देखने और जलाने के लिये कौन सा अखबार सर्वथा उपयुक्‍त है

विनोद विप्लव
अथश्री मीडिया मंदी कथा : द्वितीयोध्याय :
बेरोजगार हो चुकी और इन दिनों सेब बेच रही टीवी एंकर से सेब खरीद कर आगे बढ़ गया। मंडी की आपाधापी, पैर पर चढ़ आने को उतावले रिक्शों और ठेलों से बचते हुये आगे बढ़ रहा था। उत्पात मचा रहे एक बेलगाम सांड़ से बचने के लिये मैं तेजी से पैर बढ़ा रहा था कि कानों में पीछे से आती आवाज को सुन कर पैरों में आटोमेटिक ब्रेक लग गए, मरखंडे सांड़ की सींग के खौफ को भूलकर। सांड़ लोगों को दौड़ता हुआ आगे निकल गया और मैं इत्मीनान की सांस लेते हुये पीछे मुड़ा। आवाज अब भी आ रही थी - ''ताजा खबर। पांच किलो पहाड़ी आलू के साथ एक किलो अखबार फ्री।'' आखिर आज माजरा क्या है? कहीं सेब के साथ एक्सक्लूसिव स्टोरी की सीडी मिल रही है तो कहीं आलू के साथ अखबार मिल रहे हैं! लगता है मीडिया ने मंडी में डेरा जमा लिया है। जिस तरफ से आवाज आ रही थी, उधर ही मुड़ गया। वहां का दृश्य देखकर भौचक रह गया। यह क्या! एक ठेला आलू से भरा था, ठेले के नीचे आलू की कई बोरियां रखी थीं और ठेले के पीछे अखबार का एक छोटा सा पहाड़ खड़ा था।
वहां ग्राहकों का अच्छा-खासा जमावड़ा था। कई ग्राहक आलू और मुफ्त में अखबार लेने के लिये लाइन लगाये थे। एक लड़का आलू तौल रहा था। दूसरा आलू लेने वाले ग्राहक से पैसे लेकर उन्हें एक-एक किलो अखबार तौल कर दे रहा था। तीन चार ग्राहक तो सब्र तोड़कर वहीं खड़े होकर अखबार में छपी हीरोइनों और मॉडलों की नंगी और अधनंगी तस्वीरों का आनंद ले रहे थे। आलू तौलवा रहे दो लोग कनखियों से जिस्मानी सौंदर्य का विस्फोट करने वाली तस्वीरों को देख रहे थे। अखबार के पहाड़ के पास खड़े एक सज्जन ग्राहकों को आकर्षित करने के लिये चिल्ला रहे थे - ''पांच किलो आलू पर एक किलो अखबार फ्री। देखने और जलाने के लिये सर्वथा उपयुक्त।''
देखेते ही मैं उन्हें पहचान गया। नहीं पहचानने का सवाल ही नहीं था। मैं कई बार उनके साथ सामाजिक विषयों की रिपोर्टिंग के लिये गया था। वह अपनी लेखनी के जरिये समाज में सामाजिक चेतना कायम करने के लिये कृतसंकल्प थे। वह अपने प्रतिबद्ध लेखन के साथ-साथ अपनी ईमानदारी और निष्ठा के लिये जाने जाते थे। वह पत्रकारिता को व्यवसाय अथवा पेशा नहीं बल्कि समाज को बदलने का एक कारगर जरिया समझते थे।
यह सब देखकर मुझे यह समझ में नहीं आया कि उन्हें यह क्या नया करने की सूझी है। हो सकता है कि अखबार में सामाजिक जागरूकता पैदा करने वाला उनका कोई लेख छापा हो और उस लेख को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के लिये उन्होंने यह युक्ति निकाली हो। यह भी हो सकता है कि मंहगाई के इस दौर में घर का खर्च चलाने के लिये अतिरिक्त पैसे का जुगाड़ करने के लिये उन्होंने छुट्टी के दिन आलू बेचने का काम शुरू कर दिया हो। यह सही है कि कुछ अखबारों ने पत्रकारों की सेलरी बढ़ा दी है लेकिन दिल्ली जैसे महानगर में रहने और घर-परिवार चलाने का खर्च जिस तेजी से बढ़ा है उसे देखते हुये पत्रकारों को नौकरी के अलावा अलग से कुछ न कुछ करते रहना पड़ता है। कुछ लोग अनुवाद करते हैं, तो कुछ लोग कहीं पार्ट टाइम काम भी कर लेते हैं और कुछ लोग पत्नी के नाम से या किसी छदम नाम से लिखते रहते हैं। कुछ लोग पीआर एजेंसी से गुपचुप तरीके से जुड़ जाते हैं तो कई अपने पत्नी के नाम से पीआर एजेंसी खोल लेते हैं। कुछ लोग विज्ञापन एजेंसियों में स्क्रिप्ट राइटिंग के जरिए अतिरिक्त कमाई कर लेते हैं। हालांकि इन उपायों से ज्यादा कुछ नहीं मिलता है और इसलिये अगर हमारे वरिष्ठ पत्रकार महोदय ने यह तरीका आजमाना शुरू किया हो तो कोई आश्चर्य नही।
मैंने आगे बढ़कर उनसे नमस्ते करने के बाद पूछ बैठा, ''यह क्या भाई साहब। सामाजिक पत्रकारिता के बाद अब किस तरह की पत्रकारिता करने को सोची है।''
''नौकरी छूटने के बाद खर्च चलाने के लिये कुछ न कुछ तो करना पड़ेगा। ऐसे में आलू बेचने का यह धंधा क्या बुरा है।''
''लेकिन आलू के साथ अखबार फ्री देने का तजुर्बा मुझे कुछ समझ में नहीं आया। फिर इतना अखबार आप कहां से लाते हैं। ऐसा लगता है कि रद्दी अखबारों का ठेका आपने ले रखा है।'' मैंने पूछा।
''दरअसल यह लंबी कहानी है। कभी घर आयें तो विस्तार से बताउंगा और अपनी आंखों से आप खुद देख सकते हैं। लेकिन घर में आपको मैं बिठा नहीं पाउंगा, क्योंकि मेरे घर में बैठने की जगह भी नहीं बची है। पूरे घर में अखबार भरा है। पिछले कुछ दिनों से हम लोग अपने पड़ोस के यहां रह रहे हैं। उन्होंने हम पर दया करके एक कमरा रहने के लिये दे दिया है।''
''लेकिन आपके यहां इतने अखबार आए कहां से?''
उन्होंने अपने दुखड़े को बयान किया, ''बड़ी दर्द भरी कहानी है। नौकरी से निकाले जाने का नोटिस लेने के लिये संपादक ने मुझे जब अपने चैम्बर में बुलाया तो मुझसे कहा कि आपको दो महीने की सैलरी देकर नौकरी से हटाया जा रहा है। लेकिन कंपनी के पास सैलरी देने के पैसे नहीं है। अखबार बिक नहीं रहे हैं। इसका कारण यह है कि आप जैसे पत्रकारों के लेखों एवं रिपोर्टों को अखबारों में छपने के कारण अखबार का सरकुलेशन बिल्कुल डाउन हो गया है। पिछले कई महीनों से वापसी इतनी बढ़ गई है कि गोदमा फुल हो गए हैं। गोदामों में जगह न होने से प्रबंधन ने फैसला किया है कि नौकरी से हटाये जाने वाले कर्मचारियों को जितना भुगतान करना है, उसके बराबर का रद्दी अखबार उन्हें दे दिया जाये। इसलिये आपको जितने का भुगतान किया जाना है, उसके बदले अखबार ट्रक में भरकर आपके घर भिजवा दिया जायेगा। आपको करना कुछ नहीं है। अखबार भिजवाने और ट्रक से अखबार उतरवा कर आपके घर में रखने की सारी व्यवस्था कंपनी की ओर से की जायेगी। आप तो आराम से घर जायें और घर में अखबार रखवाने के लिये जगह निकाल लें। ऐसा नहीं हो कि आपके घर पर ट्रक पहुंच जाये और आप घर में अखबार रखने की जगह ही ढूंढते रहें क्योंकि इसी ट्रक से आपके किसी अन्य सहयोगी के यहां अखबार भिजवाया जायेगा। आप केवल जगह देख लें, ताकि ट्रक को आपके घर अधिक समय तक न रुकना पड़े। इसके दो दिन बाद ही पुराने अखबारों को एक ट्रक में भरकर मेरे घर पर भिजवा दिया गया और दो कमरे के मेरे मकान में पुराने अखबार ठूंस-ठूंस कर भर दिये गये। कंपनी का इतने से भी मन नहीं भरा।''
''यह तो वाकई बहुत ज्यादती है। लेकिन इसका विरोध क्यों नहीं किया?'' मैंने पूछा।
''मैंने इस बारे में कंपनी के मालिक से बात करनी चाही, उनसे बात नहीं हुयी। कंपनी के सीईओ को फोन करके इस बात पर आपत्ति जतायी और इस मामले को कोर्ट में ले जाने की धमकी दी। लेकिन इसके दो दिन के बाद कंपनी ने रजिस्टर्ड पोस्ट से पांच हजार रुपये का ट्रक का बिल भेज दिया।'' उनकी आवाज में हताशा के भाव थे।
''लेकिन इतने अखबार का आप करेंगे क्या? फिर अगर घर में अखबार ही भरा होगा तो आप और आपके परिवार के लोग रहेंगे कहां?'' मैंने पूछा।
''फिलहाल तो हम लोग अपने पड़ोस के घर में रह रहे हैं। वैसे अब तो काफी अखबार हट चुका है। हमने कई क्विंटल अखबार तो कबाड़ी वालों को पांच-पांच रूपये किलो के हिसाब से बेच दिया। कई क्विंटल अखबार संब्जी मंडी में निकल गया। इसके अलावा हमने पिछले कुछ दिनों से खाना भी अखबार जलाकर ही बनाना शुरू कर दिया है। मेरा तो लोगों से यही कहना है कि हमारा यह अखबार देखने और जलाने के लिये बेहतरीन है। इन दोनों कामों के लिये दुनिया भर में इससे बेहतर अखबार नहीं होगा।'' उन्होंने बताया।
''मैं कुछ समझा नहीं। अखबार पढ़ने के लिये होते हैं, देखने और जलाने के लिये नहीं।'' मैं आश्चर्य में पड़ गया।
''आप किस दुनिया में हैं। अखबार पढ़ने के लिये होते थे, ऐसा वर्षों पहले माना और कहा जाता था।'' वे अतीत की ओर लौटते हुए बोलने लगे, ''कहानी उस समय की है जब देश में श्रम का मूल्य हुआ करता था, बाजार नाम की चीज सूखी नदी की तरह रेंगा करती थी। सरोकार और मूल्य जैसे शब्द हर मुंह से सुनाई पड़ जाते थे। लेखन में मानवीय संवेदना और मनुष्यता एजेंडे पर होता था। उन दिनों अखबारों को गंभीरता के साथ पढ़ा जाता था।'' तभी नए ग्राहक की आवाज ने उन्हें वापस वर्तमान में ला पटका।
उन्होंने अपना काम जारी रखते हुए बोलना भी जारी रखा, ''जनाब, अब अखबार पढ़ने की चीज नहीं होती, देखने की चीज होती है। अब अखबारों के पाठक नहीं, दर्शक होते हैं। अब अखबारों में हीरोइनों और मॉडलों की नंगी-अधनंगी तस्वीरें और जांघिया-बनियान, कंडोम, क्रीम-लिपिस्टिक और ब्रेस्ट इनहैंसमेंट पिल्स एवं सर्जरी आदि के उत्तेजक विज्ञापन छपने के बाद जो थोड़ी जगह बच जाती है उसमें चमचे पत्रकारों की खबरें और परिचितों-रिश्तेदारों के लेख छाप दिये जाते हैं। अगर खबरें जानने के लिये कोई व्यक्ति अखबार पढ़ रहा है तो वह पैसा, समय और अपना दिमाग तीनों बर्बाद कर रहा है। मेरा तो मानना है कि मंदी के नाम पर अखबारों से इतने बड़े पैमाने पर पत्रकारों को निकाले जाने का कारण मंदी या अखबारों के मुनाफे में कमी आना नहीं है बल्कि इसका कारण यह है कि अब अखबारों में रिपोर्टरों और उप-संपादकों की जरूरत ही नहीं है। कुछ दिनों में अखबारों में केवल पेज डिजाइनर और फोटोग्राफर ही रह जायेंगे।''
अखबारों में विकसित हुये इस नये ट्रेंड से बेखबर होने पर मुझे अपने आप पर कोफ्त हुई और थोड़ी शर्मिंदगी भी महसूस हुई। अखबारों में इतना परिवर्तन आ गया और मैंने कभी महसूस नहीं किया। मुझे सोच में पड़ा देखकर पत्रकार महोदय ने कहा, ''अब चिंता करने की जरूरत नहीं है। अखबारों में आए इस परिवर्तन के बाद अब यह अखबार सभी के लिये बहुत उपयोगी बन गये हैं। पत्रकारों के साथ-साथ अखबार भी मल्टी-टास्किंग के वर्तमान मैनेजमेंट फंडे पर खरे उतर रहे हैं। हमारे इस अखबार में छपी तस्वीरों में इतनी उर्जा एवं उत्तेजना भरी होती हैं कि जब इन अखबारों का इस्तेमाल खाना पकाने के लिए करते हैं तो इन तस्वीरों को छूकर आग की लपटें भी पागल हो उठती हैं। मैंने यह खास तौर पर गौर किया है कि जब आग की लपटें इन तस्वीरों के उपर से गुजरती है तो तेजी से भभक उठती हैं, लेकिन जब ये लपटें अखबार के संपादकीय पेज को स्पर्श करने को होती हैं तो वहां से मुंह मोड़ कर गुजर जाती हैं, ठीक उसी तरह से जैसे अखबार के दर्शक इन लेखों को देखे बगैर ही आगे निकल जाते हैं।''
पत्रकार महोदय के मुंह से अखबार की इतनी विशेषताएं सुनकर मैं अनायास बोल उठा, ''भाई, मुझे तो पांच किलो आलू तौल दीजिये, लेकिन मुझे दस किलो अखबार चाहिये। इसके लिये आप अलग से जो भी पैसे चाहें, लगा लें।'' यह कहते हुये मैं आलू के साथ लेने वालों की लाइन में लग गया, जो तेजी से लंबी होती जा रही थी।
(अगले भाग में पढ़िए एक साप्ताहिक पत्रिका से निकाले गए पत्रकार की दास्तान, जो मंडी में टमाटर बेच रहे थे।)
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इस कहानी के लेखक विनोद विप्लव संपर्क करने के लिए 09868793203 का सहारा ले सकते हैं।
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यह चुनाव है या दंगों हमलों का आगाज?-

- डा. बनवारी लाल शर्मा

लखनऊ से प्रकाशित होने वाले एक हिन्दी के अखबार के पहले पृष्ठ पर सबसे ऊपर फोटो छपा है जिसके नीचे लिखा है,’’ तीसरे चरण के मतदान से पहले लखनऊ के गोमती नगर इलाके में मंगलवार को स्थानीय पुलिस कर्मियों के साथ लैग मार्च करते सीमा सुरक्षा बल के जवान। माथा ठनका,लखनऊ में कभी-कभी शिया-सुन्नियों के बीच तकरार के समय शान्ति का माहौल बनाने के लिए सीमा सुरक्षा बलों का लैग मार्च का होना समझ में आता है। छत्तीसगढ़, झारखण्ड में माओवादी चुनाव बहिष्कार का फरमान जारी किये हुए हैं, वहाँ के मतदाताओं में भरोसा पैदा करने के लिए सुरक्षा बलों का लैग मार्च हो तो कुछ समझ में आता है। लेकिन लखनऊ में चुनाव के वक्त लैग मार्च और वह भी गोमती नगर में जहाँ पुराने- नये राजनेताओं, अफसरशाहों और बड़े पैसेवालों के महल खड़े हैं।बात केवल लखनऊ की नहीं है, पूरे देश में ऐसा माहौल है कि जहाँ-तहाँ पुलिस और फौज के लैग मार्च कराये जा रहे हैं। दरअसल पूरा चुनाव पुलिस-फौज की दम पर हो रहा है। देश में पूरा चुनाव हते-10 दिन में पूरा हो जाना चाहिए था मगर उसके लिए दो महीने लग रहे हैं, वह इसलिए कि एक साथ मतदान कराने के लिए इतना पुलिस बल नहीं है। जहाँ मतदान होता है, उस इलाके का नजारा छावनी जैसा लगता है। मतदान के दिन एक शहर को देखने का मौका मिला, लगता था, कर्यु लगा है पूरे शहर में, स्टेशन पर यात्री परेशान है क्योंकि सारे रिक्शेवाले भाग गये या भगा दिये गये।क्या कारण है इस बदले माहौल का? येां तो आत्म प्रशंसा करते अघाते नहीं कि हमारे देश में दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, कहते हैं पड़ोसी देशों को पाकिस्तान को देखो! पर इस लोकतंत्र के मुखौटे के पीछे असलियत यह है कि यहाॅ लोकतांत्रिक प्रक्रिया लचर हो गयी है। तीन बातें एकदम साफ जाहिर हो रही हैं-पहली अपराधियों, बाहुबलियों और माफियाओं का दबदबा हरदल में बढ़ गया हैं। दर्जनों उम्मीदवार कई-कई अपराधों में जेल के सीकंचों के अन्दर हैं पर चुनाव लड़ रहे हैं। उन्हें चुनाव लड़ने से रोका नहीं जाता, सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग को आदेश दिया था ऐसे अपराधियों का नमांकन रद्द करने का। पर सभी राजनैतिक दलों ने एकमत होकर इसे रोक दिया, कहा, जब तक सजा हो न जाय, तब तक कोई व्यक्ति अपराधी नहीं है भले ही वह जेल में पड़ा हो। रोकने की बात तो दूर, अपराधी तत्वों को अपने दल में लेने की जैसे होड़ मची रहती है दलों में। दूसरी बात यह है कि हर दल में चुनाव लड़ने वाले ज्यादतर उम्मीदवार करोड़पति हैं, समाजसेवी, निष्ठावान, पर सामान्य स्थिति वाले के लिए चुनाव पहुँच के बाहर हो गया है। तीसरी बात , एक आध अपवाद को छोड़कर, अधिकांश दलों ने सार्वजनिक हितों के मुद्दे नहीं उठाये हैं चुनाव प्रचार में जाति, धर्म अथवा अन्य किसी संकीर्ण बात को लेकर लोगों को अपनी-अपनी ओर राजनैतिक दल खींच रहे हैं। साथ ही, चुनाव प्रचार में भीड़ जुटाने के लिए सिनेमा के एक्टरों और सिने तारिकाओं, क्रिकेट के खिलाड़ियों को टिकट दिया जाता है या उनसे प्रचार कराया जा रहा है। चैथी बात यह है कि राष्ट्रीय मुद्दों के अभाव में चुनाव प्रचार अपने विरोधियों पर कीचड़ उछालने के निम्नतम स्तर पर उतर आया है साथ ही, आपस में मार-पीट, हिंसा आम बात हो गयी है।एक और विशेष लक्षण है इस चुनाव का इसमें राजनैतिक दल विचित्र- विचित्र गठबन्धन कर रहे हैं। उदाहरण के लिए वामपंथी भूमण्डलीकरण आदि का विरोध करते रहे हैं पर चन्द्रबाबू नाइडू और नवीन पटनायक की पार्टियों के साथ तीसरा मोर्चा बना लिये हैं यह जानते हुए कि ये दोनों व्यक्ति भूमण्डलीकरण के घोर समर्थक हैं। अब गठबन्धन इस चुनाव के लिए कम, चुनाव के बाद सत्ता हथियाने के लिए किस-किस के साथ तालमेल बिठायी जा सकती है, यह कवायद तेजी से हो रही है। नतीजा यह है कि चुनाव मुद्दा विहीन और जाति, धर्म अपराध हिंसा और पैसा आधारित बन गया है। इससे आम मतदाता को चुनाव में कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी दे रही है। अब तक हुए मतदान में 40-45 फीसदी से ज्यादा लोगों ने मत नहीं डाले हैं। जगह- जगह पर लोगों ने चुनाव का बहिष्कार किया है क्योंकि चुनाव लड़ने वाले लोगों की समस्या नहीं उठाते।दरअसल मतदाता की उदासीनता का मूल कारण लोकतंत्र के पूरे ढ़ाँचे में है’ वर्तमान लोकतंत्र, केवल भारत में ही नहीं, अमरीका, फ्रांस जैसे देशों में भी बड़ी सम्पति वालों का खेल बन गया है। जैसे अन्य व्यवसायों में मुनाफा कमाने के लिए पूॅजी लगायी जाती है, चुनाव भी वैसा ही एक व्यवसाय बन गया है। बड़े पँूजी घराने, बहुराष्ट्रीय कम्पनियाॅ के दाँव लगे होते हैं। यह बदलना चाहिए , ऐसा ज्यादा तर लोग चाहते हैं, पर बदला कैसे जाय? इसके लिए पूरा ढ़ाँचा बदलने की जरूरत है। लोकतन्त्र प्रतिनिधात्मक नहीं चलेगा, वह भागीदारी वाला (चंतजपगपचंजवतल) लोकतन्त्र होना चाहिए। केवल वोट डालने में ही नहीं, पूरी व्यवस्था के संचालन में लोगों की भागीदारी होनी चाहिए। वह तभी संभव है जब देश के संसाधनों पर लोगों की मालकियत हो और उन संसाधनों का उपयोग कोई हो, इसका निर्णय का अधिकार उनके हाथ में हो। तब जो लोकतंत्र उभरेगा, वह लोकतंत्र लोगों का लोगों द्वारा और लोगों के लिए होगा।
(प्रो। बनवारी लाल शर्मा आजादी बचाओ आन्दोलन के राष्ट्रीय संयोजक हैं)

साभार - पीपुल्स मीडिया नेटवर्क (कारपोरेट उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्षों को आगे बढ़ाने के लिए और भारत में पूर्ण स्वराज की स्थापना के लिए समर्पित वैकल्पिक मीडिया सेवा)

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Dr. Binayak Sen's Unjust Imprisonment

- Dr. Aseem Shrivastava
"How many does it take to metamorphose wickedness into righteousness?
"One man must not kill. If he does it is murder. Two, ten, one hundred men, acting on their own responsibility, must not kill. If they do, it is still murder. But a state or nation may kill as many as they please, and it is no murder. It is just, necessary, commendable and right. Only get people enough to agree to it, and the butchery of myriads of human beings is perfectly innocent.
"But how many does it take? This is the question. Just so with theft, robbery, burglary, and all other crimes. Man-stealing is a great crime in one man, or a very few men only. But a whole nation can commit it, and the act becomes not only innocent, but highly honorable…
"Verily there is magic in numbers! The sovereign multitude can out-legislate the Almighty, at least in their own conceit. But how many does it take? Just enough to make a nation.…Alexander the Great demanded of a pirate, by what right he infested the seas. By the same right, retorted the pirate, that Alexander ravages the world. How far was he from the truth?"
- Adin Ballou, American social reformer and abolitionist (1803-90)
A famous story links two great Americans. When the United States invaded Mexico in 1846, the great naturalist Henry Thoreau, in an act of civil disobedience, refused to pay his taxes as a mark of protest against US actions and was sent to prison for his sin against the state. His close friend and mentor from Harvard, Ralph Waldo Emerson came to see him in jail. Emerson quipped "what are you doing inside?" Thoreau's reply made Emerson blush. "What are you doing outside ?", he replied.
There are times when jails become one of the few places of honour left in the world. Where, after all, would you like to find yourself if robbers and murderers were masquerading before the public as magistrates, judges and hangmen?
India today finds itself crouched in one such corner of shame, wherein those with permeable skin feel out of place before the television sets in their own living rooms. The air is thick with suspicion and accusation as the odour of staggering injustices hangs about us everywhere one goes.
While well-known serial killers gamely garner tickets from national parties for the parliamentary elections and mass-murderers sagely deliver their homilies from our television screens, women and men of integrity and courage must lurk and slide in the dark alleys of our cities or in the forlorn jungles of the land. It is a state of affairs which would have appalled and nauseated decent citizens a generation ago, let alone the heroes and heroines of our freedom movement. The sad truth is that as a civilisation India 's standing in the world has suffered a precipitous fall during the last several years, even as our elated elite's vainglorious aspirations to super-power-hood never miss a morning to announce themselves. Are they out of step, or the rest of us? Time will tell, though it is as much up to us to determine which way the die of destiny will roll.
If Adin Ballou is right, and the multitude is indeed sovereign ("unpunishable", in the words of Edmund Burke), the question for us in India today becomes as to which multitude is the more important one, the one which is suffering the lies and crimes of our leaders, or the numerically far lesser one which prospers on their patronage. It is for us, the citizenry of this beleaguered country, to ensure that we find the courage to determine the morally correct order of importance. Or else, posterity will curse us.
The case of Dr. Binayak Sen
After six decades of freedom from colonial rule, India is still a largely poor country. One of the most severe forms of deprivation suffered by the poor is with respect to health, particularly so in a time when the cost of drugs, tests and healthcare has shot up so dramatically, thanks to the "liberalization" and privatization of the health sector. In such a context, it is worth asking how many Indian paediatricians one can name who have given 30 years of their lives – as a volunteer – in unstinting service to the needy poor in the countryside. At a guess, the actual number is in three figures, or perhaps even in two digits. But the name of Dr. Binayak Sen surely figures prominently among them.
On May 14 it will be two years since Dr. Binayak Sen's arrest by the Chhatisgarh government in Raipur . He was detained for allegedly being in violation of the provisions of the Chhatisgarh Special Public Security Act (2005) and the Unlawful Activities (Prevention) Act (1967).
The chargesheet against Dr.Sen bears resemblance to a page torn from Kafka. It accuses him, among other things, of "sedition", of "waging war against the state", and of "abetting unlawful activities". It claims that Dr.Sen "is certainly a doctor: but is a big zero in terms of actual practice of medicine." Obviously, a gold medal from one of the nation's premier institutions (CMC, Vellore, where many of the leaders who pass draconian laws are treated), and international awards like the 2004 Paul Harrison Award and the 2008 Jonathan Mann Award given by the Global Health Council are not adequate testimony to the exceptional achievements of the accused. The state government of course does not have eyes to see the Shaheed Hospital that Dr.Sen has helped to found in Chhatisgarh. And it seems to have forgotten that the "Mitanin" in the Indira Mitanin Swastha Yojana (Indira Volunteer Health Program) of the Chhatisgarh government is Dr.Sen's contribution, involving the training of an elected woman from each village to serve as a primary healthcare provider.
Dr. Sen's bail application has been summarily dismissed both by the High Court and by the Supreme Court. This despite the fact that not one of the more than 83 witnesses listed for deposition by the prosecution could furnish legally admissible evidence to establish the charges against Dr. Sen in the few hearings that have been held. 16 were dropped by the prosecutors themselves and six were declared ‘hostile'. Jail officials themselves have denied the possibility that Dr. Sen could have been an inadvertent mailman for Narayan Sanyal, said to be a senior (imprisoned) Maoist leader with a heart condition, who Dr. Sen had been treating.
It is clear that Dr. Sen was arrested to check his activities as a crusader for civil liberties in Chhatisgarh. He is the national Vice President of the People's Union for Civil Liberties (PUCL) and had been exposing fasle encounter killings of innocents by the state police over the years. He had also exposed and publicly opposed the formation of Salwa Judum, the vigilante force that the state government has formed over the past several years by dividing the tribal population of the state against itself. With the help of the police, the security forces and Salwa Judum, the government has managed to get hundreds of villages forcibly vacated in order to clear the decks for powerful corporations to do their mining for coal, iron ore and bauxite. The evicted population – numbering in the hundreds of thousands – has been forced to hide in the jungles or get recruited by Maoist rebels and Naxalites. Hundreds, possibly thousands of people have been killed or imprisoned and tortured over the last few years. The remainder lives in conditions of utter squalor by the highways, without access to drinking water, sanitation, food or medicines. These are the people being ‘asked' to pay the price for India 's rapid march to the big league nations of a globalized world. Human cruelty is driven by a heartless, avaricious cowardice.
Apart from treating thousands of people for malaria, diarrhoea, and other diseases Dr. Sen had exposed these crimes of the state government repeatedly over the years. That is the main reason for his unlawful detention. His incarceration is meant to serve as an object lesson to all those who are keen to do their duty as citizens, expose state crimes, and fight for a decent society.
Even the Supreme Court is slowly waking up to the fact that Dr. Sen and others who have exposed the state crime involved in the formation of Salwa Judum are right. In September 2008, a Supreme Court Bench headed by Chief Justice K G Balakrishnan, after going through the National Human Rights Commission report on violence in Chhattisgarh said, "The allegation is that the state is arming private persons. You can deploy as many police personnel or armed forces to tackle the menace. But, if private persons, so armed by the state government, kill other persons, then the state is also liable to be prosecuted as abettor of the murder." Chief Justice Balakrishnan added "It is very painful to read the report. It says there is arson and looting, people are armed and they [Salwa Judum] are committing serious offences. It says people who are subjected to serious problems are still afraid of coming out."
Justice V.R. Krishna Iyer wrote an open letter to the Prime Minister drawing his attention to Dr. Sen's case. He pointed out that "instead of recognising their social contributions, the Indian state, by wrongly branding Dr. Sen and many other human rights defenders like him as ‘terrorists', is making a complete mockery of not just democratic norms and fair governance but its entire anti-terrorist strategy and operations…the sheer injustice involved will only breed cycnicism among ordinary citizens about the credibility and efficacy of Indian democracy itself."
Recently, a letter issued by more than 50 Indian doctors in America, and endorsed by a leading US linguist and dissident Noam Chomsky, wrote to the Chief Justice of India urging him to grant bail to Dr. Sen since he had been ailing with a heart condition for a while. He is on Amnesty International's "Prisoners at Risk". So far, there has been no response from the Indian justice system.
In an open letter to the authorities, Binayak Sen's mother Anusuya Sen wrote last year:
"Should I regard as justice the refusal of bail to one who even as a child was moved by injustice, who having devoted his entire working life selflessly to providing food and health to the poor, who without coveting wealth survived for days on dal, rice and green chillies, who is accustomed to living like the poor, who dedicated his life to serving the people of his country, and who is now arraigned for breach of public security and waging war against the state?"
"Doctorsaab cared about us," Pilko Ram, a Chhatisgarh villager told The Hindustan Times. "And he did not charge any fee. Once, during a food crisis, he distributed grain in the village for two weeks."
The comic farce of justice in India today
Except for the rank of crorepatis, perhaps a crore in number, the legal system in present-day India , intoxicated with wealth and corruption, deploys in practice the following dictum: "you are guilty until proved innocent". You can be picked up for mere whispers if they are seen to expose state crimes.
One Rowlatt Act was enough to precipitate Jallianwalah Bagh nine decades ago, causing an intensification and acceleration of the Indian freedom struggle. A slew of far more invasive legislation in "independent" India – the Chhatisgarh Special Public Security Act (CSPSA), the Armed Forces Special Powers Act (AFSPA) and the Unlawful Activties Prevention Act (UAPA), to name just a few of the many that have been passed in recent years – draws from us but a cowardly, paralysed silence.
As we learn from Binayak Sen's case, under the CSPSA even if someone is judged by a state functionary to have a "tendency to pose an obstacle to the administration of law" s/he can be detained.
In keeping with its campaign promises (and pressure brought to bear on it by over a hundred parliamentarians and the National Human Rights Commission) the UPA government had the widely-abused POTA (Prevention of Terrorism Act) and TADA (Terrorist and Disruptive Activities (Prevention) Act) legislations removed from the statute book when it came to power in 2004. But most of the provisions under these laws were replicated in the legislation that it got introduced and passed after coming to power. Arrests without warrant and home searches without court orders are among them, as also pre-trial detention for up to six months.
According to legal experts the Criminal Procedure Code in India has tougher provisions than many of the anti-terror laws enacted in the US and the UK in recent times.
Binayak Sen is not the only human rights campaigner unjustly detained by the Indian state. Thousands of such people are languishing in the jails of the North-Eastern states, Jharkhand, West Bengal , Orissa, Chhatisgarh, Andhra Pradesh and elsewhere. One of the most remarkable cases is that of Irom Sharmila, a woman from Manipur who has been on a hunger strike since November 2, 2000 demanding the complete repeal of the AFSPA. She was arrested for attempted suicide that year, and has since been force-fed by the authorities to keep her alive.
In the name of fighting terrorism and extremism, the Indian state has gone to absurd and barbaric lengths to maintain its hegemony in a time of growing illegitimacy. If this is what the emerging shape of "the world's largest, fastest-growing democracy" is what would a totalitarian legal system look like?
India 's appalling human rights record in recent years has led the internationally renowned Human Rights Watch to conclude in their report last year:
"Despite an overarching commitment to respecting citizens' freedom to express their views, peacefully protest, and form their own organizations, the Indian government lacks the will and capacity to implement many laws and policies designed to ensure the protection of rights. There is a pattern of denial of justice and impunity, whether it is in cases of human rights violations by security forces, or the failure to protect women, children, and marginalized groups such Dalits, tribal groups, and religious minorities. The failure to properly investigate and prosecute those responsible leads to continuing abuses."
Are we just going to sit and watch?
A universe of human struggle for dignity stands between rule by men and the rule of law. Some of the more glorious chapters in the history of the world since the American and the French revolutions occupy this universe.
Today in India we live – de facto – under the rule of men, rather than under the rule of law. As the moral decline of the Indian justice system keeps pace with the decay of the polity (there are over 25 million pending cases in our courts), are we going to keep sipping beer and munching chips while watching the IPL on Television every night? How long before the government admits that – election or no election – it can never assure the security of sportsmen and women again, the state Pakistan has already reached?
22 Nobel Laureates – including 9 in medicine, 9 in Chemistry, 2 in Physics and 2 in Economics – signed a petition a year ago asking for the unconditional release of Binayak Sen। They expressed "grave concern" that Dr. Sen has been held in prison for the peaceful exercise of fundamental human rights. They point out that this is in contravention of Articles 19 (freedom of opinion and expression) and 22 (freedom of association) of the International Covenant on Civil and Political Rights to which India is a signatory. They also point out that Dr.Sen is charged under two internal security laws that do not conform to international human rights standards.


Aseem Shrivastava is an independent writer. He can be reached at aseem62@yahoo.com
Courtesy
PEOPLE NEWS NETWORK (PNN)
(An alternate media service devoted to promote struggles against corporate colonialism and to establish ‘Poorna Swaraj’ in India)
e-mail- peoplenewsnetwork@gmail.com

एंकर जो बेचती थी खबर, अब बेच रही है सेब

अथश्री मीडिया मंदी कथा : विनोद विप्‍लव 

पहला अध्‍याय

इस बार सब्जी मंडी में नजारा बदला-बदला सा था। जब मैं मंडी पहुंचने वाला ही था कि कानों में दूर से आवाज पड़ने लगी - ब्रेकिंग न्यूज... कश्मीर का ताजा सेब 30 रुपये किलो। पहले तो मुझे लगा कि यह आवाज आसपास के किसी घर में चल रहे किसी टेलीविजन से आ रही होगी। यह आवाज सुनते ही एक बार फिर मुझे खबरिया चैनलों पर कोफ्त होने लगी। इन चैनलों ने ब्रेकिंग न्यूज का क्या हाल कर दिया है। चैनलों के लिये या तो ब्रेकिंग न्यूज का भयानक अकाल पड़ गया है या चैनल वालों का दिमाग पहले से भी ज्यादा खराब हो गया है। किसी भी चीज की हद होती है। मैं ऐसा कुछ सोच ही रहा था कि...

अगले ही पल मुझे लगा कि खबरिया चैनलों पर दिन रात चलने वाले बकवास ब्रेकिंग न्यूज से तो यह ब्रेकिंग न्यूज लाख गुना अच्छा है। कम से ऐसे न्यूज से दर्शकों को दाल-रोटी का भाव तो पता चल जाता है। अगर वाकई ऐसा है तो यह परिवर्तन स्वागतयोग्य है। कम से कम टेलीविजन चैनल आम लोगों के जीवन और उनकी जरूरतों से जुड़ तो रहे हैं। कानों में आवाज अब भी पड़ रही थी, बल्कि आवाज और अधिक साफ होती जा रही थी- ताजा सेब, कश्मीर से लाइव सप्लाई। खबरिया चैनलों में आये इस बदलाव के लिये मैं मन ही मन खुश हो रहा था कि चलो अब बेसिर-पैर और उटपटांग ब्रेकिंग न्यूज सुनने से मुक्ति मिलेगी और अब काम लायक ब्रेकिंग न्यूज देखने-सुनने को मिलेंगे जिनका जीवन में कहीं न कहीं और किसी न किसी हद तक उपयोग हो सकेगा। ऐसा कुछ सोचता हुआ आगे बढ़ रहा था, लेकिन थोड़ा आगे बढ़ने पर जो दृश्य मेरे सामने उपस्थित था उसे देखकर मैं बिल्कुल चौंक गया। संतुलित एवं बेहतरीन खबरें देने का दावा करने वाले एक खबरिया चैनल की नामी एंकर उस सब्जी मंडी में ताजे सेब से भरे एक ठेले के पीछे खड़ी होकर चिल्ला रही थी - कश्मीर का असली सेब 30 रुपये किलो।

आखिर माजरा क्या है। या तो मैं पागल हो गया हूं या चैनल के लोग पागल हो गये। चैनल वालों को यह क्या नया सूझा है। अब सब्जी मंडी को ही स्टूडियो बना लिया है क्या? हे भगवान, आखिर चैनल वालों को हुआ क्या है!! अब तक सेलिब्रिटीज की पार्टियों, डांस क्लबों, जिमखानों, राखी सावंत के ड्राइंगरूम, मल्लिका सेरावत के ड्रेसिंग रूम, किसी और हिरोइन के बेडरूम, फाइव स्टार होटल के बाथरूम और सलमान खान के घर के पिछवाड़े से सीधा प्रसारण करने वाले इन चैनलों के दिन इतने खराब हो गये कि अब लाइव प्रसारण के लिये सब्जी मंडी को चुनना पड़ा। लेकिन मुझे तो यह परिवर्तन भी स्वागत योग्य लगा। कम से कम ये चैनल वाले अब आम लोगों की जिंदगी के बीच तो आये। हालांकि मुझे चैनल वालों की सोच पर पूरा भरोसा था और मुझे विश्वास था कि वे इतनी जल्दी बदलने वाले नहीं हैं। जरूर कुछ गड़बड़ है। मैंने चारों तरफ नजर दौड़ायी लेकिन मुझे आसपास न तो कोई ओवी वैन दिखी और न ही कैमरे और न ही कैमरामैन दिखे।

थोड़ा और पास पहुंचने पर देखा कि कि भारत के सर्वश्रेष्ठ होने का दावा करने वाले उस चैनल की नामी एंकर ब्रेकिंग न्यूज पढ़ नहीं रही थी बल्कि वह ब्रेकिंग न्यूज पढ़ने की अपनी पुरानी स्टाइल के साथ ग्राहकों को अपनी ओर आकर्षित कर रही थी ताकि ज्यादा से ज्यादा ग्राहक उसकी तरफ आएं और ज्यादा से ज्यादा सेब की ब्रिकी हो। लेकिन मुझे यह समझ में नहीं आया कि खबर बेचने वाली एंकर अब सेब क्यों बेच रही है। लेकिन यह सोचकर खुशी हुयी कि बकवास खबरों के बजाय वह अब कुछ अच्छी चीजें तो बेच रही है। उस एंकर से थोड़ा परिचय था, सो उसने मुझे पहचान लिया और वैसे भी मंदी के इस दौर में ग्राहक को कौन नहीं पहचानता है।

मैंने पूछ लिया, ''ये सब माजरा क्या है। आखिर आप सेब क्यों बेच रहीं हैं। कोई रियलिटी शो का रिहर्सल तो नहीं कर रही हैं?''

उस समय वह एंकर एक ग्राहक के लिये दो किलो सेब तौल रही थी। सेब तौलते हुये उसने कहा, ''अब नौकरी कहां रही कि कोई रियलिटी शो करूंगी। अब तो सेब बेच कर ही गुजारा करने को सोचा है। आप भी सेब घर ले जाइये। कश्मीर का सेब है। इस बार मैं लोगों को मूर्ख नहीं बना रही हूं। सच्ची कह रही हूं। यह कश्मीरी सेब ही है। अब तो असली दुनिया में आ गई हूं। खबरिया चैनलों की दुनिया में भले ही झूठ बिकता हो, असली दुनिया में झूठ बेचकर धंधे नहीं कर सकते। कहिये तो पांच किलो आपके थैले में डाल दूं।''

''पहले आपने कितनी झूठी और बकवास चीजें बेची हैं और हमने उन्हें भी खरीदा है और आप अब जब सेब जैसी उपयोगी चीज बेच रही हैं तो हम क्यों नहीं खरीदेंगे।'' मैंने मन ही मन कहा।

कोई जवाब नहीं पाकर एंकर ने कहा, ''अरे व्यंग्यकार साहब। कोई व्यंग्य तो नहीं सोचने लगे। हम चैनल वालों का आपने खूब मजाक उड़ाया है। अब तो मैं चैनल वाली नहीं हूं। अब मुझसे क्या दुश्मनी है। अगर आप पांच किलो सेब खरीदेंगे तो आपको एक एक्सक्लूसिव स्टोरी की यह सीडी मुफ्त दूंगी। मैने बहुत मेहनत करके एक स्टोरी बनायी थी, किसानों की आत्महत्या को लेकर, लेकिन चैनल वालों ने इसे कूड़े में फेक दिया था। इसे मैंने सहेज कर रख लिया कि कभी मौका मिला तो इसे प्रसारित करवाऊंगी। लेकिन अब तो मुझे ही चैनल से बाहर फेंक दिया गया। बताइये तो कितना सेब तौल दूं? अब चलिये, अगर आपको पांच किलो सेब नहीं लेना है तो कम से कम एक किलो तो ले जाइये। अगर एक किलो सेब भी लेंगे तो आपको एक दूसरी स्टोरी की सीडी मुफ्त में दूंगी। आप इसे देखकर कुछ लिखेंगे तो बात लोगों तक तो पहुंचेगी। जिसने देखा है, खूब तारीफ की है। पहली बार मैंने अपनी स्टोरी के लिये तारीफ सुनी है। यह स्टोरी गांवों में स्वास्थ्य सुविधाओं की भयानक कमी को लेकर है। लेकिन यह स्टोरी भी नहीं चलायी। जब अमिताभ बच्चन के मुंबई के एक अस्पताल में भर्ती होने के बारे में दिन-रात प्रसारण हो रहा था तब देहात में सैकड़ों-हजारों लोग मामूली बीमारियों से किस तरह मौत के शिकार बन रहे थे, इसे दिखाने में हमारे चैनल को कोई दिलचस्पी नहीं थी।''

एंकर की बात सुनकर मुझे अपनी सोच पर पछतावा हुआ कि चैनल में दिखायी जाने वाली उटपटांग चीजों के लिये एंकरों को बेकार ही दोषी मानता रहा। मेरे जैसे लोग तो यही मानते रहे हैं कि एंकरों के पास सुंदर चेहरे के अलावा कुछ और नहीं होता है, लेकिन अब पता चला कि कुछ एंकरों के पास दिमाग भी होता है और समाज के लिये कुछ करने की चाहत भी। लेकिन दुर्भाग्य देखिये कि सर्वश्रेष्ठ माने जाने वाले उस चैनल ने दूर से ही मंद बौद्धिकता की आभा बिखेरने वाले अपने तुतलाते रिपोर्टरों एवं इठलाते एंकरों को मंदी के नाम पर निकालने के बजाय कानों में अमृत घोलने वाली इसी एंकर को निकाल दिया।

मैंने पूछ लिया, 'अब आगे क्या करने का इरादा है। आखिर घर-परिवार चलाने के लिये नौकरी तो चाहिये ही। सेब बेचकर कितना दिन गुजारा करेंगीं। जीवन कैसे चलेगा।'

एंकर ने जबाव दिया, 'सच कहूं तो जीवन अब ही चल रहा है, पहले तो केवल नौकरी चल रही थी, जीवन नहीं'

'लेकिन लाख रुपये की सैलरी, ग्लैमर और शोहरत सेब बेचने से मिल नहीं सकती। आपने मीडिया में एक मुकाम हासिल किया।' मैंने कहा।

'काहे का मुकाम, ग्लैमर, शोहरत और काहे की सैलरी। सच कहूं तो पहले जितने लोग मुझे एंकरिंग के कारण जानते थे, उससे कम से कम दो गुना लोग मुझे सेब बेचने के कारण जानने लगे हैं। रोज बीसियों लोगों से मिलती हूं। सच कहूं तो पहले मेरा जीवन तो मेकअप रूम और स्टूडियो में ही सिमट कर दम तोड़ रहा था। एंकर की नौकरी में कहने को तो एक लाख रुपये पाती थी लेकिन आधे पैसे तो पाउडर-लिपिस्टिक में और एंकरिंग की नौकरी में मिले स्पाइन दर्द और माइग्रेन का इलाज कराने में खर्च हो जाता था। ऐसी लाख रुपयों की सेलरी का क्या करना है जो घर-परिवार और जीवन की खुशियां ही छीन ले। जब से नौकरी छूटी है तब से स्पाइन दर्द और माइग्रेन भी धीरे-धीरे खत्म हो गया। अब अपने लिये, बच्चों और घर परिवार के लिये जीती हूं। समय मिलेगा तो समाज के लिये कुछ न कुछ करूंगी। चैनल की नौकरी में किसके लिये जी रही थी और किसके लिये क्या कर रही थी, अब तक मुझे कुछ समझ नहीं आया।'

'वह सब तो ठीक है, लेकिन सेब बेचकर कितना मिलेगा।' मैंने सवाल किया।  

'चेहरा दिखाकर लाख रुपये की सेलरी पाने से तो अच्छा है कि मेहनत से हजार रुपये कमाना। चेहरा दिखाकर पैसे कमाने से तो अच्छा सेब बेचना है। मुझे सेब बेचकर जितना भी मिलता है वह जीवन और घर-परिवार चलाने के लिये काफी है। ज्यादा तो नहीं लेकिन रोज एक हजार रुपये की कमाई हो ही जाती है। अरे मैं भी कहां की बात ले बैठी। मैं तो वह सब भूल कर नया जीवन शुरू करना चाहती हूं। ....... अरे आपने तो बताया नहीं कि कितना सेब तौल दूं। आपने पढ़ा नहीं है कि सेब खाने से दिल और दिमाग दोनों ठीक रहता है। बच्चों को तो रोज चार-पांच सेब खिलाइये। मैं भी अब रोज सेब खाती हूं और बच्चों को भी खिलाती हूं। टेलीविजन की नौकरी में तो याद ही नहीं कि कब सेब खाया था।'

'अगर आप कहती हैं तो पांच किलो सेब तो दे ही दीजिये। देखिये भाव ठीक से लगाइये। यह समझ लीजिये कि मैं आपका स्थायी ग्राहक बनने वाला हूं।' मैंने अपना थैला आगे बढ़ाते हुये कहा। थैले में पांच किलो सेब भरवाकर आगे बढ़ा, इस बात से अनजान कि विनोद विप्लवथोड़ा आगे एक इससे भी बड़ा आश्चर्य मेरा इंतजार कर रहा था।

(अगले भाग में पढ़िए- सब्जी मंडी में आलू बचने वाले एक पत्रकार की दास्तान जिन्हें मंदी के नाम पर देश के एक प्रमुख राष्ट्रीय दैनिक ने अपने यहां से निकाल दिया था)


संपर्क करने के लिए 09868793203 या vinodviplav@gmail.com This e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it   का सहारा ले सकते हैं।

वैश्विक मंदी ने किया श्रमिकों का स्वास्थ्य चौपट

विश्‍व मजदूर दिवस के मौके पर - एक अध्‍ययन की रिपोर्ट 

नई दिल्ली। वैश्विक मंदी के चलते कार्पोरेट जगत के शुध्द मुनाफे में तो कमी आयी ही है कार्पोरेट श्रमशक्ति का स्वास्थ्य भी चौपट हुआ है। कार्पोरेट अधिकारियों के मध्य हेल्थआन फाउंडेशन द्वारा कराये गये सर्वेक्षण में उत्तरदाताओं ने कहा कि अर्थव्यस्था की हालिया मंदी और उसके फलस्वरूप नौकरी एवं वेतन में कटौती ने उनकी चिंता के स्तर को बढ़ाया है और कार्य-स्थल का बढ़ा हुआ दबाव स्वयं को बहुधा की बीमारी और चिंता के स्तर में वृध्दि में स्वयं को प्रकट कर रहा है। 59 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कहा कि मौजूदा नौकरी के कारण अगर उनके तनाव में और वृध्दि होती है या उनका वेतन कम होता है तो वे काम छोड़ देंगे।

यह सर्वेक्षण दिल्ली, बंगलुरू, चेन्नई, हैदराबाद और कोलकाता में पिछले पखवाड़े 30-45 वर्ष आयु-समूह के 57 प्रतिशत पुरुष और 43 प्रतिशत महिला कार्यरत अधिकारियों के मध्य कराया गया। उद्योगों के सभी प्रमुख सेक्टरों को कवर किया गया और मुख्य धारा के सभी प्रकार्यों से कमोबेश बराबर की संख्या में उत्तरदाताओं से प्रश्न पूछे गये।

सर्वेक्षण की रिपोर्ट संकेत देती है कि बड़ी संख्या में अधिकारियों ने मेडिकल अवकाश प्राप्त किये और बहुत से अधिकारियों ने तो उससे अधिक छुट्टियां लीं जितने के वे हकदार बनते थे।  
तकरीबन 64  प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कहा कि कार्य स्थल का तनाव उनकी उत्पादकता पर बुरा असर डालता है जबकि 76 प्रतिशत इस बात से सहमत थे कि उनके काम का हड़बड़ी वाला शेडयूल सेहत के प्रति लापरवाही बरतने का मुख्य कारण रहा है। उत्तरदाताओं ने इसके अलावा कार्यस्थल के तनाव को पाचन-तंत्र की गड़बड़ियों (एसिडिटी, अम्लशूल, पेट के अक्सर खराब रहने), थकान और निष्क्रियता, गर्दन दर्द, पीठ दर्द, चिंता और अवसाद जैसी बार-बार पेश होने वाली स्वास्थ्य की समस्याओं के लिए जिम्मेदार ठहराया।  
हेल्थऑन फाउंडेशन के संयोजक डॉ. सीमांत शर्मा ने कहा, ''सर्वेक्षण के निष्कर्षों से कार्पोरेट जगत को चेत जाना चाहिए और क्या ही अच्छा हो कि वे यह सुनिश्चित करने के लिए ठोस कदम उठायें कि अधिकारी स्वस्थ एवं उत्पादक बने रहें।''

लेकिन, आदित्य बिरला सेंटर के एचआर प्रमुख श्री विनीत कौल का मानना है कि तनाव का बढ़ता स्तर व्यक्तियों की अलग-अलग स्थितियों तक सीमित है और इसे कार्पोरेट सेक्टर में सामान्य प्रवृत्ति के रूप में नहीं देखा जा सकता।   
कर्मचारियों के मध्य तनाव का प्रबंध करने के लिए उनके संगठन द्वारा उठाये गये कदमों की बाबत उन्होंने कहा, ''हम संगठन में अपनी श्रमशक्ति की भूमिका के बारे में उससे निरंतर बातचीत करते रहते हैं। हम चाहते हैं कि उनके काम से जुड़े मामलाें और उन्हें प्रभावित करने वाली नीतियों से उनका जुड़ाव बढ़े। हम यह सुनिश्चित  करते हैं कि कार्य-प्रदर्शन की कद्र हो  और ऐसे मनमाने फैसले लेने से बचते हैं जो कि उनमें असंतोष बढ़ा सकते हैं।'' 
सर्वेक्षण दर्शाता है कि देश के सभी महानगरों में कार्यरत पेशेवरों के मध्य काम से जुड़ी स्वास्थ्य शिकायतों में उछाल आया है। डॉ. शर्मा का मानना है कि इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए काम से जुड़े स्वास्थ्य के मुद्दों और उन्हें समुचित ढंग से संबोधित करने के संभावित तरीकों के बारे में जागरुकता पैदा करने की निश्चित रूप से आवश्यकता है। डॉ. शर्मा की राय में यह काम  से जुड़ी स्वास्थ्य समस्याओं से बेहतर ढंग से निपटने हेतु अधिकारियों को तैयार करने में मदद करेगी।

मुंबई के जाने-माने फिजिशियन डॉ. हेमंत थैकर ने कहा, ''कार्पोरेट कार्य-क्षेत्र में अब स्वास्थ्य समस्याओं की रोकथाम की बजाय स्वास्थ्य के संरक्षण पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है। खुराक में फर्क, कार्यस्थल के तनाव और रोजमर्रा की गतिविधियों को देखते हुए स्वास्थ्य के इस संरक्षण को दिन प्रतिदिन की जीवनशैली को उपयुक्त स्वास्थ्य प्रबंधन में अनूदित करना चाहिए। काम की जगह पर उत्पादकता में वृध्दि करने के लिए इसके साथ नियमित जांच और आवश्यक चिकित्सकीय हस्तक्षेप होना चाहिए।''