ऐसी सुंदर-सुंदर कन्यायें हमारी हर तरह सेवा करने को हाथ जोड़े खड़ी रहती है कि भगवान इन्द्र और कृष्ण को भी हमसे इष्र्या होने लगे, वैसे में लगता है कि मैंने अपने पूर्वजन्म में जरूर ऐसे पुण्य कार्य किये थे कि मुझे ऐसा समझदार पुत्र मिला जिसकी बदौलत इसी लोक में मै स्वर्ग लोक के सुखों को भोग कर रहा हूं।

ढिबरी चैनल का घोषणा पत्र - भाग - तीन
अपने फर्म की इस दुधारू शाखा को शुरू करने के लिये, सच कहा जाये तो, हमारी अंठी से एक धेला भी नहीं लगा। हालांकि दुनियावालों को पता है कि हमने इसके लिये करोड़ांे रूपये फूंक डाले। इस झूठ के फैलने से इससे हमारी इज्जत भी बढ़ गयी और हमंे अपने काले धन को सफेद करने में भी मदद मिल गयी।
दरअसल जिस तरह से हाथी के दांत के दो तरह के दांत होते है - खाने के और दिखाने के और, ठीक उसी तरह हमारे और हमारे धंधे के दो चेहरे होते हैं - एक दुनियावालों के लिये और एक अपने और अपने जैसे धंधेबाजों के लिये। इसी परम्परा का पालन करते हुये हमने इस धंधे की नयी शाखा के लिये दो घोषणापत्र बनावाये थे। एक घोषणापत्र तो वह था जिसे हमने अखबारों में छपावाये थे ताकि चैनल में पैसे लगाने वालों को फंसाया जा सके जबकि असली घोषणापत्र को हमने तैयार करके बही खाता के बीच सुरक्षित रखकर गद्दी के नीचे दबाकर रख दिया ताकि जरूरत के समय इस्तेमाल में लाया जा सके।
सबसे पहले हम अखबारों में छप चुके नकली घोषणापत्र और लुभावने प्रस्ताव को लेकर प्रोपर्टी डीलर से बिल्डर बने अपने एक पुराने कारिंदे के पास गये। जब हमने कई साल पहले प्रोपर्टी डीलरी का एक नया धंधा शुरू किया था तब उसे हमने दुकान की साफ-सफाई और देखरेख तथा वहां आने वाले ग्राहकों को पानी पिलाने के लिये रखा था। बाद में वह ग्राहकों को पानी पिलाने में माहिर हो गया। धीरे-धीरे उसने ग्राहकों को फंसा कर हमारे पास लाना शुरू किया और हम उत्साह बढ़ाने के लिये उसे कुछ पैसे भी देने लगे। कुछ समय में ही वह इस काम में इतना होशियार हो गया कि उसने बाद में खुद ही प्रोपर्टी डीलिंग का काम शुरू कर दिया। बाद में वह बिल्डर बन गया और आज उसकी गिनती देश के प्रमुख बिल्डरों में होने लगी है। उसने जब पिताजी के नाम पर टेलीविजन चैनल शुरू करने के प्रस्ताव को पढ़ा तो वह खुशी से उछल पड़ा। वह इस प्रस्ताव से इतना प्रभावित हुआ कि वह उसने खुशी-खुशी दस करोड़ रूपये टेलीविजन चैनल में निवेश करने को तैयार हो गया। उसकी केवल एक शर्त थी कि लड़कियों के चक्कर में पिछले पांच साल से बारहवी की परीक्षा में फेल हो रहे अपने एकलौते बेटे को चैनल में कोई महत्वपूर्ण पद पर नौकरी दी जाये, जिसे हमने सहर्ष स्वीकार कर लिया। बाद में हमने उसके लफंगे बेटे को इनपुट हेड का पद दिया। पैसे की उसे कोई जरूरत थी नहीं, इसलिये हमने उसके लिये कोई सैलरी तय नहीं की।
इसके बाद हम इस प्रस्ताव को लेकर अपने एक लंगोटिया यार के पास गये जो इस समय लाटरी और चिटफंड बिजनेस का टायकून माना जाता था। वह जुएबाजी में माहिर था और उसने जुए से पैसे जमा करके ‘‘वाह-वाह लाॅटरी’’ नाम से एक कंपनी षुरू की। उसका यह धंधा चल निकला और उसके पास पैसे छप्पड़ फाडू तरीके से इस कदर बरस रहे हैं कि उसके यहां नगदियों के बंडलों की औकात रद्दी के बंडलों से ज्यादा नहीं रही है। वहां अगर किसी उपरी रैक से कोई कागज या कोई सामान निकालना होता है तो नगदियों के बंडलों का इस्तेमाल सीढ़ी या मेज के तौर पर किया जाता है। नगदियों के बंडलों को गिनते समय या बंडल खोलते समय जो नोट खराब निकलते हैं या फट जाते हैं उन्हें कूड़े की टोकरियों में डाल दिया जाता है और दिन भर में ऐसी कई टोकरियां भर जाती है। बाद में फटे नोटों को कूड़े के ढेर में मिला कर जला दिया जाता है। वह मेरे पिताजी का मुरीद था और उनका बहुत सम्मान करता था, क्योंकि उन्होंने ही उसे लाॅटरी का ध्ंाधा शुरू करने के लिये प्रेरित किया था। जब उसने सुना कि हम पिताजी के नाम को अमर करने के लिये टेलीविजन चैनल षुरू कर रहे हैं तो उसने उसी समय नगदी नोटों के बंडलों से भरा एक ट्रक हमारे गोदाम में भिजवा दिया। जब हमने कहा कि अभी इनकी क्या जरूरत है तो उसने कहा कि ‘यह तो उसकी तरफ से पिताजी की महान स्मृति को विनम्र भेंट है। आगे जब भी पैसे की जरूरत हो केवल फोन कर देने की जरूरत भर है। वैसे भी उसके लिये उसके खुद के गोदामों में नगदी के बंडलों को असुरक्षित है, क्योंकि कभी भी सीबीआई वालों का छापा पड़ सकता है जबकि टेलीविजन चैनल के दफ्तर में नगदी के बंडलों को रखने में इस तरह का कोई खतरा नहीं है। वह चाहता है कि उसके यहां के गोदाम में जो नोटों के बंडल भरे पड़े हैं, उन्हें ट्रकों में भर कर ढिबरी न्यूज चैनल के आफिस में भिजवा देगा ताकि उन्हें वहां चैनल के दफ्तरों के दो-चार कमरों में इन नोटों को रखकर बंद कर दिया जाये।’ हमने अपने दोस्त की यह इच्छा मान ली।
उस दोस्त की एक और इच्छा थी और उसे भी हमने उसके अहसानों को देखते हुये सिरोधार्य कर लिया। असल में उसकी पत्नी को पूजा-पाठ एवं धर्म-कर्म में खूब आस्था थी। वह दिन भर बैठ कर धार्मिक चैनलों पर बाबाओं के प्रवचन सुनती रहती थी। प्रवचन सुनते-सुनते उन्हें भी आत्मा, परमात्मा, परलोक, माया-मोह, भूत-प्रेत, पुनर्जन्म आदि के बारे में काफी ज्ञान हो गया था वह मेरे दोस्त चाहता था कि उसकी पत्नी को ढिबरी चैनल पर सुबह और शाम एक-एक घंटे का कोई विशेष कार्यक्रम पेश करने को दिया जाये अथवा उन्हें किसी विषय पर प्रवचन देने का विशेष कार्यक्रम दिया जाये। इससे पत्नी खुश और व्यस्त रहेगी और अपने मनचले पति पर हमेषा नजर रखने वाली पत्नी का ध्यान कुछ समय के लिये पति और उसके रंगारंग कार्यक्रमों से हट जायेगा ताकि उसके पति को अपनी शाम को रंगीन करने के सुअवसर मिल सके।
हमने मिलावटी दारू, दूध, दवाइयों आदि के कारोबारों में लगे अन्य व्यवसायियों से भी संपर्क किया और इन सभी ने हमें दिल खोल कर पैसे दिये। दिल्ली, मुबंई और बेंगलूर जैसे कई षहरों में कालगर्ल सप्लाई करने का कारोबार करने वाले एक अरबपति कारोबारी ने चैनल के लिये बीस करोड़ रूपये का दान किया। इसके अलावा उसने हर माह चैनल चलाने के खर्च के तौर पर पांच करोड़ रूपये देने का वायदा किया। उसने अपनी तरफ से एक छोटी इच्छा यह जतायी कि उसे हर दिन चैनल में एंकरिंग करने वाली लड़कियों में से एक लड़की को हर रात उसके यहां भेजा जाये। हमने उसे एक नहीं पांच लड़कियों को भेजने का वायदा किया ताकि वह अपने उन अरब पति ग्राहकों की इच्छाओं का भी सम्मान कर सके जो मीडिया में काम करने वाली सुंदर बालाओं के साथ रात गुजारने की हसरत रखते हैं।
इस तरह हमारे पास जब सौ करोड़ से अधिक रूपये जमा हो गये तब हम चैनल के इस प्रस्ताव को लेकर शिक्षा मंत्री के पास गये। शिक्षा मंत्री के पिता हमारे पिताजी की दारू की गुमटी पर दारू बेचने का काम करते थे। पिछले चुनाव में भी हमने अपने जाति के सारे वोट उन्हें दिलाये थे। इसलिये शिक्षा मंत्री को हमसे खास लगाव था। उन्होंने चैनल खोलने का हमारा प्रस्ताव देखा तो हमसे लिपट कर हमारे पिताजी की याद में रोने लगे। वह कहने लगे, ‘‘मैं तो आपके पिताजी के एहसानों तले इस कदर दबा हूं कि उनकी याद मै खुद पहल करके सरकार की तरफ से उनके नाम पर एक विश्वविद्यालय खोलने वाला था। अब अगर आप टेलीविजन चैनल खोल रहे हैं तो मैं आपसे कहूंगा कि आप टेलीविजन चैनल के साथ-साथ एक मीडिया एक कालेज भी खोल लें जिसका नाम ‘‘राष्ट्रीय ढिबरी मीडिया इंस्टीच्यूट एंड रिसर्च सेंटर’’ रखा जा सकता है। बाद में मैं इस कालेज को अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा दिला दूंगा। इससे पिताजी का नाम न केवल भारत में बल्कि दुनिया भर में रौषन हो जायेगा। इस कालेज के लिये मैं सरकार की तरफ से 100 एकड़ की जमीन एक रूपये प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से दिलवा दूंगा। साथ ही कालेज के भवन के निर्माण पर आने वाले खर्च का 50 प्रतिशत सरकार की तरफ से दिलवा दूंगा। आप इसी कालेज से अपना चैनल भी चलाइये। आपको करना केवल यह होगा कि इस कालेज में गरीब और एस टी-एस सी के 25 प्रतिशत बच्चों को निःशुल्क प्रशिक्षण देने के नाम पर हमारे जैसे मंत्रियों, अधिकारियों एवं नेताओं और उनके रिश्तेदारों के बच्चे-बच्चियों का दाखिला कर लिजिये जबकि बाकी के बच्चों से फीस के तौर पर ढाई-तीन लाख रूपये सालाना वसुलिये। ’’
शिक्षा मंत्री ने जो गुर बताये उसे सुनकर मेरी इच्छा हुयी कि मैं उनके पैर पर गिर पड़ू, हालांकि मुझसे वे उम्र में छोटे हैं, लेकिन उन्होंने क्या बुद्धि पायी है। वैसे ही वह इतनी कम उम्र में शिक्षा मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद पर आसीन नहीं हो गये। कितने तेज दिमाग के हैं। अब उनकी सफलता का राज समझ आया। आज पता चला कि ऐसे ही मंत्रियों की तीक्ष्ण बुद्धि की बदौलत ही हमारे देष ने इतनी अधिक प्रगति की है। शिक्षा मंत्री जो मंत्र सिखाया उसके आधार पर मैंने हिसाब लगाकर देखा कि आज जिस तरह से चैनलों में काम करने के लिये लड़के-लड़कियां उतावले हो रहे हैं, उसे देखते हुये पिताजी के नाम पर बनने वाले कालेज में प्रवेश लेने वालों की लाइन लग जायेगी, क्योंकि इतने हमारे कालेज और चैनल के साथ एक से एक बड़े नाम जुड़े होंगे। सभी बच्चों को सब्जबाग दिखाया जायेगा कि कोर्स पूरा होते ही उन्हें एंकर अथवा रिपोर्टर बना दिया जायेगा। अगर हर बच्चे से तीन-तीन लाख रूपये लिये जायें और पांच सौ बच्चों बच्चों को प्रवेश दिया जाये तो हर साल 15 करोड़ रूपये तो इसी तरह जमा हो जायेंगे। इस तरह एक मीडियाकालेज से ही कुछ सालों में अरबों की कमाई हो जायेगी। साथ ही साथ कैमरे आदि ढोने, सर्दी-गरमी में दौड़-धूप करने, कुर्सी-मेज और गाड़ियों की साफ-सफाई करने जैसे कामों के लिये मुफ्त में ढेर सारे लडकेे तथा चैनलों में पैसे लगाने वाले तथा अलग-अलग तरीके से मदद करने वालों की मचलती हुयी तबीयत को षांत करने के लिये मुफ्त में कमसीन लड़कियां मिल जायेंगी। कालेज में दाखिला लेने वालों में से किसी को नौकरी तो देनी नहीं है, केवल प्रलोभन ही देने हैं, क्योंकि जब पत्रकारिता स्कूल-कालेज चलाने वाले अन्य चैनलों और अखबारों के मालिक जब उनके कालेजों में पढ़ने वाले लड़के-लड़कियों को कोर्स खत्म होते ही लात मार कर निकाल देने की पावन परम्परा की स्थापना की है तो हम क्यों इस परम्परा का उल्लंघन करने का पाप लें।

ढिबरी चैनल का घोषणा पत्र- भाग 4
शिक्षा मंत्री के सदवचनों एवं सुझावों के बाद हम उत्साह से भर गये और हमें ढिबरी चैनल परियोजना का भविष्य अत्यंत उज्ज्‍वल नजर आने लगा। इस भविष्य को और अधिक चमकदार बनाने के लिये हम देश की एक प्रमुख पीआर कंपनी की मालकिन के पास गये, जिसका नाम वैसे तो कुछ और था लेकिन हम अपने लंगोटिया यारों की निजी बातचीत में हम उसका जिक्र रंडिया के नाम से ही करते थे, क्योंकि उसका काम इसी तरह का था। जब वह हमारे संपर्क में थी, तब वह अपने को रंडिया कहे जाने पर कोई शिकायत नहीं करती थी, बल्कि उसे इस नाम से पुकारे जाने पर खुशी होने लगी और बाद में उसने अपना नाम भी यही रख लिया। देखने में वह इतनी सुंदर थी कि उस पर किसी का भी दिल आ सकता था - चाहे वह कितना ही संत हो।

वह दिन के समय देश के राजनीतिक माहौल को गर्म करती थी और रात में किसी अरबपति उद्योगपति अथवा घोटालेबाज मंत्री के बिस्तर को। उसने अपनी शारीरिक एवं मौखिक क्षमता की बदौलत कई संपादकों एवं वरिष्‍ठ पदों पर बैठे पत्रकारों के लिये आदर्श बन गयी थी। रंडिया जिस पत्रकार से बात कर लेती वह अपने को धन्य समझता। जो लोग टेलीफोन पर हुयी बातचीत को रेकार्ड करके सीडी बना कर अपने मालिक को पेश कर देते उसकी उसकी सैलरी में लाखों रूपये की हाइक हो जाती, उसकी पदोन्न्ति हो जाती और उसकी नौकरी अंगद के पांव की तरह इस तरह पक्की हो जाती जिसे पूरा देश मिलकर भी हिला नहीं सकता था।

एक समय था जब वह मुझ पर भी मेहरबान थी, लेकिन आज तो उसकी हैसियत इतनी उंची हो गयी कि वह मंत्री और सरकार बनाने-बिगाड़ने का खेल करती थी। उससे मिलने का समय मिलना, किसी देवी से मिलने से भी अधिक कीमती था। महीनों तक सैकड़ों बार फोन करने के बाद जब उसने मुलाकात का समय दे दिया तब मैंने समझ लिया कि हमारी दुकान का चलना तय है। असल में जब उसने विदेश में अपने पति को छोड़कर भारत आकर व्यवसायियों, पूंजीपतियों, उद्योगपतियों, मंत्रियों और पत्रकारों से संपर्क बनाने का अपना पीआर का नया व्यवसाय शुरू किया था, तब मैंने ही उसे पहला काम दिया था। धीरे-धीरे जब उसने अपनी शारीरिक प्रतिभा का परिचय देकर मंत्रियों एवं बड़ी-बड़ी कंपनियों के मालिकों से संपर्क बढ़ाना शुरू किया और आखिरकार उसने देश के सबसे बड़े उद्योगपति से काम पाने में सफलता हासिल कर ली। उसने उस उद्योगपति की जरूरतों और इच्छाओं को इतने बेहतर तरीके से पूरा किया कि उन्हें कुंवारे रहने का अपना फैसला सही लगने लगा।

जब मैं उससे मिलने पहुंचा तब उसकी भव्यता को देखकर दंग रह गया कि एक समय दो कौड़ी की महिला आज देश की सिरमौर बन गयी। आलीशान बंगला, विदेशी कारों का काफिला, दर्जनों नौकर, हर कदम पर सुरक्षा गार्ड - ऐसा लगा कि मैं अमरीका के राष्‍ट्रपति से मिलने जा रहा हूं। उसकी हैसियत से तुलना करने पर मैं बिल्कुल डिप्रेशन में चला गया, एक सेकेंड के लिये तो आंखों के सामने अंधेरा छा गया। मुझे लगा कि टेलीविजन चैनल खोलने के बजाय पीआर कंपनी ही खोलना ज्यादा अच्छा रहता। जब मैं रंडिया के सामने पहुंचा तो साक्षात देवी लग रही थी। मैंने सोचा कि अगर उसका आशीर्वाद मिल जाये तो मेरा भी जीवन सफल हो जाये, इसलिये मैं उसके चरण छूने के लिये झुका लेकिन उसने मुझे छाती से लगा कर अपना आशीर्वाद देकर मुझे धन्य कर दिया। मुझे नहीं पता था कि वह इतनी दयावान और कृतज्ञ है कि वह अपने उपर वर्षों पूर्व किये गये छोटे से छोटे अहसान की कीमत इतनी उदात्त भावना के साथ चुकाती है। मेरे मन में अचानक उसके प्रति श्रद्धा भाव उमड़ पड़ा।

मैंने हिचकते हुये ढिबरी चैनल खोलने की अपनी योजना बतायी और उससे यथासंभव मदद करने का आग्रह किया। वह मेरी योजना सुनते ही खुशी से उछल पड़ी। उसने कहा, ''मैं तो पहले से ही कोई चैनल शुरू करने का मन बना रही थी और अगर आप चैनल शुरू कर ही रहे हैं तो वह इसी चैनल में पार्टनर बनने को तैयार है। असल में हमारा पीआर का काम और चैनल का काम एक ही तरह का होता है। पीआर के काम में जो माहिर हो गया उसे अच्छा संपादक बनने से कोई नहीं रोक सकता। मेरे यहां कितनी लड़कियां हैं जिन्होंने पीआर में महारत हासिल कर ली है और इनसे चैनल में रिपोर्टिंग या एंकरिंग का काम लिया जा सकता है। ये लड़कियां बड़े से बड़े मंत्री का ऐसा इंटरव्यू कर सकती है कि बड़ा से बड़ा पत्रकार नहीं कर सकता। ये लड़कियां ऐसे-ऐसे सवाल पूछकर बड़े से बड़े नेता और मंत्री की बोलती बंद कर सकती है, क्योंकि ये लड़कियां मंत्रियों के बारे में ऐसी बातें जानती हैं जो उनके अलावा कोई और नहीं जानता है। लेकिन हमें किसी की दुकानदारी बंद करने से क्या लाभ, हमें तो अपना काम निकालना है। लेकिन इतना पक्का है कि ये लड़कियां बेहतर पत्रकार साबित हो सकती हैं और मंत्रियों से वे काम भी करावा सकती हैं जो कोई और नहीं करवा सकता है।''

उसकी बातें सुनकर मैं उसकी काबिलियत पर मकबूल फिदा हुसैन हो गया था और अगर मैं फिल्म बनाने के धंधे में होता तो उसपर जरूर एक फिल्म बना डालता और अगर पेंटर होता तो उसकी दर्जनों पेंटिंग बना कर उनकी दुनिया भर में प्रदर्शनी करता। उसका आइडिया सुनकर मुझे चैनल खोलने का अपना फैसला बिल्कुल सही लगने लगा। उसने बताया कि चूंकि मंत्री और उद्योगपति पीआर की लड़कियों की तुलना में चैनलों में काम करने वाली सुंदर लड़कियों को अधिक भाव देते हैं इसलिये अगर आप किसी मंत्री या उद्योगपति के पास किसी महिला पत्रकार को भेजें तो आपका काम जल्दी हो जाता है। लाखों-करोड़ों के विज्ञापन चुटकी बजाते मिल जाते हैं। आपका कोई काम रूका है, तुरंत हो जाता है। इसी कारण से मैं भी अपनी पीआर कंपनी के लिये चैनल में काम करने वाली एक नामी महिला पत्रकार और कुछ और वरिष्‍ठ पत्रकारों की सेवायें लेती रहती हूं। इन्हीं पत्रकारों की बदौलत मैं बड़े-बड़े उद्योगपतियों का काम कराती रहती हूं। इसमें मुझे इतनी सफलता मिली कि मैंने दलाली का नया बिजनेस शुरू कर दिया जिसे ''लाबिंग'' कहा जाता है। यह बहुत सम्मान का काम है और इसमें न केवल मनमाने पैसे मिलते हैं बल्कि इज्जत भी खूब मिलती है। मैंने मंत्री बनवाने और मंत्री हटवाने का काम भी शुरू किया है।

रंडिया ने काफी देर तक मुझे गुरू मंत्र दिया और उसने यह भी कहा कि अगर मैं उसे चैनल में फिफ्टी-फिफ्टी का पार्टनर बना दूं तो वह मेरे पिताजी के नाम को अमर करने के लिये एक भव्य मंदिर बनायेगी। मुझे इसमें कोई दिक्कत नजर नहीं आयी इसलिये मैंने तत्काल हामी भर दी। रंडिया से मिलकर लौटते समय रास्ते भर मुझे आंखों के सामने स्वर्ग के नजारे दिखते रहे। मुझे अफसोस हो रहा था कि चैनल शुरू करने का विचार पहले क्यों नहीं आया। अगर ऐसा हो गया होता तो इस समय मैं स्वर्ग का सुख भोग रहा होता - खैर देर आये, दुरूस्त आये।