हिंदुत्‍व की ज़मीन पर बाबा रामदेव का योग

सुभाष चंद्र मौर्य
बाबा रामदेव इस वक्‍त भारत के सबसे चर्चित योगगुरु हैं। उनकी लोकप्रियता बड़े राजनीतिज्ञों, उद्योगपतियों, धार्मिक महंथों और यहां तक कि मुल्‍क के नगरों-महानगरों में भरे-पड़े मध्‍यवर्ग के बीच सबसे अधिक है। ऐसे योगगुरु जो मुंगेर योगाश्रम और रिखिया आश्रम के स्‍वामी सत्‍यानंद सरस्‍वती की तरह निर्विवादित नहीं हैं, फिर भी उनकी स्‍वीकार्यता चमत्‍कृत करती है। जेएनयू के शोध छात्र सुभाष मौर्य ने उनकी मंशा और उनके कारोबार का अपनी तरह से विश्‍लेषण करने की कोशिश की है।बाबा रामदेव के दो चेहरे हैं। एक वो, जिसमें वह लोगों को योग की दीक्षा देते नजर आते हैं। दूसरा वो, जिसमें वह अपने शिविरों में प्रवचन देते नजर आते हैं। दोनों चेहरों को ठीक से जानने और पहचानने की जरूरत है। जब बाबा रामदेव योग की शिक्षा देते नजर आते हैं, खासकर समाचार चैनलों पर, तो बेहद तर्कवादी नजर आते हैं। उस समय बाबा रामदेव ज़ोर देकर कहते हैं कि उन्‍होंने फलां रोग में वैज्ञानिक ढंग से प्रयोग करके साबित किया है कि योग इसमें कितना कारगर है। उस समय ऐसा लगता है वह पूरी तरह तर्क बुद्धि में यकीन रखने वाले शख्‍स हैं। वही बाबा रामदेव जब आस्‍था चैनल पर प्रवचन देते हैं, तो बिल्‍कुल आस्‍थावादी नजर आते हैं। उस समय उनका आदर्श होता है श्रद्धा और भक्ति। उस समय तर्क या प्रमाण को वह सिरे से भूल कर आसाराम बापू या उन्‍हीं की तरह के तथाकथित संत नज़र आते हैं। दिन-ब-दिन उनके कार्यक्रमों में योग कम, प्रवचन ज्‍यादा बढता जा रहा है। या यों कहें तो बेहतर होगा कि उनका असली चेहरा सामने आता जा रहा है।नोएडा में इन दिनों बाबा रामदेव का शिविर चल रहा है। किसी भारत विकास परिषद के ख्‍यातिनाम पुरूष ने इसी शिविर में उन्‍हें ईश्‍वर का अवतार कहा और बाबा मुस्‍कुरा कर सुनते रहे। क्‍या यही है बाबा रामदेव का असली चेहरा?
अगर बाबा रामदेव की योग शिक्षा को परे रखकर उनके प्रवचनों को ध्‍यान से सुना जाए तो यह कहना कहीं से गलत नहीं होगा कि वह हिंदुत्‍व की ज़मीन तैयार कर रहे हैं। उनके प्रवचनों में सिर्फ हिंदुत्‍व और उसके आदर्श ही नजर आते हैं। उसमें देश की साझा और सा‍मासिक संस्‍कृति का रत्ती भर ज़‍िक्र नहीं आता। बाबा रामदेव के मुरीद करोड़ों में हैं, और वह भी योग की वजह से। करोड़ों लोगों पर उनका प्रभाव भी है। मुश्किल यह है कि लोग उनके पास आते तो हैं योग के माध्‍यम से अपनी बीमारियों का इलाज पाने के लिए, लेकिन योग के साथ-साथ उन्‍हें हिंदुत्‍व का प्रवचन भी मिलता है। और यह घुट्टी इस तरह पिलायी जाती है कि धर्म, आस्‍था, भावना, समर्पण जैसे शब्‍द बड़ी मिठास के साथ भीतर तक घुलते जाते हैं। ऐसे लोग भाजपा, बजरंग दल और विश्‍व हिंदू परिषद जैसे संगठनों के लिए बड़े मुफीद पड़ते हैं। आखिर ऐसे ही लोग तो जय श्री राम के नारे पर कारसेवा और क़त्‍लेआम के लिए निकल सकते हैं।बाबा रामदेव की यह भूमिका ठीक वैसी ही है, जैसे अस्‍सी के दशक में दूरदर्शन पर दिखाये जाने वाले रामायण और महाभारत जैसे धारावाहिकों की रही थी। देश में अस्‍सी और नब्‍बे के दशक में सांप्रदायिकता के उभार में इन धारावाहिकों की भू‍मिका स्‍वीकार करने में शायद ही किसी को गुरेज हो। इन दोनों धारावाहिकों ने राम एवं कृष्‍ण के बहाने हिंदुत्‍व की छवि आम जनमानस में पुनर्जीवित कर दी। और बाबा रामदेव भी यही कर रहे हैं।

जब लोकतंत्र का प्रहरी ही लोक के लिये खतरा बन जाये


मीडिया को लोकतंत्र का प्रहरी कहा जाता है लेकिन दुभाZग्य से हमारे देश में इस प्रहरी की निगाह में आम लोगों के सरकारों की कोई कीमत नहीं। हमारे देश में मीडियामालिकों एवं मीडियाकर्मियों की निगाह केवल विज्ञापनों] एश्वर्य राय और अमिताभ बच्चन की अमीरी--- ऐययाशी] राखी सावंत और मल्लिका शेरावत जैसी लड़कियों के कपड़े से झांकते जिस्म और अफीम का रूप ले चुके क्रिकेट पर रहती है। मीडिया के लिये आम आदमी की जान] उसके श्रम अधिकारों और उसके संघर्षों का कोई महत्व नहीं है। यही कारण है कि मौजूदा दौर में मीडिया के जनविरोधी भूमिका को लेकर समाज का हर व्यक्ति---हर वर्ग क्षुब्ध है। ऐसे में कई विशेषज्ञ मीडिया पर लगाम लगाने के लिये कड़े कानून बनाने की वकालत कर रहे हैं। यह बात दो संगोfष्ठयों के दौरान उभरी। इन संगोfष्ठयों में मौजूद विनोद विप्लव ने कुछ प्रमुख बातों को यहां प्रस्तुत किया है। इस बारे में अगर आप भी कोई राय रखते हों तो हमें अवश्य बतायें।
नयी दिल्ली में पिछले दिनों आयोजित एक संगोष्ठी में सुप्रसिद्ध साहित्यकार से- रा- यात्री ने मीडिया के घटते जनसरोकारों पर चिंता जताते हुये मौजूदा मीडिया की निर्लज्जता का मुकाबला करने के लिये वैकल्पिक मीडया बनाने की जरूरत जतायी। श्री से रा यात्री ने पत्रकार एवं आंदोलनकमीZ राजकुमार भाटी की पुस्तक -कही----अनकही---के विमोचन के मौके पर कहा कि आज के राष्ट्रीय अखबारों एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिये वही सबसे बड़ी खबर होती है उसका सामाजिक सरोकारों और जनहित से दूर - दूर का वास्ता नहीं होता है। उन्होंने कहा कि आज के समय में मीडिया जो निर्लज्ज भूमिका निभा रहा है वह शर्मनाक है और इसका मुकाबला हर स्तर पर किया जाना चाहिये। उन्होंने कहा कि मौजूदा स्थितियों में छोटे एवं मंझोले अखबारों तथा लघु पत्रिकाओं की साथक भूमिका हो सकती है। टेलीविजन चैनल आजतक के अधिशासी संपादक राम कृपाल सिंह ने कहा आज के बाजारवाद के दौर में हर आदमी का उद्देश्य मुनाफा कमाना हो गया है। आज हर क्षेत्र में तेजी से विकास हो रहा है लेकिन मीडिया समेत हर क्षेत्र में तेजी से बाजारवाद एवं उपभोक्तावाद बढ़ रहा है और ऐसे में विचारवान पत्रकारों को रक्षात्मक भूमिका निभानी पड़ रही है। उन्होंने कहा कि आज के समय में वैसी हर पुंजी का विरोध होना चाहिये जिसका कोई सामाजिक सरोकार नहीं हो।
सामाजिक संगठन --ओपन फोरम-- एवं --ओमेक्स फाउंडेशन-- की ओर से पिछले दिनों नयी दिल्ली के साहित्य अकादमी में ``मीडिया एवं सामाजिक विकास´´ पर आयोजित एक संगोष्ठी में वक्ताओं ने देश में मीडिया खास तौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के तेजी से हो रहे विस्तार एवं इनके द्वारा परोसी जा रही आपत्तिजनक सामगि्रयों के मद्देनजर कारगर राष्ट्रीय मीडिया नीति भी बनाये जाने की मांग करते हुये कहा कि हमारे देश में फिल्मों के लिये केन्द्रीय सेंसर बोर्ड जैसी नियामक संस्थायें हैं लेकिन लोगों की मानसिकता एवं सोच को व्यापक पैमाने पर प्रभावित करने वाले टेलीविजन चैनलों के लिये कोई नियामक संस्था अभी तक नहीं बनायी गयी है।
संगोष्ठी में मौजूद अनेक सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधियों ने मुनाफा और व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा की होड़ में समाज में अंधविश्वास] अपराध एवं अन्य नाकरात्मक प्रवृतियों को बढ़ावा देने वाले निजी टेलीविजन चैनलों पर नियंत्रण रखने के लिये सरकार से तत्काल कड़े कानून बनाने की मांग की है।
सेंटर फॉर मीडिया स्टडिज ---सी एम सी-- की निदेशक पी- एन- वासंती ने कहा कि आज ज्यादातर समाचार पत्रों एवं टेलीविजन चैनलों की सामग्रियों का चयन जनहित एवं सामाजिक सरोकार के आधार पर नहीं बल्कि व्यावसायिक मुनाफे के आधार पर होता है और यही कारण है कि आज मीडिया से जनहित एवं सामाजिक विकास से जुड़ी खबरें एवं सामग्रियां गायब हो गयी हैं और इनकी जगह पर सस्ता मनोरंजन बेचा जा रहा है और यह तर्क दिया जा रहा है कि लोग ऐसा चाहते हैं जबकि लोगों की रूचियों को जानने के लिये न तो कोई अध्ययन होता है और न कोई सर्वेक्षण।
श्रीमती वासंती ने मिसाल के तौर पर बताया कि फरवरी माह के पहले पखवारे के दौरान डी डी न्यूज को छोड़कर किसी भी टेलीविजन चैनल ने प्राइम टाइम पर विकास] विज्ञान] स्वास्थ्य] पर्यावरण और इसी तरह के अन्य मुद्दों पर एक भी खबर या कार्यक्रम का प्रसारण नहीं किया। उन्होंन कहा कि आज समाचार पत्रों एवं टेलीविजन चैनलों में खबरों के लिये गेट कीपर की भूमिका विज्ञापनदाता निभा रहे हैं और इस करण उन्हीं खबरों एवं कार्यक्रमों की प्रमुखता दी जाती है जिन्हें बाजार में बेचा जा सके और विज्ञापन बटोरे जा सकें।
सुश्री वासंती ने कहा कि एक समय समाचार पत्र जनहित के मुद्दों को तरहीज देते थे क्योंकि उस समय समाचार पत्रों की आमदनी का 30 से 40 प्रतिशत हिस्सा पाठकों से प्राप्त होता था लेकिन आज समाचार पत्रों एवं टेलीविन चैनलों की आमदनी के मुख्य स्रोत विज्ञापन हो गये है। आज खबरिया चैनलों में प्राइम टाइम पर प्रसारित होने वाली खबरों में तीन प्रतिशत से भी कम खबरें सामाजिक विकास के मुद्दों से जुड़ी होती हैं।
संगोष्ठी को चेक गणराज्य के प्रेस एवं मीडिया विभाग के सचिव जयंत टूट्रल] सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक डा- बिन्देश्वर पाठक, स्पैन पत्रिका के हिन्दी संपादक गिरिराज अग्रवाल] जनमत टेलीविजन के रिसर्च प्रमुख दिवाकर] अनंत पत्रिका के संपादक कुमार अमन और नवभारत टाइम्स की सुश्री मंजरी चतुर्वेदी ने भी संबोधित किया।
ओमेक्स फाउंडेशन के श्री अरविन्द मोहन ने मीडिया से समाजिक सरकारों को तरहीज देने की अपील करते हुये कहा कि समाज और देश के विकास में मीडिया की एक महत्वपूर्ण भूमिका है और मीडिया को केवल व्यावासिक होड़ में फंस कर अपनी इस महत्वपूर्ण जिम्मेदारी की अनदेखी नहीं करनी चाहिये।

भूख है तो सब्र कर] रोटी नहीं तो क्या हुआ

भूख है तो सब्र कर] रोटी नहीं तो क्या हुआ]आजकल दिल्ली में है] जेरे बहस ये मद्दुआ
गिड़गिड़ाने का यहां कोई असर होता नहींपेट भरकर गालियां दो] आह भरकर बद्दुआ।
इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो जब तलक खिलते नहीं] ये कोयले देंगे धुंआ।
इस शहर में वो कोई बारात हो या वारदातअब किसी भी बात पर खुलती नहीं है खिड़कियां

भूख है तो सब्र कर] रोटी नहीं तो क्या हुआ

भूख है तो सब्र कर] रोटी नहीं तो क्या हुआ]आजकल दिल्ली में है] जेरे बहस ये मद्दुआ
गिड़गिड़ाने का यहां कोई असर होता नहींपेट भरकर गालियां दो] आह भरकर बद्दुआ।
इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो जब तलक खिलते नहीं] ये कोयले देंगे धुंआ।
इस शहर में वो कोई बारात हो या वारदातअब किसी भी बात पर खुलती नहीं है खिड़कियां

धर्म के नाम पर दे दे बाबा--


धर्म के नाम पर दे दे बाबा--

-विनोद विप्लव

भारत में आज धर्म का बोलबाला है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के चरम विकास के इस युग में हमारे देश की बहुसंख्यक जनता की सोच में धर्म और आस्था हावी होती जा रही है। कुछ समय पूर्व एक प्रमुख राष्ट्रीय साप्ताहिक समाचार पत्रिका की ओर से कराये गये सर्वेक्षण में यह तथ्य उभर कर सामने आया था कि हमारे देश में लोगों का धर्म, ईश्वर और कर्मकांडों के प्रति विश्वास बढ़ा है। यहां तक कि नयी पीढ़ी खास तौर पर सूचना प्रौद्योगिकी कम्प्यूटर ई- कॉमर्स मीडिया फैशन माकेZटिंग और प्रबंधन जैसे आधुनिक पेशों से जुड़े युवा वर्ग के लोगों की धर्म के प्रति आस्था और पूजा-पाठ जैसे विभिन्न धार्मिक अनु\ष्ठानों में हिस्सेदारी बढ़ी है। विज्ञान fशक्षा और संचार जैसे क्षेत्रों में तीव्र विकास के कारण आम लोगों के विवेक एवं मानसिक स्तर में भी विकास एवं विस्तार होना चाहिये था लेकिन आज हम देखते हैं कि हमारी मानसिक सोच दिनोंदिन और संकीर्ण होती जा रही है। हम जाति भेद साम्प्रदायिकता धर्म अंधविश्वास कर्मकांड जैसी प्रतिगामी प्रवृतियों के दलदल में फंसते जा रहे हैं। आखिर क्या कारण है कि आज जब आधुनिक विज्ञान जीवन-जगत के रहस्यों की परतों को एक के बाद एक करके उघाड़ता जा रहा है और सदियों से कायम धर्म आधारित अंधविश्वासों कर्मकांडों पाखंडों और भ्रांतियों के झूठ को उजागर करता जा रहा है, लोगों के मन-मस्तिष्क पर धार्मिक कर्मकांड और अंधविश्वास अधिक हावी होते जा रहे हैं। क्या ऐसा स्वत स्फूर्त हो रहे हैं या इन सब के पीछे कोई संगठित या असंगठित साजिश चल रही है। आज शायद ही किसी शहर का कोई मोहल्ला, कस्बा या गांव हो जहां आये दिन भजन-कीर्तन-प्रवचन के आयोजन नहीं होते हों। इन आयोजनों पर करोड़ों रुपये खर्च होते हैं। आप कहीं भी-कभी भी नजर उठाकर देख लें कोई न कोई धार्मिक आयोजन-अनुष्ठान होते अवश्य मिल जायेंगे। कहीं भगवती जागरण तो कहीं सत्संग हो रहे हैं। कहीं राम की सवारी तो कहीं शोभा यात्रा और कहीं तजिया निकल रही है। कहीं मंदिर तो कहीं मfस्जद और कहीं गुरूद्वारे बन रहे हैं। कहीं मंदिर के नाम पर तो कहीं मजिस्द के नाम पर दंगे हो रहे हैं। कभी नये धार्मिक टेलीविजन चैनल खुल रहे हैं। खबरिया चैनलों पर पुनर्जन्म, नाग-नागिन और भूत-प्रेत की कहानियों की बाढ़ आई हुई है। टी आर पी बढ़ाने के नाम पर अंधवि”वास को बढ़ावा देने की साजि”ा चल रही है। इस साजि”ा में कई धुरंधर पत्रकार बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं। कहीं किसी धार्मिक पत्रिका का लोकार्पण हो रहा है। कभी किसी सरकारी कॉलेज या अस्पताल में मंत्र चिकित्सा विभाग खोला जा रहा है तो कभी देश का कोई केन्द्रीय मंत्री गले में नाग लपेट कर आग पर चल रहा है और तांत्रिकों को सम्मानित कर रहा है और कभी कोई केन्द्रीय मंत्री तंत्र-साधना और ज्योतिष को स्कूल-कॉलेजों एवं विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में शामिल करा रहा है। आखिर इन सब के क्या निहितार्थ हैं। क्या हमारा देश पूरी तरह से धार्मिक देश बन गया है और यहां के लोग अत्यंत धार्मिक जीवन जीने लगे हैं अथवा क्या देश और यहां की जनता को धार्मिक बनाये रखने तथा यहां के लोगों को धर्म, अंधवि\श्वासों एवं कर्मकांडों के बंधनों से जकड़ कर रखने की सतत् कोf\श\श हो रही है ताकि राजनीतिज्ञों, पुजारियों, पादरियों, मौलवियों, तांत्रिकों-मांत्रिकों, ओझाओं, बाबाओं, साधु- साfध्वयों और विभिन्न धार्मिक संस्थाओं की दुकानदारी बेरोकटोक चलती रहे। कहीं धार्मिकता के इस अभूतपूर्व विस्फोट के पीछे धर्म को बाजार और व्यवसाय में तब्दील करने की साजि\श तो नहीं है। धम्ाZनिरपेक्ष कहे जाने वाले बुfद्धजीवी और राजनीतिज्ञ धर्म को राजनीति का हिस्सा बनाये जाने पर चिंता करते हुये दिखते हैं लेकिन आज दे\श भर में जो पूरा तामझाम चल रहा है वह दरअसल धम्ाZ को राजनीति का हिस्सा बनाने का नहीं, बल्कि धर्म को व्यवसाय बनाने के दीघZकालिक अभियान का हिस्सा है। जिस तरह से सौंदर्य प्रसाधन बनाने और बेचने वाली कंपनियां अपने उत्पादों के बाजार के विस्तार के लिये सौंदर्य प्रतियोगिता और फै\शन परेड जैसे आयोजनों तथा प्रचार एवं विज्ञापन के तरह-तरह के हथकंडों के जरिये गरीब से गरीब दे\शों की अभाव में जीने वाली भोली-भाली लड़कियों के मन में भी सौंदर्य कामना एवं सौंदर्य प्रसाधनों के प्रति ललक पैदा करती है उसी तरह से विभिन्न धार्मिक उत्पादों के व्यवसाय को बढ़ाने के लिये धार्मिक आयोजन अंधवि\श्वास, अफवाह और चमत्कार जैसे तरह-तरह के उपायों के जरिये लोगों के मन में धार्मिक आस्था कायम किया जा रहा है ताकि धर्म के नाम पर व्यवसाय और भांति-भांति के धंधे किये जा सकें। यह कोfशश कितने सुनियोजित तरीके से चलती है इसका पता गणेश की प्रतिमाओं को दूध पिलाने की घटना से चलता है जब पूरे देश में ही नहीं विदेशों में भी इसकी अफवाह फैलायी गयी। इस तरह की कोfशश केवल भारत या हिन्दू धर्म में ही नहीं, हर देशों में और हर धर्मों में हो रहा है। आखिर अगर लोगों में धार्मिक आस्था नहीं बढ़ायी गयी और उनमें धर्म के प्रति भय नहीं पैदा किया गया तो कौन मंदिरों में चढ़ावे चढ़ायेगा, कौन मfस्जदों, गुरुद्वारों और चचोZं के लिये लाखों-करोड़ों रुपये का दान देगा, कौन पूजा-पाठ करायेगा, कौन सैकड़ों-हजारों रुपयों की फीस देकर नयी पीढ़ी के ज्योतिf\षयों से भवि\ष्य जानेगा, धार्मिक चैनलों को कौन देखेगा, फिल्म्ाी गानों की पैरोडी पर बनने वाले कैसेटों को कौन खरीदेगा, कौन भगवती जागरण करायेगा। अगर धार्मिकता का यह तामझाम नहीं चलता रहा तो धर्म के नाम पर राजनीति करने वालों की रोटी कैसे सिंकेगी और कैसे साधुओं पंडितों मौलवियों धर्म गुरुओं और गं्रथियों की विशाल फौज का पेट भरेगा। सभी धर्मों के उद्यमी अथाZत पुरोहित वर्ग इस बात को विरासतन साफ तौर पर जानते हैं कि उनके उद्यम अथाZत् धर्म को कोई दिव्य शक्ति न तो चला सकती है और न ही चला रही है। धर्म को वही शक्तियां चला रही हैं जो बाजार की शक्तियां हैं और जो किसी भी उद्यम को चलाती हैं। इसलिये धर्म के प्रबंधन में हम वे सभी तिकड़में देखते हैं जो बाजार के प्रबंधन में मिलती हैं, बल्कि अब तो धम्ाZ की यह हेरा-फेरी बाजार की कुत्साओं को काफी पीछे छोड़ चुकी है। हमारे देश में हर बातों के लिये कानून है और कानून का उल्लंघन करने वालों के लिये सजा का प्रावधान है। लेकिन धर्म के नाम पर दुकानदारी चलाने वाले, अपराध करने वाले, मासूम बच्चों की बलि देने वाले डायन बताकर विधवाओं की हत्या करने वाले मंदिर-मfस्जद के नाम पर जमीन हड़पने वाले टैक्स चोरी करने वाले और दंगे करने वाले इस देश के कानून से परे हैं। अगर कोई गरीब अपने बाल-बच्चों का पेट पालने के लिये कहीं कोई रेहड़ी लगा ले तो उससे पैसे वसूलने और उसे वहां से हटाने के लिये तत्काल पुलिस वाले आ धमके लेकिन मंदिर-मfस्जद बनाने के लिये जहां चाहे और जितना चाहे जमीन पर कब्जा कर लें कोई बोलने वाला नहीं है। अगर कोई वेतनभोगी किसी साल का आयकर का रिर्टन नहीं भरे तो उस पर जुर्माने का नोटिस आ जायेगा लेकिन मंदिर-मजिस्दों के नाम पर चाहे जितने धन हड़प लें और धार्मिक संस्था बनाकर चाहे जितना मन करे टैक्सचोरी करते रहें पूछने वाला कोई नहीं है। चमत्कारिक एवं दैवी इलाज के नाम पर कोई चाहे जितने पैसे कमाते रहें और मरीजों को मौत के घाट उतारते रहें।, धार्मिक स्कूूल चलाकर चाहे जितनी फीस लें और बच्चों तथा अभिभावकों को चाहे जितना लूट लें, कोई fशकायत भी नहीं करेगा। जहां दिल करे वहां रास्ता जाम कर दें जहां मन आये वहां दंगे करा दें और चाहे जिसकी जान ले लें या किसी की सम्पत्ति हड़प लें, चाहे डायन, अधार्मिक नास्तिक बताकर हत्या कर दें। धर्म के नाम पर सब कुछ जायज है। आज धम्ाZ और मजहब के नाम पर अपराध, व्यवसाय और भ्रष्टाचार पहले की तुलना में अधिक तेजी एवं खुले तरीके से जारी है। पिछले दो हजार वर्षों में ईश्वर और धम्ाZ उत्पादन में किसी भी तरह की भूमिका नहीं निभाने वाले निकम्मों, ढोंगियों ठगों और धोखेबाजों के लिये उत्पादन में लगे कामगारों और मेहनतकशों से धन-सम्पत्ति के लूटने-खसोटने तथा विलासिता का जीवन जीने का कारगर हथियार बन गया है। आज धर्म की सौदागिरी और ठेकेदारी सबसे मुनाफे का, सबसे निरापद एवं सबसे आसान धंधा है क्योंकि इसमें न तो कोई पूंजी लगती है और न ही श्रम एवं कौ\शल की दरकार होती है जबकि धन-संपदा सम्मान प्रसिfद्ध और ऐशो-आराम छप्पड़ फाड़ कर मिलते हैं। साथ ही साथ सरकार-दरबार तक आकर चरण पखारते हैं। भारत के बारे में बिना किसी हिचक के कहा जा सकता है कि धर्म इस देश का सबसे बड़ा उद्योग-व्यवसाय है जिससे लाखों लोगों की रोजी-रोटी और ऐय्याशी चलती है। जिस पर करोड़ों की पूंजी लगी है। हर वर्ष धर्म के प्रदर्शन एवं दिखावे पर हजारों करोड़ की रकम पानी की तरह बहा दी जाती है। भारत जैसे गरीब देश में धर्म के नाम पर धार्मिक उत्सवों एवं प्रवचनों पर जो फिजूलखर्ची होती है उसका कभी आकलन नहीं किया गया। यह रकम लाखों-करोड़ों में नहीं, अरबों-खरबों में है और इसका बड़ा हिस्सा देश के राजस्व बढ़ाने अथवा समाज कल्याण में नहीं बल्कि कुछ मुठ्ठी भर पुजारियों पंडितों एवं धर्म के नाम पर ठगी का धंधा करने वालों की विलासिता में खर्च होता है। देश में जगह-जगह होने वाले धार्मिक आयोजनों पर करोड़ों रुपये खर्च होते हैं। देश में स्कूलों और अस्पतालों से अधिक संख्या धार्मिक स्थलों की है। गरीब हिन्दुओं के पास रहने को छत नहीं है, पीने के लिये पानी नहीं है, यहां तक कि उनके लिये \शौच की भी पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। लेकिन अरबों रुपये मंदिरों के निर्माण के लिये लगाये जा रहे हैं। सरकारी अस्पतालों, जन कायोZं में लगी सरकारी संस्थाओं, सरकारी स्कूलों और अनुसंधान संस्थाओं के पास पैसे की भारी तंगी है, कई राज्यों में f\शक्षकों और चिकित्सकों को वेतन तक देना मुfश्कल हो पा रहा है कई स्कूलों में ब्लैकबोर्ड तक नहीं हैं, लेकिन मठों, मंदिरों मfस्जदों दरगाहों मजारों चचोZं गुरुद्वारों की अरबों-खरबों की पूंजी है। कुछ मंदिरों में तो इतनी सम्पत्ति एवं धन है कि उससे कोई छोटे-मोटे देश का पूरा खर्च निकल सकता है। विश्व के सबसे धनाढ्य एवं संपत्ति शाली देव मंदिर अथाZत जग प्रसिद्ध तिरूपति देवस्थानम् को एक अनुमान के अनुसार हर साल करीब 50 करोड़ रुपये दान एवं चढ़ावे में मिलते हैं। आंध्र प्रदेश के इस मंदिर में प्रति\ष्ठापित प्रतिमा पर करोड़ों रुपये के वस्त्राभूषण लदे रहते हैं। तिरूपति, बालाजी, सबरीमाला, मीनाक्षी और अक्षरधाम जैसे प्रसिद्ध मंदिरों में चढ़ावे के लिये न केवल देश-विदेश के बड़े-बड़े उद्योगपतियों एवं व्यावसायियों के बीच होड़ लगी रहती है बल्कि राष्ट्रपति प्रधानमंत्री केन्द्रीय मंत्री और विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री पूजा अर्चना एवं चढ़ावे के लिये पहुंचते हैं। अभी कुछ दिन पहले तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जानकी जयललिता ने तिरूपति मंदिर जाकर सोने-चांदी और अन्य जेवरात चढ़ाया था। पिछले दिनों खबर आयी थी कि नागपुर (महाराष्ट्र) के एक प्रसिद्ध स्वर्णकार ने विश्व का सबसे महंगा माणिक रत्न (जिसका मूल्य दो हजार करोड़ रुपये के लगभग है) पत्थर के भगवान बालाजी को चढ़ाया। पंजाब में एसजीपीसी का वाf\र्षक बजट ही सौ करोड़ से ऊपर है। इसके द्वारा नियंत्रित कुल संपत्ति का मूल्य तो अरबों में होगा। यही वजह है कि इस पर कब्जे के लिए पंजाब के राजनीतिक दलों में भी होड़ लगी रहती है। इन मंदिरों, धार्मिक स्थलों एवं धार्मिक संस्थाओं को न केवल देश से, बल्कि विदेशों से भी भारी पैमाने पर दान मिलते हैं। गृह मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार दे\श के विभिन्न स्वैच्छिक एवं धार्मिक संगठनों को विदे\शों से खरबों रुपये मिलते हैं जिनमें साल दर साल वृfद्ध हो रही है। गृह मंत्रालय के एक नवीनतम आंकड़े के अनुसार देश के 14 हजार 598 स्वैच्छिक संगठनों तथा धार्मिक समूहों को 2000-2001 के दौरान चार खरब 53 अरब पांच करोड़ 23 लाख रुपये के विदेशी धन प्राप्त हुये।अमरीका स्थित ईसाई राहत एवं विकास संगठन वल्र्ड विजन इंटरनेशन अनेक भारतीय स्वैच्छिक संगठनों के लिये सबसे बड़ी दानदाता एजेंसी है। आंध्र प्रदेश स्थित श्री सत्य साई केन्द्रीय न्यास सबसे अधिक विदेशी धन पाने वाला संगठन है। सत्य साई न्यास को 88 करोड 18 लाख रुपये का विदे\शी धन मिला। विदेशी धन पाने वालों में दूसरे स्थान पर वॉच टॉवर बाइबिल ट्रैक्ट सोसायटी इंडिया (महाराष्ट्र) है जिसे 74 करोड़ 88 लाख रुपये मिले। तीसरे स्थान पर केरल के गॉस्पेल फॉर एfशया को 58 करोड़ 10 लाख जबकि केरल के माता अमृतानंदमायी मिशन को 23 करोड़ 19 लाख रुपये मिले। विदेशी सहायता नियमन कानून 1976 के तहत धार्मिक एवं गैर-सरकारी संस्थाओं को मिलने वाले धन पर नियंत्रण रखने का प्रावधान किया गया है। इस कानून के तहत 22 हजार 924 संस्थाओं को विदे\शी धन प्राप्त करने के लिये पंजीकृत किया गया है, लेकिन गृह मंत्रालय के हाल के आंकडों के अनुसार केवल 14 हजार 598 संस्थानों ने विदे\शी धन प्राप्त करने के संबंध में अपने रिर्टन भरे। आयकर संपत्ति कर आदि से छूट तथा अन्य रियायतों से भी धार्मिक संस्थाओं को काफी लाभ होता है। कानूनी रियायतों का लाभ उठाकर ये धार्मिक संस्थान न तो रिर्टन भरते हैं न कोई लेखा-जोखा देते हैं। इस कारण इस बात का अंदाजा लगाना मुfश्कल होता है कि इन धार्मिक स्थलों एवं संस्थानों के पास कितनी सम्पत्ति है। कुछ सर्वाधिक संपत्ति\शाली संस्थाओं पर नजर डालें तो तिरूपति तिरुमल देवस्थानम् संभवत: पहले स्थान पर होगा। इसके अलावा दक्षिण भारत में सबरीमाला मंदिर, मदुरै का मीनाक्षी मंदिर, उत्तर भारत में गोरखनाथ मंदिर स्वगाZश्रम ट्रस्ट अक्षरधाम मंदिर बोधगया का बौद्ध मठ fशरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी अजमेर में मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह वप्फ बोर्ड तथा कई बड़े चचोZं के नाम गिनाये जा सकते हैं। ये तो मात्र कुछ उदाहरण भर हैं।धार्मिक संस्थाओं की कमाई का एक और बहुत बड़ा स्रोत है इनके परिसरों में स्थित दूकानों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों से होने वाली आय। ज्यादातर बड़े मंदिर एवं अन्य धार्मिक स्थल शहरों की प्राइम लोके\शन पर स्थित हैं और वहां श्रद्धालुओं के अलावा अन्य लोगों का भी भारी संख्या में आना-जाना लगा रहता है। पहले तो मंदिरों एवं धार्मिक स्थलों के परिसरों में प्रसाद, फूल-मालाओं एवं अन्य पूजा सामfग्रयों की ही बिक्री होती थी लेकिन अब तो मांस-मदिरा छोड़कर सांसारिक भोग-विलास की हर उपभोक्ता वस्तुयें इन पूजा परिसरों में अथवा आसपास की दुकानों में मिल जायेगी। कई पूजा स्थलों से लगे भवनों में तो सौ-सौ, दो-दो सौ दुकानें और पूरे के पूरे \शॉपिंग कॉम्प्लेक्स खुल हुये हैं। हरियाणा के डेरा सच्चा सौदा जैसे आश्रमों ने तो अब खुद ही दुकानें चलानी \शुरू कर दी है। आश्रम में आने वाले भक्त बारी-बारी से इनको नि:शुल्क सेवायें देते हैं। कई साल पहले नई दिल्ली नगर पालिका के एक सचिव ने माता का मंदिर बनाने के लिये न्यू फं्रेडस कालोनी में जमीन एलाट करायी थी। इस जमीन पर सफेद संगमर्मर का एक विशाल मंदिर बनाया गया लेकिन अब इसका इस्तेमाल चौथा और उठाला जैसे रस्मों के लिये होता है और इसके लिये बकायदा \शुल्क लिये जाते हैं। लगभग हर दिन दोपहर के बाद यहां चमचमाती गाडि़यों के कारण रास्ता जाम सा हो जाता है। यही नहीं दिल्ली विकास प्राधिकरण ने मंदिर के पुजारियों और श्रद्धालुओं के रहने के लिये धम्ाZशाला डायग्नोfस्टक सेंटर और रिसर्च लेबोरेट्री बनाने के लिये मंदिर के बगल में अलग से जमीन आबंटित किया। कुछ साल पहले धार्मिक संस्थाओं के पास जो धन एवं जमीन-जायदाद होते थे वे निfष्क्रय पड़े रहते थे लेकिन अब धार्मिक संस्थायें भी बड़े-बड़े कारपोरेट एवं व्यापारिक घरानों की तरह अत्यंत व्यावसायिक एवं प्रबंधकीय दक्षता के साथ सुनियोजित तरीके से उद्योग-व्यापार चला रहे हैं। ये धार्मिक संस्थायें दान में मिली सैकड़ों-हजारों एकड़ की जमीन पर आधुनिक तरीके से नगदी फसलें उगा रही हैं डेयरी उद्योग चला रही हैं, एवं तरह-तरह की व्यावसायिक गतिविधियों में संलग्न हैं। कई संस्थायें स्कूल कॉलेज इंजीनियरिंग एवं प्रबंधन संस्थान आदि चला रहे हैं जिनमें fशक्षण शुल्क अन्य व्यावसायिक शैक्षिक संस्थाओं की तरह ही बहुत अधिक होता है लेकिन इनमें पढ़ाने वाले fशक्षकों एवं अन्य कर्मचारियों को काई वेतन नहीं दिया जाता या नाममात्र का पारिश्रमिक दिया जाता है क्योंकि इन्हें यह कहकर बहलाया जाता है कि वे धर्म का काम कर रहे हैं। नये उभरे मठ एवं धार्मिक संस्थायें इस काम में अधिक आगे हैं। आसाराम बापू सुधांशु महाराज ओशो श्री रविशंकर जैसे आधुनिक गुरूओं के पास तावीज, चूर्ण, मंजन आयुर्वेदिक औषधियों माला पेन, कॉपी, किताबें, कैलेंडर, पोस्टर, fस्टकर, घड़ी, बेल्ट आदि विभिन्न प्रकार के वस्तुओं के उत्पादन एवं विपणन का एक विराट तंत्र है। इनके उत्पादन पर बहुत कम या नाममात्र की लागत लगती है जबकि इन्हें बाजार में बहुत अधिक कीमत पर बेचा जाता है क्योंकि इनके भक्त गण धर्मसेवा के नाम पर बिना कुछ वेतन लिये कार्य करते हैं तथा श्रद्धालु भक्तिभाव के कारण इन्हें ऊंची दाम होने के बावजूद खरीदते हैं। तिरूपति तिरूमल देवस्थानम् ट्रस्ट सबसे संगठित ढंग से कारपोरेट गतिविधियां चलाता है। इस ट्रस्ट ने अनेक कॉलेज-अस्पताल आदि खुलवाये हैं जिन्हें बिल्कुल प्रोफेशनल ढंग से संचालित किया जाता है। साथ ही यह विभिन्न कारोबारी गतिविधियों का प्रबंधन करता है। यहां तक कि तिरुपति बालाजी के मंदिर में प्रतिदिन तीन हजारों लोगों के मुंडन से गिरने वाले बालों से भी यहां कंबल, ऊनी वस्त्र जैसी वस्तुएं तैयार की जाती हैं जिनका बड़े पैमाने पर निर्यात होता है। प्रसाद को सामान्य डीलक्स तथा सुपर डीलक्स जैसी श्रेणियों में बांटकर इसे भारी मुनाफादेह कारोबार में बदलने का काम भी सबसे पहले यहीं शुरू हुआ था। पंजाब में fशरोमणि गुरुद्वारा कमेटी की ओर से दर्जनों कॉलेज तथा वोकेशनल इंस्टीच्यूट चलते हैं। इनमें कैपिटेशन फीस सहित ऊंची फीस वसूल की जाती है। देश में छोटे-छोटे गांव-गिरांव से लेकर महानगरों तक में न जाने कितने धर्म पुरुष महापुरुष विविध नामों वाले बाबाओं के, गुरूओं के महात्माओं के और संतों के शानदार आश्रम पाये जा सकते हैं जिसकी भव्यता एवं रौनक देखते बनती है। हमारे देश में 50 लाख के करीब साधु-संत, इमाम पादरी और गं्रथी हैं जिनमें से ज्यादातर को धर्म और देश-दुनिया का क ख, ग का भी पता नहीं है लेकिन वे लोगों को धर्म की f\शक्षा देते हैं और लोगों को मूर्ख बना कर ऐश करते हैं। देश में उत्सवों-कीर्तनों प्रवचनों और धार्मिक स्थलों के रख-रखाव और पुजारियों-पादरियों की ऐय्या\शी पर वर्ष भर में जो रकम खर्च होती है, वह अगर देश के विकास पर खर्च होता तो स्कूलों-कॉलेजों और अस्पतालों का जाल बिछ जाता। हर गांव में बिजली, सड़क और पेय जल जैसी सुविधायें उपलब्ध हो गयी होती। न कोई निरक्षर रहता और न कोई इलाज के अभाव में मरता।
- विनोद विप्लव

अत्याचार ईश्वर को क्यों नहीं दिखते

अरविंद शेष
बचपन से एक सूक्ति सुनता आया हूं कि इस ब्रह्मांड में बिना ईश्वर की इच्छा के एक पत्ता भी नहीं हिलता है। जब से बेहोशी टूटी ऐसा लगने लगा कि हर अकाल मानी जाने वाली मौतें] उन्मादियों के द्वारा किए जाने वाले कत्लेआम या दो महीने की बच्ची से लेकर किसी साठ साल तक की औरत के साथ होने वाले बलात्कार] धर्म के नाम पर मासूम बच्चों और औरतों की निर्मम हत्यायें क्या ईश्वर करवाता है। भूख से तड़प कर या कर्ज नहीं चुका पाने की वजह से अपनी जान खुद ही लेते हुए लोगों को देख कर ईश्वर क्यों बेहोश हो जाता है। क्यों ईश्वर हमेशा शोषकों] दलालों] अमीरों और कौन और कैसे मुझे बताएगा कि मैं पिछले जन्म में कोई हाथी था या कुत्ता था या अगले जन्म में मैं उसी रूप में पैदा होऊंगा।फिर याद आती है वे तस्वीरें जिसमें पिता कुछ ईश्वर की कही जाने वाली तस्वीरों के सामने हाथ जोड़े खड़े होते हैं और मां हर सप्ताह एक या दो दिन उपवास करके हमारे कल्याण की भीख मांग रही होती। फिर मैं भी उस ईश्वर के सामने सिर झुका कर कभी परीक्षा में पास होने की तो कभी हवाई जहाज में सफर करने की भीख मांगने लगा। आज समझ में आता है कि वह ईश्वर और मेरे दिमाग में घुसाए गए हिंदू होने के धर्म या उसमें मेरी तब की आस्था मेरी कितनी निजी थी।

सांसारिक पाखंड का एक रूप यह भी --- परलोक से पहले इहलोक

सांसारिक पाखंड का एक रूप यह भी --- परलोक से पहले इहलोक
अभिनव सिन्हा
देवी माता जब भी देगी
देगी छप्पर फाड़कर
गाड़ी-नौकर-चाकर देगी
देगी छप्पर फाड़कर।
आजकल प्रचलित यह भजन धर्म के मौजूदा स्वरूप और ईश्वर के आधुनिक भक्तों की कामना की एक बानगी देता है। आज धर्म की शरण में जाने के कारण बदल गये हैं। आèयाfत्मक शाfन्त और नि%स्वार्थ भक्ति एवं समर्पण का स्थान सांसारिक सुख की लालसा ने ले लिया है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों की तरह यहां भी विशुद्ध उपयोगितावाद हावी होता नजर आ रहा है। इस हाथ ले उस हाथ दे के सिद्धान्त से ईश्वर भी बरी नहीं हैं। भक्तजन अपनी भक्ति का तुरन्त प्रतिफल चाहते हैं। कोई इम्तहान में नम्बर पाने के इरादे से मंदिर जाता है तो कोई अच्छा वर पाने के लिए रोज सुबह जल चढ़ाता है। कोई चुनाव में टिकट पाने के लिए दरगाहों में चादर चढ़ाता है तो कोई अपनी नई फिल्म हिट कराने के लिए मत्था टेकता फिरता है। निवेश और मुनाफे के इस दौर में भक्तजन प्राय% अपनी भक्ति का निवेश करते हैं और बदले में कार्यसिfद्ध के रूप में अच्छा लाभांश पाने की कामना करते हैं।आज धार्मिकता का एक नया उभार दिखाई देता है। लेकिन इसके पीछे की प्रेरक शक्तियां पहले से अलग हैं। इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि सर्वत्र व्याप्त सामाजिक असुरक्षा की भावना] सामाजिक अलगाव] अकेलापन] बढ़ता उपयोगितावाद और मूल्यहीनता आज लोगों को èार्म की ओर ले जाने में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं।इसी माहौल में अनेक बाबाओं की धूम है। कोई जीतने की कला बता रहा है कोई मित्र बनाने और सफल होने की तो कोई जीने की कला सिखाने का दावा कर रहा है। एक ओर आसाराम बापू] श्री श्री रविशंकर] ओशो पंथी] सुधांशु महाराज और नागेन्द्र महाराज जैसे संन्यासी हैं] तो दूसरी ओर दीपक चोपड़ा] fशव खेड़ा] नार्मन विंसेंट पील जैसे मैनेजमेण्ट गुरू। पहले यह काम पfश्चम में पादरी और मनोचिकित्सक किया करते थे। अब यह दायरा व्यापक हो चुका है। मैनेजमेण्ट के लोगों से लेकर संन्यासी और साधु तक यह काम कर रहे हैं। लेकिन मजे की बात तो यह है कि साधु---सन्यासी जीने की कला सिखा रहे हैं। उनका सरोकार तो मनुष्य के इहलौकिक जीवन की बजाय पारलौकिक जीवन से होना चाहिए। लेकिन जनाब ये ऐसे संन्यासी नहीं हैं जो गुफा---कन्दराओं में रहते हों और कन्दूमूल पर जीते हों। ये हाई--टेक और टेक्नोलॉजी सैवी बाबा हैं। ये सेटेलाइट फोन रखते हैं] ए- सी- कारों और हवाई जहाजों में चलते हैं] फाइव स्टार होटलों में ठहरते हैं। करोड़ों---अरबों रुपयों की सम्पत्ति के मालिक होते हैं।बड़ी संख्या में लोग इन बाबा लोगों की शरण में जा रहे हैं। इनके बीच भी एक किस्म का वर्ग विभाजन है। हर वर्ग के अपने बाबा और पंथ हैं। निम्न वर्ग और निम्न मèयम वर्ग के लोग जय गुरूदेव जैसे पंथों और सुधांशु महाराज जैसे बाबाओं के पास जाते हैं। नवधानाढ्य वर्ग के लोग ओशो] आसाराम बापू और रवि शंकर जैसे संन्यासियों के पास जाते हैं। पढ़ा--लिखा शहरी मध्य वर्ग जो आधुनिक हो गया है] शिव खेड़ा] दीपक चोपड़ा] स्पेंसर जॉनसन और नॉर्मन विंसेंट पील जैसे मैनेजमेण्ट गुरुओं को पढ़कर जिन्दगी में जीत जाना चाहता है। इनमें तमाम किस्म की प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारियों में लगे युवा विशेष रुचि लेते हैं।इन बाबाओं और मैनेजमेण्ट गुरुओं के पास हर वर्ग के लोग जा रहे हैं। वे भी जिनका भविष्य अनिश्चित्ता की अंधी गुफा में भटक रहा है और जिनके पास कोई विकल्प नहीं है और वे भी जिनके पास कथित भगवान का दिया सब कुछ है यानी वे खाये----अघाये लोग जिनके पास हर भौतिक सुख---सुविधा है लेकिन जिनका रिक्त] कंगाल मानस अध्यात्म के मलहम की मांग करता है। मेहनतकश वर्ग और निम्न मèय वर्ग में अपनी बदहाली और बेरोजगारी को लेकर गहरी निराशा व्याप्त है। यह निराशा जगह---जगह परिवार सहित आत्महत्याओं और युवाओं द्वारा आतंकवाद का रास्ता पकड़ने के रूप में सामने आ रही है। ऐसे हालात में धर्म और अध्यात्म एक सस्ते इलाज के रूप में भी सामने आते हैं। वे वंचित वर्ग के लोगों को इस लोक में धैर्यवान और विनम्र बनने का पाठ पढ़ाते हैं( और बदले में उनके स्वर्ग जाने का रास्ता साफ! बस कुछ साल और इस नर्क को चुपचाप सह लीजिए!युवा वर्ग को हाई सोसायटी के दर्शन करा दिये जाते हैं] जो उसे मिल नहीं सकती। वह उसके पीछे भागता रहता है और एक दिन निराश हो जाता है। फिर कोई आसाराम बापू या सुधांशु महाराज आते हैं अपने प्रवचन के साथ निराशा से उबारने। अगर कोई इन बाबाओं के प्रवचन का दृश्य देखे तो मार्क्स की वह उक्ति याद हो आती है जिसमें उन्होंने धर्म को अफीम कहा था। हजारों लोग अफीमचियों की तरह बैठकर झूमते रहते हैं। इन बाबाओं के अलावा कई छद्म विज्ञानों को भी खड़ा किया जा रहा है जैसे रेकी] प्रॉनिक हीलिंग] जेनपंथ] ताओपंथ] होलिसिटक मेडिसिन] फेंग शुई वगैरह -- वगैरह। अलगाव के मारे युवा वर्ग को यह भी लुभाता है। इसके अलावा नवधनाढ्य वर्ग जो डंडी मारते---मारते आज गाड़ी] नौकरों] बंगले आदि हर सुविधा से लैस हो गया है वह भी अपने पाप बोध से मुक्ति के लिए इन बाबाओं की शरण में आता है। कुछ बाबा तो दान -- दक्षिणा द्वारा स्वर्ग में सीट आरक्षित करने का सस्ता और टिकाऊ रास्ता बताते हैं। कुछ बाबा और ज्यादा रैडिकल होते हैं। वह बताते हैं कि शिष्य! तुम जिसे पाप समझते हो वह पाप नहीं! वह तो जग की रीत है! ऊंच-नीच तो परमात्मा की लीला है! दुख क्या है -- सुख क्या है सब माया है! इस तरह के प्रवचनों से आत्मा की ठण्डक पाकर सेठ---व्यापारी अपनी-अपनी कारों में वापस चले जाते हैं और फिर जग की रीत का निर्वाह करने लगते हैं। यानी डंडी मारना जारी कर देते हैं। बदले में इन बाबाओं को दे जाते हैं सोना--चांदी या हरे-हरे नोटों की गडि्डयां।इससे अलग शहरी उच्च मध्य वर्ग अपने जीवन के घिसे--पिटे ढर्रे से ऊबकर श्री श्री रविशंकर और ओशो जैसे बाबाओं के पास जाता है। बाबाओं की ये नस्ल इंद्रियभोगवाद को अध्यात्म और धर्म की चाशनी में डुबोकर परोसती है और सेक्स---संबंधी समाजिक वर्जनाओं से इस आधुनिक शहरी उच्च मध्य वर्ग को मुक्त कर देती है। ये बताते हैं कि ईश्वर से साक्षात्कार का रास्ता सेक्स है। ओशो की पुस्तक --संभोग से समाधि तक-- या धर्म के मुंह से कहलवाते हैं। खाओ--पिओ-मौज करो। श्री रवि शंकर ---आर्ट आफ लिविंग वाले संन्यासी भी एक किस्म के पापबोध से इस वर्ग के लोगों को मुक्त कराते हैं। पुराने समाज की नैतिकता को मूर्खता बताते हैं और एकदम दूसरे छोर पर जाकर उन्मुक्तता को जीने की आदर्श कला के रूप में समर्थन करते हैं। इस कला के दर्शन तो सबको हो जाते हैं मगर इस महंगी जीवन शैली में घुस पाना हरेक के बूते नहीं होती।उच्च और उच्च मèयवर्गीय जीवन का घोर सामाजिक अलगाव भी लोगों को इन आधुनिक बाबाओं की शरण में भेजती है। सामाजिक अकेलेपन और मित्रविहीनता के शिकार ये लोग अपने मूल्यबोध में घोर व्यक्तिवाद के कारण किसी भी किस्म की स्वस्थ सामूहिकता को तो पसन्द नहीं करते लेकिन इन बाबाओं के यहां होने वाले कर्मकांडों में उन्मादी भीड़ का हिस्सा बनकर कुछ देर के लिए अपने अकेलेपन से मुक्ति पा जाते हैं। यह अलग बात है कि यह क्षणिक तु~ष्टि उन्हें बार-बार नशे की खुराक की तरह ऐसे सत्संगों में खींचकर ले आती है जहां पशिचमी संगीत की तेज बीट और रहस्यमय रोशनियों के बीच वे घंटों तक उछल---कूद करते रहते हैं।-अभिनव सिन्हा

सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना

सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से घर लौटकर जाना
सबसे खतरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
- पाश

अमिताभ बनाम दिलीप कुमार

बाज़ार केवल धनवान बना सकता है, महान नहीं!
विनोद विप्‍लव
हम यह मान कर चल रहे थे कि मोहल्‍ले में अमिताभ बड़े कि दिलीप साहब वाली बहस का लगभग अंत हो चुका है, ल‍ेकिन दरअसल ऐसा नहीं हुआ। यूनीवार्ता के मुख्‍य उपसंपादक और सिनेमा पर गाहे-बगाहे और कभी कभी बहुत तेज़ी से कलम चलाने वाले विनोद विप्‍लव ने इसी मुद्दे पर कुछ और बातें कह दीं। यानी बात निकली है, तो यहीं कहीं नहीं रह जाने वाली है।अकारण ही अमिताभ बच्चन को दिलीप कुमार से महान और प्रतिभावान साबित करने की स्वार्थपूर्ण कोशिशों से भरा अभिसार का आलेख मौजूदा समय में उभरती अत्यंत ख़तरनाक प्रवृत्ति का परिचायक है। यह दरअसल हमारे समाज और संस्कार में वर्षों से कायम हमारे आदर्शों, मूल्यों एवं प्रतीकों को नष्ट करके बाज़ारवाद एवं पूंजीवाद के ढांचे में फ़िट बैठनेवाले प्रतीकों को गढ़ने एवं उन्हें जनमानस के लिए स्वीकार्य बनाने की साजिश का हिस्सा है। दुर्भाग्य से अभिसार जैसे मीडियाकर्मी जाने अनजाने इस साजिश के हिस्सा बन रह हैं। मौजूदा बाज़ारवाद को सिद्धांतवादी, आत्मसम्मानी और अभिमानी दिलीप कुमार जैसे प्रतीकों की जरूरत नहीं है, बल्कि अमिताभ बच्‍चन जैसे मौकापरस्त, शातिर, अनैतिक और समझौतावादी जैसे उन मूल्यों से भरे प्रतीकों एवं पात्रों की जरूरत है, जिन मूल्यों को बाज़ार पोषित करना चाहता है। बाज़ार को दिलीप कुमार जैसे पुराने समय के प्रतीकों की जरूरत नहीं है। ज़ाहिर है कि उसके लिए एसे प्रतीक बेकार हैं। ऐसा इसलिए कि ये प्रतीक उपभोक्ताओं के बीच विभिन्न उत्पादों और मालों को बेचने में सहायक नहीं होते। बाजार की नजर में ये प्रतीक मूल्यहीन होते हैं।भूपेन सिंह का यह सवाल वाजिब है कि अमिताभ को महानायक बनाने में बाज़ार और मास मीडिया का रोल नहीं। तो एक औसत अभिनेता मौजूदा समय क सबसे मंहगे और सर्वाधिक प्रभावी ब्रांड में कैसे तब्दील हो गया। अमिताभ बच्चन के अतीत से वाकिफ़ लोगों को पता है- जो आवाज़ मौजूदा बाज़ार और आज की पीढ़ी को अजीज़ है, वह आकाशवाणी की मामूली नौकरी की कसौटी पर खरी नहीं उतर सकी। अब कोई यह कहे कि आकाशवाणी को प्रतिभा की पहचान नहीं है, तो यह कुतर्क ही है, क्योंकि इसी आकाशवाणी ने अपने समय के अनेक गायकों और संगीतकारों को पोषित किया, जिनके संगीत और आवाज़ का जादू आज तक कायम है।बाज़ार और मीडिया की प्रतिभा की पहचानने की क्षमता की वकालत करने वालों को यह बता देना मुनासि़ब होगा कि आज मीडिया और बाजार ने जिन प्रतिभाओं को चुना है, उनमें राखी सावंत, मल्लिका शेरावत, हिमेश रेशमिया और अभिजीत सावंत प्रमुख हैं। हो सकता है कि आकाशवाणी से एक महान प्रतिभा को पहचानने में चूक हुई हो, लेकिन जानने वाले यह जानते हैं कि अगर तेजी बच्चन को पंडित नेहरु से नजदीकियां प्राप्‍त नहीं होतीं, राजीव गांधी अमिताभ बच्चन को लेकर उस समय के निर्माता-निर्देशकों के पास नहीं जाते और इंदिरा गांधी का वरदहस्त नहीं प्राप्त होता, जिसके कारण सुनील दत्त सरीखे अभिनेताओं को मिलने वाले रोल अमिताभ को मिले, तो अमिताभ बच्चन का दर्जा बॉलीवुड में एक्स्ट्रा कलाकार से अधिक नहीं होता। यह अलग बात है कि अमिताभ बच्चन अमर सिंह जैसे धूर्त विदूषकों के जाल में फंस कर गांधी परिवार को नीचा दिखाने में लगे हैं।अभिसार जैसे अमिताभ की प्रतिभा के अंध भक्त लोग यह तर्क दे सकते हैं कि अगर अमिताभ बच्‍चन में प्रतिभा नहीं होती, तो वह इस कदर लोकप्रिय कैसे होते। लेकिन क्या लोकप्रियता हमेशा प्रतिभा और गुणवत्ता का परिचायक होती है? आज अमर सिंह जैसे दलाल संभवत नेहरु और गांधी से भी लोकप्रिय हैं, तो क्या वह गांधी से भी बड़े राजनीतिज्ञ हो गये? गुलशन नंदा और रानू बहुत अधिक लोकप्रिय होने के कारण क्या प्रेमचंद, निराला और टैगोर से बड़े लेखक हो गये। क्या दीपक चौरसिया जैसे लपुझंग लोग आज के सबसे बड़े पत्रकार हो गये? क्या मल्लिका शेरावत और राखी सावंत जैसी बेशर्म लडकियां स्मिता पाटिल से बड़ी अदाकारा हो गयीं? इसी तरह से क्या अमिताभ बच्चन आज के समय के सबसे बडे़ ब्रांड और सबसे अधिक लोकप्रिय होने के कारण दिलीप कुमार, संजीवकुमार, राजकपूर, देवानंद और यहां तक कि आज के समय के नसीरुद्दीन शाह से बडे़ और महान कलाकार हो गये?अमिताभ बच्‍‍चन की लोकप्रियता पर अभिसार को इतना भरोसा है कि वह यह दावा कर बैठे कि अमिताभ बच्‍चन को ध्यान में रख कर 20 साल बाद भी फिल्में बनायी जाती रहेंगी। अभिसार की यह बात पढ़नेवाला उनके इतिहास बोध पर तरस खायेगा। भूपेन सिंह की इस बात से मैं सहमत हूं कि अमिताभ के चेहरे में कभी अमर सिंह की बेहूदगी दिखाई देती है, तो कभी मुलायम सिंह जैसा कॉर्पोरेट समाजवाद नज़र आता है। कभी वह किसी जुआघर का मालिक लगता है, तो कभी पैसे के लिए झूठ बेचता बेईमान। किसी को बैठे-बिठाये करोड़पति होने के लिए लुभानेवाला ये शख्स बहुत घाघ भी लगता है। कैडबरी के ज़हरीले कीटाणु बेचता। पैसे के लिए अपनी होने वाली बहू के साथ भी किसी भी तरह का नाच नाचने को तैयार।जो आदमी अमर सिंह जैसे घटिया दलाल की दलाली में इतना नीचे गिर जाये कि उसके मुंह से निठारी के मासूम बच्चों के लिए सहानुभूति के दो शब्द निकलने के बजाय उत्तर प्रदेश में जुर्म कम नज़र आये, वो शख्स भले ही कितना बड़ा अभिनेता या नेता बन जाये, इतना बड़ा कतई नहीं बन सकता कि उसे बड़ा साबित दिखाने के लिए दिलीप कुमार जैसे शख्स की तौहीन की जाए। सच तो यह है कि अमिताभ बच्चन को दिलीप कुमार की महानता के सबसे निचले पायदान तक पहुंचने के लिए एक जन्म तो क्या हज़ार जन्म लेने पड़ेंगे।