व्यंग्यलोकतंत्रम् अभ्युत्थानम्- विनोद विप्लव

मतदाताओं की चिरपरिचित मूर्खता और अपरिपक्वता के कारण पिछले कई चुनावों की तरह इस चुनाव में भी लोकतांत्रिक भावना का धक्का पहुंचा है। हालांकि पिछले दो तीन चुनावों के बाद से जो नतीजे आ रहे थे उसे देखते हुये इस बार उम्मीद बनी थी कि इस बार पहले से और बेहतर नतीजे आयेंगे हमारे देश में लोकतंत्र और मजबूत होगा, लेकिन दुर्भाग्य से मतदाताओं ने वह गलती दोहरा दी जिसे लोकतंत्र प्रेमी कभी माफ नहीं करेंगे। इस चुनाव के नतीजों ने यह साबित कर दिया है कि लोग खुद नहीं चाहते कि उनका भला हो। दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में लोकतंत्र का ऐसा हश्र और वह भी लोक के हाथों - विश्वास नहीं होता। पिछले कुछ चुनाव के बाद कितना अच्छा लोकतांत्रिक वातावरण उत्पन्न हुआ था। यह सोचते ही मन अह्लादित हो जाता है, लेकिन इस चुनाव नतीजों ने लोकतंत्र की स्थापना के लिये किये गये सभी प्रयासों पर पानी फेर दिया।
प्रधानमंत्री बनने की आस केवल लाल कृष्ण आडवाणी, मायावती या शरद पवार ही नहीं लगाये बैठे कई और लोग लगाये बैठे थे लेकिन लोगों की मूर्खता के कारण सबकी उम्मीदों पर पानी फिर गया। सोचिये अगर कांग्रेस एवं उनकी सहयोगी दलों को सरकार बनाने लायक पर्याप्त बहुमत मिलने के बजाय सभी पाटियों को केवल पांच-पांच, दस-दस सीटें ही मिलती तो देश में लोकतंत्र का कितना विकास हो सकता था। अगर ऐसा होता तो सबको फायदा होता - समाज के सबसे निचले स्तर के आदमी तक को फायदा होता। अखबार और चैनलवालों को तो मनचाही मुराद मिल जाती।
आप खुद सोचिये कि तब कितना मजेदार दृश्य होता जब पांच-पांच, दस-दस सीटें जीतने वाली पचास पार्टियों के नेता रात-रात भर बैठकें करते। कई कई दिनों ही नहीं कई-कई सप्ताह तक बैठकें चलतीं। बैठकों में लत्तम-जुत्तम से लेकर को वे सब चीजें चलती जो लोकतांत्रिक मानी जाती हैं। प्रधानमंत्री को लेकर महीनों तक सस्पेंस बना रहता। चैनलों पर दिन रात ‘‘कौन बनेगा प्रधानमंत्री’’, ‘‘7 रेस कोर्स की रेस’’, ‘‘कुर्सी का विश्व युद्ध’’ जैसे शीर्शकों से कार्यक्रम पेश करके महीनों तक अपनी कमाई और लोगों का मनोरंजन करते। चैनलों की टीआरपी और अखबारों का सर्कुलेशन हिमालय की चोटी को भी मात देता। हलवाइयों से लेकर नाइयों की दुकानों तक लोग राजनीति और लोकतंत्र के विभिन्न पहलुओं पर चलने वाले राष्ट्रीय बहस में हिस्सा लेते और इस तरह देश में लोकतंत्र में जनता की भागीदारी बढ़ती। सबसे दिमाग में यही सवाल होता कौन बनेगा प्रधानमंत्री। अचानक एक दिन रात तीन बजे मेराथन बैठक के बाद मीडियाकर्मियों के भारी हुजूम के बीच घोषणा होती कि प्रधानमंत्री पद के संसद भवन के गेट से 20 फर्लांग की दूरी पर बैठने वाले चायवाले को चुना गया है क्योंकि सभी नेताओं के बीच केवल उसी के नाम पर सहमति बन पायी है। आप सोच सकते हैं कि अगर ऐसा हुआ होता तो हमारे देश का लोकतंत्र किस उंचाई पर पहुंच जाता। इस घोषणा के बाद जब तमाम चैनलों के रिपोर्टर और कैमरामैन अपने कैमरे और घुटने तुडवाते हुये वहां पहुंचते तबतक चायवाले की दुकान के आगे एक तरफ नगदी से भरे ब्रीफकेस लिये हुये सांसदों की लंबी लाइन होती तो दूसरे तरफ उद्योगपतियों की। एक दूसरी लाइन उनसे बाइट लेने वाले चैनल मालिकों और संपादकों की होती। एक - दो घंटे के भीतर जब वह चायवाल अरबपति बन चुका होता तभी अखबार या चैनल का कोई रिपोर्टर या कैमरामैन बदहवाश दौड़ता हुआ वहां पहुंचता और जब बताता कि असल में सुनने में गलती हुयी है। दरअसल प्रधानमंत्री के लिये दरअसल जिसके नाम पर सहमति हुयी है वह चायवाला नहीं बल्कि पानवाला है। इसके बाद मीडियाकर्मियों के बीच एक और मैराथन दौड़ होती और अगले घंटे के भीतर एक और व्यक्ति अरबपतियों की सूची में शुमार हो जाता। इस बीच घोषणा होती कि बैठक में पानवाले के नाम पर असमति कायम हो गयी और अब किसी और के नाम पर चर्चा हो रही है। देश में एक बार फिर संस्पेंस का माहौल कायम होता और क्या पता कि बैठक के बाद जिस नाम की घोषणा होती वह नाम इस खाकसार का होता। महीनों तक कई बैठकों का दौर चलने और तमाम उठापटक के बाद प्रधानमंत्री के रूप में किसी का चयन होता है और फिर मंत्रियों के चयन पर सिर फुटौव्वल का दौर चलता और अंत में पता चलता कि मंत्रियों के लिये भी सांसदों के नामों पर सहमति नहीं बन पायी बल्कि किसी मोची, किसी पनवाडी, किसी पंसारी, किसी जुआड़ी और किसी अनाड़ी के नाम पर सहमति बनी है। सोचिये कितने आम लोगों एवं उनके नाते-रिश्तेदारों का भला होता और तब सही अर्थों में लोकतंत्र की स्थापना होती क्योंकि लोकतंत्र वह तंत्र होता है जो जनता का, जनता के लिये और जनता के द्वारा हो।

इस व्यंग्य का संक्षिप्त रूप 09 जून, 2009 को दैनिक हिन्दुस्तान के ‘‘नक्कारखाना’’ काॅलम में ‘‘लोकतंत्रम् अभ्युत्थानम्’’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है।

अंदाज से बदली हिन्दी फिल्मों का अंदाज


हिन्दी सिनेमा के स्वर्ण युग की एक महत्वपूर्ण फिल्म अंदाज का एक दृश्य है जो कई बातों के लिये आज भी जानी जाती है। सन् 1949 में महबूब खान ने मेला और शहीद के जरिये फिल्मी दुनिया में स्थापित हो चुके दिलीप कुमार को पहली बार फिल्म अंदाज के जरिये राज कपूर और नरगिस के साथ काम करने का मौका दिया और अंदाज को आशातीत सफलता मिली और दिलीप कुमार भारतीय सिनेमा के ट्रेजेडी किंग के नाम से जाने जाने लगे।इस फिल्म के बाद पहली बार मोहम्मद रफी को राजकपूर की आवाज के रूप में और मुकेश को दिलीप कुमार की आवाज के रूप में इस्तेमाल किया गया। अंदाज ने फिल्म निर्माण की धारा ही बदल दी। फिल्म ‘अंदाज’ के बाद बरसों साल प्रेम त्रिकोण पर आधारित फिल्में बनती रहीं, जिसकी चरम परिणति राज कपूर की ‘संगम’ फिल्म में हुई। आज भी इस विषय पर फिल्में बनती रही। इस फिल्म में पहली बार दिलीप कुमार ने एंटी हीरो की भूमिका निभाई। यह फिल्म की कहानी को आधार बनाकर शाहरूख खान अभिनीति डर फिल्म बनी जो सुपर हिट रही। अंदाज में दिलीप कुमार नर्गिस को घोड़े पर से गिरने से बचाते हैं और इसके साथ ही दोनों मे दोस्ती हो जाती है। दिलीप कुमार नर्गिस पर फिदा हो जाते हैं, तभी राज कपूर की एंट्री होती है। राज कपूर और नर्गिस पहले से एक-दूसरे से मुहब्बत करते हैं। उस दौर के नजरिए से इसे एक बोल्ड फिल्म कहा जा सकता है, क्योंकि चालीस के दशक में दर्शक किसी एक हिंदुस्तानी औरत की जिंदगी में एक साथ दो पुरूषों की मौजूदगी को स्वीकार करने के लिए मानसिक और सामाजिक रूप से तैयार नहीं थे। इसके बावजूद बेहतरीन तकनीक, यादगार संगीत और शानदार अदाकारी के दम पर यह फिल्म कामयाब रही।

कभी बेचते थे मूंगफली, चराते थे भैंसे, ढोते थे रिक्‍शा, हांके थे तांगे, आज पत्रकार हो गये ।।


अखबार निकालें, गरीबी हटायें


अखबार निकालें, गरीबी हटायें
अगर गरीबी हो मुकाबिल तो अखबार निकालो ।
चाहिये अकूत सम्‍पत्ति तो अखबार निकालो ।।
अगर टेंशन बने कोई देशभक्‍त तो निपटाना है आसां ।
छापो फर्जी खबर, केस लपेटो, चलो अखबार निकालो ।।
अगर परेशां हो पैसा बढ़ाने की खातिर, नहीं सुनता पुलिस वाला फरियाद जो तेरी ।

अरे मूरख उठ जाग मुसाफिर भोर भई, अखबार निकालो ।।
अगर नहीं है मुकाबला तेरा वश में भ्रष्‍ट अफसर और नेताओं से ।
अब चेत जा और छाप डाल, बस कर इतना एक अखबार निकालो ।।
नहीं है गर दौलत की मेहरबानी तुझ पर, नहीं बढ़ता पैसा तेरा बैक, बीमा शेयर से अगर ।
फिक्र छोड़, उठ जाग, छाप धड़ाधड़ संस्‍करण अनेक और अखबार निकालो ।।
छोड़ देशभक्ति के चोंचले, छोड़ गरीब की आवाज उठाना, मूरख भूखों मर जायेगा ।
चेत जाग धन की देवी लक्ष्‍मी पुकारती तुझे, उठो और अखबार निकालो ।।
समझ आयोजित और प्रायोजित के अर्थ, अखबार चला ले जायेगा ।
अगर है चमचागिरी और मक्‍खनमारी की कला से सम्‍पन्‍न, ढेरों विज्ञापन पा जायेगा ।।
पुलिस वाले की तरह फरियादी से भी ले, मुल्जिम से भी वसूल ।
इतनी समझ गर आ गयी तुझे तो पक्ष विपक्ष दोनो से मिलेगा धन तुझे, चलो उठो अखबार निकालो ।।
पाठक बना रहेगा, कन्‍जूमर कहलायेगा, जेब पर टैक्‍स ठुकेंगें कई, चौतरफा लुट जायेगा ।
अगर ठिकाने लगाने हैं ब्‍लैक मनी के पैसे तुझे, हजम भ्रष्‍टाचार की कमाई, उठ जाग चलो अखबार निकालो ।।
यदि है परेशान पत्रकारों से नेताओं से और फर्जी शिकायतों से ।
अरे चेत नादान, सीख मंत्र वशीकरन का अब जाग उठ और चलो अखबार निकालो ।।
नहीं सुनेगा देस में कोई बात तेरी, नक्‍कारखाने में तूती बन रह जायेगा ।
बिन नर्राये जो चाहे, कान में मोबाइली मंत्र फूंकना सारे कारज सिद्ध करना तो चलो अखबार निकालो ।।
अखबार निकाला और सिद्ध हो गये हजारों जोगी, शेष सब जोगना हो गये ।
कभी बेचते थे मूंगफली, चराते थे भैंसे, ढोते थे रिक्‍शा, हांके थे तांगे, आज पत्रकार हो गये ।।
नहीं है दो कौड़ी की कदर जो तेरी, चिन्‍ता न कर उनकी भी नहीं थी कभी ।
उन्‍हें भी जलालत झेलनी पड़ी थी कभी, मारा पुलिस ने था अफसरों ने दफ्तरों से भगाया था, पत्रकार बने तो माननीय हो गये ।।
बनेगा पत्रकार, मिटेगा अंधकार, जीवन में उजाला छा जायेगा, गुण्‍डे से माननीय हो जायेगा ।
अरे बेवकूफ फेंक बन्‍दूक आ चम्‍बल के गहरे भंवर तले, लगा मशीन छाप अखबार बिन बन्‍दूक का शाही डकैत हो जायेगा ।।
कहॉं खाक छानता है चम्‍बल के बीहड़ों में दो चार पकड़ में क्‍या कमा पायेगा ।
पौना पुलिस ले जायेगी, चौथाई के लिये मारा जायेगा, फेंक बन्‍दूक बीहड़ की गहरी खाई में चल आ बन जा माननीय, उठ जाग और चलो अखबार निकालो ।।

भटकता फिरता है चोरी भडि़याई करते, किसी दीवाल से फिसलेगा मारा जायेगा ।
केवल दस परसेण्‍ट पर चोरी में क्‍या कर पायेगा, नब्‍बे खाकी खायेगी, छोड़ ये जान का संकट उठ जाग और चलो अखबार निकालो ।।
कई चोर थे, कई पिटे भी थे कई की इज्‍जत तार तार हुयी थी कभी मगर तब जब वे पत्रकार नहीं थे ।
पत्रकार हुये और पुज गये, सारे काम सफेद हो गये, मिलतीं हैं लड़कियां भी शराब और मुर्गे भी उन्‍हें, अरे मूरख जाग उठ और अखबार निकालो ।।
कभी वे तरसते थे, छिपके हसीनाओं के निहोरे करते थे, शराब की बूंद को तरसा करते थे, बोतल खाली कबाड़ी से खरीद कर उन्‍हें उल्‍टी कर नब्‍बे बूंद टपका कर प्‍याला भरते थे जो ।
पत्रकार बने तो दिन फिर गये, अम्‍बाह जौरा और रेशमपुरा तक सरकारी गाड़ी में जायेगा, सुन्‍दरीयों के साथ दिन औ रात बितायेगा, सरकारी शराब और मुर्गे चाटेगा, फिर भी न तू अघायेगा, जाग बेवकूफ उठ चलो अखबार निकालो ।।
क्‍या कलेक्‍टर क्‍या कमिश्र्नर, मंत्री भी क्‍या औ संतरी भी क्‍या ।
अब बेवकूफ खुदी को कर बुलन्‍द इतना कि सब तुझसे पूछें बता तेरी रजा क्‍या है, बस जाग चेत उठ एक अखबार निकालो ।।
वह वक्‍त वह बातें हवा हुयीं, जब अखबार निकलते थे स्‍वतंत्रता की लड़ाई के लिये ।
अब तू छाप अखबार गरीबी हटाने के लिये, चमचागिरी करने के लिये प्रचार साधन के लिये ।।
अरे पगले, भ्रष्‍ट अफसर नेता औ बाबू कीमती ध्‍ारोहर हैं देश के लिये ।
नहीं बढ़ने देते मुद्रा स्‍फीति, नहीं करते वायदा कभी धन बढ़ाने का ।।
चलन में है भ्रष्‍टाचार, संवैधानिक दर्जा है भ्रष्‍टाचार का, इन्‍हें संरक्षण दे, फलीभूत कर, कमाऊ पूत हैं देश के ये कर्णधार ।
इनसे मिल कर चलेगा, अखबार चलेगा, वरना कागज के कोटे को तरस जायेगा, इनके साथ चल विज्ञापन बटोर उठ पागल उठ चलो अखबार निकालो ।।

यह कविता जिस ब्लाग से ली गयी है उसका नाम है
http://bhind.spaces.live.com/Blog/cns!D960115431E5C4CD!781.entry