एंग्री यंग मैन से हंग्री ओल्ड मैन बनते अमिताभ बच्चन
- विनोद विप्लव
भारतीय फिल्म उद्योग के बारे में कई कहावतें मशहूर हैं। इनमें एक तो यह है कि ‘यहां आदमी देखते-देखते करोडपति बन सकता है और देखते-देखते खाकपति।’ दूसरी कहावत यह है कि ‘ बालीवुड में केवल उगते हुये सूरज की ही पूजा होती है, डूबते हुये सूरज को कोई पूछता नहीं।’ अमिताभ बच्चन के मामले में ये दोनों कहावतें सौ फीसदी सही साबित होती है। आज अमिताभ बच्चन बालीवुड के शहंशाह बने हुये हैं। उनकी फिल्म नगरी में तूती बोलती है। बालीवुड ही क्या पूरा का पूरा मीडिया उन्हें एवं उनके परिवार को सिर आंखों पर बिठाये हुये है। मीडिया के लिये अमिताभ बच्चन और उनके परिवार की खुशी और गम ही सबसे बड़ी खबर है। उन्हें छींक भी आ जाये तो बालीवुड और मीडिया वालों की सांसें उपर.-नीचे होने लगती है। आज बड़े से बड़े निर्माता-निर्देशक उन्हें लेकर फिल्म बनाना अपना सौभाग्य समझते हैं। आज मीडिया और बालीवुड अमिताभ की स्तुति गान में इस कदर डूबा है कि शायद ही किसी को इस बात का ख्याल हो कि एक ऐसा भी दौर गुजरा है जब अमिताभ बच्चन नाम के इसी शख्स से निर्माता-निर्देशक कन्नी कटाते थे, मीडिया में कोई नाम लेवा नहीं था और दर्शकों ने उनकी फिल्मों से किनारा कर लिया था। आज करोड़ों में खेलने वाला यह शख्स कभी पैसे-पैसे का मोहताज था और उसके लिये अपने मकान एवं सम्पत्ति बेचने को मजबूर हो गया था।
सामान्य फिल्मी हस्तियों के मामले में यहां तक की कहानी के आगे कुछ खास नहीं होता है। ऐसी कहानियां कई बड़ी-बड़ी फिल्मी हस्तियों के बारे में सुनते आये हैं। भारतीय सिनेमा के पितामह दादा साहब फाल्के को अपने जीवन के अंतिम दिनों में भीख मांग कर गुजारा करना पड़ा था। सूरों के बादशाह ओ पी नैयर को अपने जीवन के अंतिम वर्षों में अपनी एक प्रशंसक के यहां बतौर पेइंग गेस्ट रहना पड़ा था। बात-बात में रूपये लूटाने वाले मोतीलाल को अपना अंतिम जीवन घोर मुफलिसी में काटना पड़ा था। सुरों की कोकिला सुरैया, जिसे देखने के लिये लोग सडक जाम कर देते थे जीवन लीला गुमनामी में खत्म हुई। फिल्मी दुनिया का इतिहास ऐसी कहानियों एवं मिसालों भरा पड़ा है। इस बात में कोई आश्चर्य नहीं होता अगर अमिताभ बच्चन का नाम भी इन्हीं हस्तियों की सूची में शामिल हो जाता। लेकिन अमिताभ बच्चन जिस शख्स का नाम है वह फीनिक्स पक्षी की तरह है जो अपनी ही राख से जी उठता है। अमिताभ बच्चन के कैरियर का दूसरा अध्याय फीनिक्स पक्षी की तरह बबार्दी से उठकर कामयाबी के आकाश में उड़ान भरने का अध्याय है।
1969 में ‘सात हिन्दुस्तानी’ से अपने कैरियर की शुरूआत करने वाले अमिताभ बच्चन को इस माया नगरी में स्थापित होने के लिये अन्य लोगों की तरह काफी पापड़ बेलने पड़े थे। उन्हें लंबू बोतल कहकर काम देने से इंकार किया जाता था और उनकी जिस आवाज पर मौजूदा पीढ़ी दीवानी है, वही आवाज आकाशवाणी की अदद नौकरी के लिये नाकाबिल समझी गयी थी और यही आवाज उस समय के निर्माता -निर्देशकों की नजर में उनकी सबसे खामी थी और यही कारण है कि ‘रेशमा और शेरा’ में उन्हें गूंगे की भूमिका दी गयी थी। ‘सात हिन्दुस्तानी’ बॉक्स आफिस पर पिट गई, लेकिन इसके बाद 1970 में उन्होंने अपने समय के सुपर स्टार राजेश खन्ना के साथ ‘आनंद’ में काम किया जो समीक्षकों द्वारा सराही गयी तथा व्यावसायिक रूप से सफल रही। इस फिल्म में हालांकि वह सहायक अभिनय में थे, लेकिन अपने दमदार अभिनय की बदौलत अपनी पहचान बनायी और उन्हें इस अभिनय के लिये फिल्म फेयर वेस्ट सपोर्टिंग एक्टर अवार्ड से नवाजा गया। लेकिन इस फिल्म के बाद अमिताभ ने 1971 में ‘रेशमा और शेरा’ और ‘परवाना’ जैसी कई फिल्मों में काम किया लेकिन ये सभी फिल्में फलाप रहीं। इसके बाद 1973 में प्रकाश मेहरा ने उन्हें फिल्म ‘जंजीर’ में एक ईमानदार एवं विद्रोही पुलिस इंस्पेक्टर की भूमिका सौंपी और यही से फिल्म जगत के आकाश में एक धुमकेतु का उदय हुआ जो अगले कई दशकों तक अपनी चमक से चकाचौंध करता रहा। हालांकि ‘जंजीर’ में उनकी छवि उस समय की फिल्मों में नायकों की परम्परागत रोमांटिक छवि से बिल्कुल उलट थी और इसकी बदौलत उन्होंने ‘एंग्री यंग मैन’ के रूप में अपने को स्थापित किया और इस छवि की बदौलत उन्होंने बालीवुड में शीर्ष स्थान हासिल कर लिया। इसके बाद उन्होंने हर साल कम से कम एक हिट फिल्में दी। इनमें 1975 में ‘दीवार’ और ‘शोले’, 1978 में ‘त्रिशूल’, ‘मुकद़दर का सिकंदर’, ‘डॉन’ और ‘कसमे वादे’, 1979 में ‘काला पत्थर’ और 1981 में ‘लावारिश जैसी’ फिल्मों में उन्होंने अपनी एंग्री यंग मैन की छवि को और पुख्ता किया।
इस बीच अमिताभ ने एक्शन भूमिकाओं के साथ-साथ हल्की-फुल्की भूमिकायें भी की। मिसाल के तौर पर 1975 में ‘चुपके-चुपके’, 1977 में ‘अमर अकबर अंथोनी’ और 1982 में ‘नमक हलाल’। 1976 में ‘कभी-कभी’ तथा 1981 में ‘सिलसिला’ में अपनी रोमांटिक भूमिकाओं में भी वह सफल रहे। उस समय तक वह अपनी लोकप्रियता के शीर्ष पर पहुंच चुके थे। इसके बाद उनके जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड तब आया जब 1982 में फिल्म ‘कुली’ में एक फाइटिंग सीन करने के दौरान गंभीर रूप से घायल हो गये। इसके बाद वह जीवन और मौत से जूझते हुये कई माह तक अस्पताल में रहे। पूरी तरह से स्वस्थ होने के बाद उन्होंने इस फिल्म को पूरा किया। यह फिल्म 1983 में रिलीज हुयी। निर्देशक मनमोहन देसाई ने उस सीन को फ्रीज करके दिखाया था जिसमें वह मुक्के की चोट खाकर गंभीर रूप से घायल होते हैं। इस दुर्घटना के कारण इस फिल्म को मिला भयानक प्रचार एवं लोगों की संवेदना के कारण यह फिल्म आश्चर्य जनक रूप से हिट रही।
1984 में उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री और अपने दोस्त राजीव गांधी के कहने पर इलाहाबाद संसदीय सीट से हेमवती नंदन बहुगुना के खिलाफ चुनाव लड़ा और 68 प्रतिशत के अधिक मतों के अंतर से जीत हासिल की। लेकिन तीन साल बाद ही बोफोर्स कांड के कारण उन्होंने लोकसभा सीट से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने इस मुद़दे को लेकर अखबार को अदालत में ले गये। हालांकि बाद में वह इस मामले में पाक साफ साबित हो गये, लेकिन इसके बाद उन्होंने गांधी परिवार से किनारा कर लिया। राजीव गांधी की मौत के बाद उनकी कंपनी अमिताभ बच्चन कॉरपोरेशन लिमिटेड (ए बी सी एल) को हुये भारी नुकसान के बाद वह बुरी तरह से आर्थिक संकट में फंस गये। इस आर्थिक संकट से उनके पुराने मित्र अमर सिंह ने उबारा और इसके बाद उनके पक्के दोस्त बन गए। बाद में जया बच्चन समाजवादी पार्टी में शामिल हो गयी और राज्य सभा सदस्य बन गयी।
उन्हें राजनीति के कारण तीन साल तक अभिनय से संन्यास लेना पड़ा था। वर्ष 1988 में उन्होंने फिल्म ‘शहंशाह’ से वापसी की। उनकी वापसी को लेकर पैदा हुयी जिज्ञासा की बदौलत यह फिल्म हिट रही लेकिन उनका स्टार मूल्य गिरता गया। उनकी आगे की कई फिल्मों को बाक्स आफिस पर विफलता का स्वाद चखना पड़ा। हालांकि 1991 में उनकी फिल्म ‘हम’ सफल रही लेकिन यह सफलता क्षणिक ही साबित हुयी और उनकी फिल्मों का बॉक्स आफिस पर पिटना जारी रहा।
अनेक विफल फिल्मों के बाद भी 1990 में ‘अग्निपथ’ में माफिया डान के रूप में दमदार भूमिका के लिये उन्हें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया लेकिन एक तरह से वह पर्दें से गायब हो गये। हालांकि 1992 में उनकी फिल्म ‘खुदा गवाह’ रिलीज हुई लेकिन इसके बाद वे पांच वर्षों के लिये पर्दे से फिर दूर हो गये। हालांकि 1994 में उनकी रूकी हुयी एक फिल्म ‘इंसानियत’ रिलीज हुयी लेकिन यह बाक्स आफिस पर फ्लाप रही।
इसके बाद अमिताभ बच्चन ने 1996 में अमिताभ बच्चन कारपोरेशन लिमिटेड (ए बी सी एल) नामक इंटरटेनमेंट कंपनी बनायी। उनके इस कदम पर कई लोगों को घोर आश्चर्य हुआ। इस कंपनी ने अरशद वारसी एवं सिमरन को लेकर ‘तेरे मेरे सपने’ एवं कुछ अन्य फिल्में बनायी लेकिन कोई भी फिल्म सफल नहीं हुई। इसके बाद 1997 में अमिताभ बच्चन ने एक बार फिर अभिनय में वापसी की कोशिश की - ए बी सी एल की ओर से निर्मित ‘मृत्युदाता’ के जरिये। लेकिन इस फिल्म को न केवल समीक्षकों ने बल्कि दर्शकों ने नकार दिया। इसके बाद ए बी सी एल ने 1996 में बेंगलूर में मिस बर्ल्ड ब्यूटी प्रतियोगिता आयोजित कराई लेकिन कुप्रबंधन के कारण इस कंपनी को करोडों का नुकसान हुआ। इस प्रतियोगिता के कारण ए बी सी एल को कानूनी मुकदमों में भी फंसना पड़ा। अमिताभ बच्चन को भीषण आर्थिक संकट में डालकर और मुकदमेबाजी के जाल में उलझा कर यह कंपनी आखिरकार 1997 में बंद हो गयी। अमिताभ ने इस संकट से उबरने के लिये प्रतीक्षा एवं अपने दो फलैटों को बेचना चाहा लेकिन बम्बई उच्च न्यायालय ने अप्रैल 1999 में इन मकानों की बिक्री पर तब तक के लिये रोक लगा दी जब तक कि बैंक से लिये गये कर्ज के भुगतान संबंधी मामले का निबटारा नहीं हो जाता। इसके बाद उन्हें अदालत की अनुमति से अपने बंगले को सहारा इंडिया फाइनांस के पास गिरवी रखनी पड़ी।
अमिताभ बच्चन ने इसके बाद अपने अभिनय के कैरियर को पुनर्जीवित करने की कोशिश की और 1998 में गोविंदा के साथ ‘बडे मियां छोटे मियां’ में काम किया जिसे औसत सफलता मिली। सन् 1999 में उन्हें ‘सूर्यवंशम्’ में थोडी सफलता मिली लेकिन 1999 में ‘लाल बादशाह’ और ‘हिन्दुस्तान की कसम’ की विफलता के बाद अभिनेता के रूप में उनकी लोकप्रियता लगातार गिरती गयी और आमिर खान, शाहरूख खान तथा सलमान खान सिल्वर स्क्रीन पर राज कर रहे थे। अपने समय के एंग्री यंग मैन का कोई नाम लेने वाला नहीं था। सबने मान लिया था अमिताभ बच्चन के दिन लद गये हैं और वह इतिहास बन चुके हैं। आम तौर पर सिनेमा हस्तियों की जीवन की गाथा का अंत यही हो जाता है। कुछ लोग मेहनत करके कर्ज चुकाते-चुकाते गुमनामी की हालत मे चले जाते हैं। लेकिन अमिताभ बच्चन को यह मंजूर नहीं था। अमिताभ की जिद कहें, उनकी दूरदर्शिता कहें या भाग्य का खेल उन्होंने वर्ष 2000 में कौन बनेगा करोड़पति की एंकरिंग की जिम्मेदारी संभाली और देखते ही देखते वह लोगों के दिलों-दिमाग में छा गये। यह कार्यक्रम भारतीय टेलीविजन के इतिहास का सबसे सफल कार्यक्रम बन गया। कहा जाता है कि अमिताभ ने प्रति एपिसोड 25 लाख रूपये लिये। इस कार्यक्रम ने उन्हें आर्थिक तथा अन्य स्तरों पर मजबूत बनाया। इसके बाद केनरा बैंक ने नवम्बर 2000 में बच्चन के खिलाफ अपने मुकदमे भी वापस ले लिए। बच्चन ने नवम्बर 2005 तक इस कार्यक्रम को प्रस्तुत किया। कौन बनेगा करोडपति ने अमिताभ बच्चन के कैरियर को जीवन दान दिया और यहां से उनके कैरियर का दूसरा चरण शुरू हुआ।
बच्चन ने 2000 से अपने फिल्मी कैरियर का दूसरा अध्याय शुरू किया। शायद कम अभिनेता हों जो इस उम्र पर पहुंचने और भयानक आर्थिक संकटों में पड़ने के बाद भी पस्त नहीं होने का मादा रखते हों। उन्हें टूटना मंजूर नहीं था लेकिन नहीं टूटने की जिद में उन्हें बहुत अधिक झुकना पड़ा – इतना अधिक कि उनके कई चेहेतों को उनसे नफरत होने लगी।
अमिताभ बच्चन ने 2003 में अपने 61 वें जन्म दिन पर ए बी सी एल को ए बी कोर्प के रूप में दोबारा लांच करने के बाद कहा था, ‘‘ उस समय मेरे सिर पर हमेशा एक तलवार लटकता रहता था। कई रातें सोये बगैर काटी। एक दिन मैं तड़के उठा और सीधे यश चौपड़ा जी के घर गया और मैंने उन्हें कहा कि मैं दिवालिया हो चुका हूं। मेरे पास कोई फिल्म नहीं है। नई दिल्ली में मेरे मकान और मेरी जो थोड़ी बहुत संपति है उसे गिरवी रख लिया गया है। यश जी ने मेरी बातों को शांति के साथ सुना और उन्होंने अपनी फिल्म ‘मोहब्बतें’ में काम दिया। इसके बाद मैंने विज्ञापनों, टेलीविजन एवं फिल्मों में काम करना शुरू कर दिया। आज मुझे कहते हुये खुशी है कि मैंने 90 करोड का सारा कर्ज उतार दिया और मैं नये सिरे से शुरूआत कर रहा हूं।‘
‘मोहब्बतें’ बॉक्स ऑफिस पर हिट रही और इस फिल्म के साथ अमिताभ के फिल्मी कैरियर का दुसरा अध्याय शुरू हुआ। आज अमिताभ बच्चन के पास काम की भरमार है। अकूत संपति के मालिक हैं। लेकिन इसके बाद भी पैसे कमाने के लिये हर काम करने के लिये उतावले दिखते हैं। जया बच्चन द्वारा राज्य सभा के लिये भरे गये नामांकन पत्र के अनुसार अमिताभ एवं जया के पास 2 अरब 27 करोड रूपये की संपति है। जया बच्चन ने राज्य सभा के लिये अपने नामांकन पत्र में यह खुलासा किया है। जया के पास दो गाडि़या हैं जबकि अमिताभ के पास बी एम डव्ल्यू, मर्सिडिज बेंज और टोयटा लैंड क्रूजर जैसी 11 गाडि़या हैं। बेनामी और अज्ञात संपति का तो कोई हिसाब किताब ही नहीं है।
अगर बालीवुड का इतिहास लिखा जाये तो कम से कम पिछले पांच साल अमिताभ बच्चन के साल के रूप में जाने जायेंगे। आज 65 साल की उम्र में भी वह सिनेमा के शहंशाह बने हुये हैं। आज अमिताभ बच्चन सबके चहेते अभिनेता बन गये हैं और हर बड़ा निर्देशक उनके लिये फिल्म बनाना चाहता है।
स्वर्गीय मनमोहन देसाई ने एक बार कहा था, ‘’अमिताभ बच्चन हैली धुमकेतु की तरह हैं। उनकी तरह का व्यक्ति 76 वर्ष में एक बार आता है। केवल अमिताभ बच्चन सरीखा व्यक्ति ही सभी तरह की संकटों को झेल सकता है।
दो दो बार मौत के चंगुल से निकलने और करोडों रूपयों के भारी आर्थिक संकट को झेलने वाले अमिताभ बच्चन आज 65 साल की उम्र में नौजवान अभिनेताओं की तुलना में कई गुना काम करते हैं। उनपर काम का इतना अधिक दबाव है कि उन्हें अपने काम को पूरा करने के लिये रोजाना कम से कम 18 घंटे व्यस्त रहना पड़ता है। करीब 40 साल के अपने फिल्मी कैरियर में डेढ सौ से अधिक फिल्मों में काम कर चुकने के बाद भी उनके पास फिल्मों की लंबी लाइनें लगी है और आज भी निर्माता-निर्देशक उन्हें ध्यान में रखकर फिल्में बना रहे हैं। उनकी आगामी फिल्मों में ‘सरकार पार्ट टू’, ‘राम गोपाल वर्मा की शोले’, ‘गॉड तुस्सी ग्रेट हो’, ‘हैपी न्यू इयर’, ‘तानसेन’, ‘बैजू बाबरा’ आदि शामिल है। इसके अलावा वह शीतल पेय, क्रीम, चाकलेट, पेंट, कार, कलम, दर्दनिवारक मलहम और सामाजिक कार्यक्रमों आदि के लिये प्रचार करते हैं। कोई भी टेलीविजन चैनल देखें हर पांचवे मिनट में वह किसी न किसी विज्ञापन में नजर आते हैं। करीब 18 ब्रांडो की माडलिंग करते हैं और कई कंपनियों के ब्रांड अम्बेसडर हैं। वह न केवल फिल्मों के बल्कि विज्ञापनों की दुनिया के सबसे महंगे सितारे हैं। अनुमान है कि लीलावती अस्पताल में भर्ती होने के कारण कुछ दिनों तक बड़े और छोटे पर्दे से उनके दूर रहने से बालीवुड और टेलीविजन को कम से कम 300 करोड़ रूपये का नुकसान हुआ।
अब सवाल यह है कि अमिताभ बच्चन की इतनी मांग, इतना अधिक बाजार मूल्य, उनकी अकूत संपत्ति और उनकी इतनी अधिक व्यस्तता का सामाजिक उपादेयता अथवा सिनेमा के विकास के संदर्भ में क्या कोई महत्व है। केवल सवाल यह नहीं कि आज अमिताभ बच्चन कितने बड़े अभिनेता हैं या कितने बडे ब्रांड हैं या कितने बड़े धनवान हैं। आज मीडिया अमिताभ बच्चन और उनके परिवार को सिर आंखों पर बिठाये हुये है। इसका राज या तो खुद अमिताभ बच्चन को पता होगा या दिन रात उनके गुणगान करने वाले खाये, पिये, अघाये मीडियावालों को। कुछ मीडिया कर्मी तो उनके सामने राजेश खन्ना, धर्मेन्द्र और यहां तक कि दिलीप कुमार की कोई औकात ही नहीं समझते।
अमिताभ को महानायक बनाने में बाज़ार और मीडिया की कितनी भूमिका है इस बारे में अध्ययन होना चाहिये अन्यथा क्या कारण है कि एक समय नकारा साबित हो चुका अभिनेता मौजूदा समय का सबसे मंहगा और सर्वाधिक प्रभावी ब्रांड में कैसे तब्दील हो गया। आज अमिताभ बच्चन जिस तरह का जीवन जी रहे हैं उसे चालू भाषा में बनियागिरी के अलावा कुछ और नहीं कहा जाता। जिस शख्स के पास अरबों रुपये की संपत्ति हो और उस पर बार-बार टैक्स चोरी, जमीन खरीदने के लिये कागजों में हेराफेरी और अन्य भ्रष्ट तरीके अपनाने के आरोप लगे तो यह साफ है कि आज वह कलाकार कम व्यापारी जयादा हैं। नि:शब्द, कभी अलविदा ना कहना और बंटी और बबली जैसी फिल्मों में वह जिस तरह की भूमिकायें कर रहे हैं उससे सिनेमा को वह कहां ले जाना चाहते हैं या युवा पीढ़ी को क्या संदेश देना चाहते हैं। साफ है कि आज अमिताभ बच्चन एंग्री यंग मैन नहीं रहा जो किसी भी तरह की बेइमानी, अत्याचार, और भ्रष्टाचार से लड़ने का संदेश देता था बल्कि आज वह खुद पैसे और शोहरत के लिये बेइमानी और भष्टाचार में डूब गया है। किसी भी कीमत पर समझौते नहीं करने का पाठ पढ़ाने वाला अभिनेता आज अपने और अपने परिवार के लिये तरह-तरह के समझौते कर रहा है।
- विनोद विप्लव
This article was published in Senior Inda (15 th June 2007)
मीडिया के जरिए विद्रूप होती संस्कृति
मीडिया के जरिए विद्रूप होती संस्कृति
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सच्चिदानंद जोशी
लोकप्रिय टीवी कार्यक्रम ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में हाल ही में एक मजेदार बात देखने को मिली। केभीसी के तीसरे संस्करण को और अधिक आधुनिक तथा युवाओं के लिए ज्यादा सहज बनाने की दृष्टि से (शायद) इसे बहुत औपचारिक तथा मित्रवत बनाया जा रहा है। इसी कारण जो खिलाड़ी खेल को भीच में छोड़कर जाना चाहता है, उसे ‘क्विट’ करने की बजाय कहना पड़ता है, ‘शाहरुख मुझे गले लगा लो ।’ जाहिर है शाहरुख के गले मिलने की चाहत अधिकांश प्रतियोगियों में होती ही होगी । कुछ दिन पूर्व नवी मुम्बई की एक शिक्षिका जब कार्यक्रम छोड़ना चाहती थी तो उसने खुशी-खुशी न सिर्फ यह कहा कि ‘शाहरुख मुझे गले लगा लो,’ बल्कि यह भी जोड़ा कि ‘यह मेरे लिए उन पच्चीस लाख रुपयों से भी ज्यादा कीमती है जो आप मुझे ईनाम में दे रहे हैं ।’ इसी एपीसोड के एक या दो दिन बाद जींद (हरियाणा) की एक शिक्षिका ने सामने भी ऐसा प्रसंग आया जब उसे कार्यक्रम छोड़कर जाना था । उसने बड़ी ही तल्खी से कहा, ‘मुझे आपसे गले मिलने का कोई शौक नहीं है, लेकिन मुझे उत्तर नहीं आता, लिहाजा मैं कार्यक्रम छोड़ना चाहूंगी ।’ उसकी तल्खी और साफगोई से शायद शाहरुख भी हक्का-बक्का रह गए और अंततः वे उस प्रतिभागी की मां से गले मिले और मां को ही पुरस्कार का चैक भेंट कर दिया ।
दोनों ही प्रतिभागी महिला थी, पेशे से शिक्षिका थीं । लेकिन दोनों की सोच और व्यवहार में जमीन-आसमान का अंतर था । यह उनकी व्यक्तिगत रुचि, अभिरुचि का अंतर हो सकता है । लेकिन इस बात से इंकार करना उनका शायद मुश्किल होगा कि इस अंतर का एक प्रमुख कारण उनका वह परिवेश भी रहा होगा जहां से वे आईं थीं । विकसित राज्य के महानगरीय परिवेश और विकासशील राज्य के कस्बाई परिवेश में काफी अंतर है । यह अंतर वहां के रहन-सहन से लेकर विचारों तक में है । यही कारण है कि जहां नवी मुम्बई की एक शिक्षिका को शाहरुख से कैमरे और लाखों करोड़ों दर्शकों के सामने गले मिलना गर्व और सौभाग्य की बात लगती है, वहीं जींद की एक शिक्षिका को गले मिलने की बजाय दूर से नमस्कार करना अच्छा लगता है । हमारे देश के अधिकांश महानगरों और कस्बों में अभिवादन के सामान्य सांस्कृतिक प्रकारों में ऐसे गले मिलना शुमार नहीं है । वह तो हमारे मीडिया की ही कृपा है जो हमारा सामना ऐसे अभिवादन प्रकारों से हो रहा है ।
यह वाकया हमें यह सोचने पर मजबूर कर देता है कि हम मीडिया के जरिए कौन सी संस्कृति के जरिए कौन सी संस्कृति हमारे दर्शकों या पाठकों तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं । वह जो हमारे यहां वर्षों से परंपरा के साथ चली आ रही है या फिर वह जो धीरे-धीरे उपभोक्तावाद तथा बाजारवाद के साथ हमारे देश में प्रवेश करती चली आ रही है ।
एक और कार्यक्रम का उदाहरण शायद बाद और ज्यादा स्पष्ट करेगा । टेलीविजन के कई चैनल्स पर ‘गृहमंत्री’, ‘होम मिनिस्टर’, या ‘गृहलक्ष्मी’ जैसे नामों से एक कार्यक्रम आता है, जिसमें गृहिणियों के लिए छोटी-छोटी प्रतियोगिताएं आयोजित कर कार्यक्रम के अंत में उन्हें पुरस्कार दिए जाते हैं । मराठी में ‘होममिनिस्टर’ नाम से आने वाले इस कार्यक्रम में विजेता को ‘पैठनी’ साड़ी जो काफी महंगी होती है, दी जाती है । अंत में विजेता गृहिणी उसे पहनकर लोगों की बधाइयां स्वीकार करती है और टाईटल रोल चलता है । इन बधाइयों में वह अपने पति की बधाई स्वीकार करती है, वह भी उससे हस्तांदोलन (शैक हैण्ड) करके । जो महिलाएं इस कार्यक्रम में भाग लेती हैं वे जाहिर हैं निम्न मध्यम वर्ग या अधिकतम मध्यम वर्ग की होती हैं, जिनके लिए ‘पैठनी’ साड़ी खरीदकर पहनना भी एक स्वप्न ही होता है । ऐसे घरों में महिलाओं द्वारा हस्तांदोलन किए जाने की परंपरा शायद नहीं है और अपने से तो निश्चित ही नहीं । ऐसे में उनका अपने पति से किया जा रहा निर्जीव हस्तांदोलन बहुत अवास्तविक और हास्यास्पद लगता है । जाहिर है कि वह हमारी संस्कृति का मूल हिस्सा नहीं है । वह हमारे ऊपर लादी गई या हमारे ऊपर चिपकाई गई या हमारे द्वारा नकल की जा रही संस्कृति का हिस्सा है। यह वह संस्कृति है, जो बाजार के दबाव में पश्चिम से आयातित है और हमारे आधुनिक होने के स्वांग को ऊपरी तौर पर तुष्ट करती है ।
हम लोग टेलीविजन पर बड़े-बड़े सितारों से सज्जित अवार्डस कार्यक्रम देखते हैं । प्रायः हर बड़े चैनल, हर बड़ी पत्रिका द्वारा कोई न कोई प्रायोजक पकड़कर अवार्डस दिलवाए जाते हैं । अवार्ड तो गौण रह जाते हैं लेकिन दर्शक इसमें शामिल होने वाले सितारों उनके द्वारा अपनाई जाने वाली फैशन, उसमें होने वाले नाच-गाने के कार्यक्रम तथा कई अन्य चटखारेदार बातों का खूब मजा लेते हैं । हिन्दी या क्षेत्रीय फिल्मों के लिए दिए जाने वाले अलार्डस में अवार्ड पाने वाले अधिकांश कलाकार ऑस्कर पुरस्कारों की नकल करते हुए अंग्रेजी में अपने अवार्ड के लिए अलग-अलग व्यक्तियों को धन्यवाद देते हैं और अवार्ड देने वाले तथा कार्यक्रम को एंकर करने वाले व्यक्तियों के गालों को चूमकर गले मिलकर चले जाते हैं । हमारे भारतीय संस्कारों में अभिवादन की शैली में गालों को चूमना या गालों को रगड़ना या लिपटकर गले मिलना शामिल नहीं है । खासकर उस वर्ग में तो बिल्कुल नहीं है जिसका बहुत बड़ा हिस्सा टेलीविजन का दर्शक है । लेकिन मीडिया से प्रेरणा लेकर उस वर्ग में अब यही शैली अपनाने का प्रचलन बढ़ा है । एक बार एक ऐसी पार्टी में जाने का अवसर मिला जिसके आयोजक स्वयं को मध्यम वर्ग से उच्च वर्ग में स्थापित करने की छटपटाहट में दिख रहे थे । लिहाजा वे दोनों हर आगंतुक से गले मिलकर उनके गाल चूमकर अभिवादन करना चाहते थे और इसमें वे स्त्री-पुरुष जैसा कोई भेद नहीं रखना चाहते थे । लेकिन चूंकि आमंत्रितों में अधिकांश अभी भी मध्यम वर्ग में ही थे और उसी में बने रहना चाहते थे, उन्हें अभिवादन का यह तरीका पसंद नहीं आया । एक अधेड़ महिला ने तो यहां तक कह दिया, ‘अरी बहु, बड़ी हूं तुमसे, पैर छू मेरे, ये क्या गले मिल रही है ।’ पार्टी के आखिर में आयोजक ने निश्चित ही ‘मिडिल क्लास मैन्टेलिटी’ को जमकर कोसा होगा ।
कहा जाता है कि मीडिया समाज का दर्पण है, जैसा समाज में घटेगा वैसा मीडिया में दिखेगा । लेकिन आज उल्टी है । आज मीडिया समाज को अभिप्रेरित और उत्प्रेरित कर रहा है । समाज का चिंतन, सोच, रहन-सहन, दैनंदिन जीवन इन सबको समंजित करने में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका है । दुख की बात यह है कि इतनी अहम भूमिका होने के बावजूद मीडिया बाजार के हाथों खेल रहा है और उपभोक्तावाद की खुली नुमाईश बनकर प्रस्तुत हो रहा है । यही कारण है कि मीडिया के जरिए हमारे सामने हमारी अपनी जड़ों से कटी हुई एक बनावटी संस्कृति पेश की जा रही है ।
प्रश्न यह है कि क्या इस तरह की बनावटी संस्कृति, जो हमारे खून में, हमारी परंपराओं में रची बसी नहीं है, ओढ़कर हम क्या किसी मुकाम पर पहुंच पाएंगे या फिर एक ऐसी अधकचरी संस्कृति का विकास करेंगे जो न हमें घर का छोड़ेगी न घाट का । ऐसी ही एक मजेदार बात याद करके हंसी आती है । एक मित्र के यहां उनके बेटे के जन्मदिन की पार्टी थी । अवसर चाहे बेटे के जन्मदिन का हो, मित्र अपनी आधुनिकता का प्रदर्शन करने से जरा भी नहीं चूकना चाहते थे । इसलिए पार्टी में सारे इंतजाम थे । डीजे था, आधुनिक खेल थे, कुछ एडल्ट गेम भी थे । यहां तक कि शौकिनों के लिए ‘अलग’ से भी इंतजाम था । पार्टी शबाब पर पहुंचने के बाद केक काटा गया और ‘हैप्पी बर्थ डे’ का गीत गाया गया । उसके तुरंत बाद वहां एक बड़े से डोंगे में गोल-गोल पकौडे़नुमा चीज लाई गई थी । बर्थ डे ब्वाय को कुर्सी पर बैठाकर उनके ऊपर से वे पकौड़े जिन्हें ‘गुलगुले’ कहा गया न्यौछावर किए गए । उस आधुनिकता में ‘गुलगुले’ कहीं फिट होते दिखाई नहीं पड़ रहे थे । पता चला कि बेटा पूरे खानदान का इकलौता लड़का है, लिहाजा पुराने रस्मों रिवाज को निभाने की अम्माजी यानी मित्र की माता जी की सख्त ताकीद थी । एक तरफ ‘आधुनिकता’ के नाम से ‘अलग’ से इंतजाम और दूसरी तरफ ‘इकलौते लड़के’ के नाम से ‘गुलगुले’ के जरिए परंपराओं की दस्तक । कहां मेल बैठा पाएंगे हम इन सबका । मन हो रहा था पूछने का कि क्या ‘अलग’ से पीने पिलाने का इंतजाम करने की भी ताकीद अम्माजी ने ही दी है ।
आधुनिकता को परंपरा के साथ मिलाकर प्रस्तुत करने की जो भोंडी कोशिश हमारे माध्यमों के जरिए हो रही है, उस पर गंभीरता से विचार करने का समय आ गया है । हम शालीनता और संस्कारों की सीमाएं लांघते जा रहे हैं । हमारी मान्यताओं, परंपराओं और संस्कृति पर निरंतर आधुनिकता, बाजार और उपभोक्तावाद के नाम पर आक्रमण होते जा रहे हैं । भीच का रास्ता निकलता परंपरा और आधुनिकता का मिलाजुला एक विद्रूप चेहरा सामने आ रहा है । टीवी पर इन दिनों चल रहे एक मोबाइल फोन के विज्ञापन में, जिसमें नवविवाहिता जोड़ा मोबाइल फोल को लेकर छीना-झपटी कर रहा है, मिश्रित संस्कृति का वह भोंडा चेहरा बखूभी देखा जा सकता है । वर्षों पहले ‘रुक्मिणी-रुक्मिणी’ गाने को अश्लील करार देने वाले हमारे समाज को अपरिहार्यता में ऐसे विज्ञापन भी देखने पड़ रहे हैं, जो दुर्भाग्यशाली, चिंताजनक और भविष्य के लिए विनाशकारी है । संस्कृति पर यह आक्रमण किसी भी बड़े आतंकवादी खतरे से भी कहीं ज्यादा खतरनाक है और उसे रोका जाना चाहिए ।
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(सच्चिदानंद जोशी - माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के संस्थापक कुलसचिव रहे, इन दिनों रायपुर स्थित कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विवि में कुलपति हैं । संपर्क -ठाकरे विश्वविद्यालय कोटा स्टेडियम, रायपुर, छत्तीसगढ़)
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सच्चिदानंद जोशी
लोकप्रिय टीवी कार्यक्रम ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में हाल ही में एक मजेदार बात देखने को मिली। केभीसी के तीसरे संस्करण को और अधिक आधुनिक तथा युवाओं के लिए ज्यादा सहज बनाने की दृष्टि से (शायद) इसे बहुत औपचारिक तथा मित्रवत बनाया जा रहा है। इसी कारण जो खिलाड़ी खेल को भीच में छोड़कर जाना चाहता है, उसे ‘क्विट’ करने की बजाय कहना पड़ता है, ‘शाहरुख मुझे गले लगा लो ।’ जाहिर है शाहरुख के गले मिलने की चाहत अधिकांश प्रतियोगियों में होती ही होगी । कुछ दिन पूर्व नवी मुम्बई की एक शिक्षिका जब कार्यक्रम छोड़ना चाहती थी तो उसने खुशी-खुशी न सिर्फ यह कहा कि ‘शाहरुख मुझे गले लगा लो,’ बल्कि यह भी जोड़ा कि ‘यह मेरे लिए उन पच्चीस लाख रुपयों से भी ज्यादा कीमती है जो आप मुझे ईनाम में दे रहे हैं ।’ इसी एपीसोड के एक या दो दिन बाद जींद (हरियाणा) की एक शिक्षिका ने सामने भी ऐसा प्रसंग आया जब उसे कार्यक्रम छोड़कर जाना था । उसने बड़ी ही तल्खी से कहा, ‘मुझे आपसे गले मिलने का कोई शौक नहीं है, लेकिन मुझे उत्तर नहीं आता, लिहाजा मैं कार्यक्रम छोड़ना चाहूंगी ।’ उसकी तल्खी और साफगोई से शायद शाहरुख भी हक्का-बक्का रह गए और अंततः वे उस प्रतिभागी की मां से गले मिले और मां को ही पुरस्कार का चैक भेंट कर दिया ।
दोनों ही प्रतिभागी महिला थी, पेशे से शिक्षिका थीं । लेकिन दोनों की सोच और व्यवहार में जमीन-आसमान का अंतर था । यह उनकी व्यक्तिगत रुचि, अभिरुचि का अंतर हो सकता है । लेकिन इस बात से इंकार करना उनका शायद मुश्किल होगा कि इस अंतर का एक प्रमुख कारण उनका वह परिवेश भी रहा होगा जहां से वे आईं थीं । विकसित राज्य के महानगरीय परिवेश और विकासशील राज्य के कस्बाई परिवेश में काफी अंतर है । यह अंतर वहां के रहन-सहन से लेकर विचारों तक में है । यही कारण है कि जहां नवी मुम्बई की एक शिक्षिका को शाहरुख से कैमरे और लाखों करोड़ों दर्शकों के सामने गले मिलना गर्व और सौभाग्य की बात लगती है, वहीं जींद की एक शिक्षिका को गले मिलने की बजाय दूर से नमस्कार करना अच्छा लगता है । हमारे देश के अधिकांश महानगरों और कस्बों में अभिवादन के सामान्य सांस्कृतिक प्रकारों में ऐसे गले मिलना शुमार नहीं है । वह तो हमारे मीडिया की ही कृपा है जो हमारा सामना ऐसे अभिवादन प्रकारों से हो रहा है ।
यह वाकया हमें यह सोचने पर मजबूर कर देता है कि हम मीडिया के जरिए कौन सी संस्कृति के जरिए कौन सी संस्कृति हमारे दर्शकों या पाठकों तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं । वह जो हमारे यहां वर्षों से परंपरा के साथ चली आ रही है या फिर वह जो धीरे-धीरे उपभोक्तावाद तथा बाजारवाद के साथ हमारे देश में प्रवेश करती चली आ रही है ।
एक और कार्यक्रम का उदाहरण शायद बाद और ज्यादा स्पष्ट करेगा । टेलीविजन के कई चैनल्स पर ‘गृहमंत्री’, ‘होम मिनिस्टर’, या ‘गृहलक्ष्मी’ जैसे नामों से एक कार्यक्रम आता है, जिसमें गृहिणियों के लिए छोटी-छोटी प्रतियोगिताएं आयोजित कर कार्यक्रम के अंत में उन्हें पुरस्कार दिए जाते हैं । मराठी में ‘होममिनिस्टर’ नाम से आने वाले इस कार्यक्रम में विजेता को ‘पैठनी’ साड़ी जो काफी महंगी होती है, दी जाती है । अंत में विजेता गृहिणी उसे पहनकर लोगों की बधाइयां स्वीकार करती है और टाईटल रोल चलता है । इन बधाइयों में वह अपने पति की बधाई स्वीकार करती है, वह भी उससे हस्तांदोलन (शैक हैण्ड) करके । जो महिलाएं इस कार्यक्रम में भाग लेती हैं वे जाहिर हैं निम्न मध्यम वर्ग या अधिकतम मध्यम वर्ग की होती हैं, जिनके लिए ‘पैठनी’ साड़ी खरीदकर पहनना भी एक स्वप्न ही होता है । ऐसे घरों में महिलाओं द्वारा हस्तांदोलन किए जाने की परंपरा शायद नहीं है और अपने से तो निश्चित ही नहीं । ऐसे में उनका अपने पति से किया जा रहा निर्जीव हस्तांदोलन बहुत अवास्तविक और हास्यास्पद लगता है । जाहिर है कि वह हमारी संस्कृति का मूल हिस्सा नहीं है । वह हमारे ऊपर लादी गई या हमारे ऊपर चिपकाई गई या हमारे द्वारा नकल की जा रही संस्कृति का हिस्सा है। यह वह संस्कृति है, जो बाजार के दबाव में पश्चिम से आयातित है और हमारे आधुनिक होने के स्वांग को ऊपरी तौर पर तुष्ट करती है ।
हम लोग टेलीविजन पर बड़े-बड़े सितारों से सज्जित अवार्डस कार्यक्रम देखते हैं । प्रायः हर बड़े चैनल, हर बड़ी पत्रिका द्वारा कोई न कोई प्रायोजक पकड़कर अवार्डस दिलवाए जाते हैं । अवार्ड तो गौण रह जाते हैं लेकिन दर्शक इसमें शामिल होने वाले सितारों उनके द्वारा अपनाई जाने वाली फैशन, उसमें होने वाले नाच-गाने के कार्यक्रम तथा कई अन्य चटखारेदार बातों का खूब मजा लेते हैं । हिन्दी या क्षेत्रीय फिल्मों के लिए दिए जाने वाले अलार्डस में अवार्ड पाने वाले अधिकांश कलाकार ऑस्कर पुरस्कारों की नकल करते हुए अंग्रेजी में अपने अवार्ड के लिए अलग-अलग व्यक्तियों को धन्यवाद देते हैं और अवार्ड देने वाले तथा कार्यक्रम को एंकर करने वाले व्यक्तियों के गालों को चूमकर गले मिलकर चले जाते हैं । हमारे भारतीय संस्कारों में अभिवादन की शैली में गालों को चूमना या गालों को रगड़ना या लिपटकर गले मिलना शामिल नहीं है । खासकर उस वर्ग में तो बिल्कुल नहीं है जिसका बहुत बड़ा हिस्सा टेलीविजन का दर्शक है । लेकिन मीडिया से प्रेरणा लेकर उस वर्ग में अब यही शैली अपनाने का प्रचलन बढ़ा है । एक बार एक ऐसी पार्टी में जाने का अवसर मिला जिसके आयोजक स्वयं को मध्यम वर्ग से उच्च वर्ग में स्थापित करने की छटपटाहट में दिख रहे थे । लिहाजा वे दोनों हर आगंतुक से गले मिलकर उनके गाल चूमकर अभिवादन करना चाहते थे और इसमें वे स्त्री-पुरुष जैसा कोई भेद नहीं रखना चाहते थे । लेकिन चूंकि आमंत्रितों में अधिकांश अभी भी मध्यम वर्ग में ही थे और उसी में बने रहना चाहते थे, उन्हें अभिवादन का यह तरीका पसंद नहीं आया । एक अधेड़ महिला ने तो यहां तक कह दिया, ‘अरी बहु, बड़ी हूं तुमसे, पैर छू मेरे, ये क्या गले मिल रही है ।’ पार्टी के आखिर में आयोजक ने निश्चित ही ‘मिडिल क्लास मैन्टेलिटी’ को जमकर कोसा होगा ।
कहा जाता है कि मीडिया समाज का दर्पण है, जैसा समाज में घटेगा वैसा मीडिया में दिखेगा । लेकिन आज उल्टी है । आज मीडिया समाज को अभिप्रेरित और उत्प्रेरित कर रहा है । समाज का चिंतन, सोच, रहन-सहन, दैनंदिन जीवन इन सबको समंजित करने में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका है । दुख की बात यह है कि इतनी अहम भूमिका होने के बावजूद मीडिया बाजार के हाथों खेल रहा है और उपभोक्तावाद की खुली नुमाईश बनकर प्रस्तुत हो रहा है । यही कारण है कि मीडिया के जरिए हमारे सामने हमारी अपनी जड़ों से कटी हुई एक बनावटी संस्कृति पेश की जा रही है ।
प्रश्न यह है कि क्या इस तरह की बनावटी संस्कृति, जो हमारे खून में, हमारी परंपराओं में रची बसी नहीं है, ओढ़कर हम क्या किसी मुकाम पर पहुंच पाएंगे या फिर एक ऐसी अधकचरी संस्कृति का विकास करेंगे जो न हमें घर का छोड़ेगी न घाट का । ऐसी ही एक मजेदार बात याद करके हंसी आती है । एक मित्र के यहां उनके बेटे के जन्मदिन की पार्टी थी । अवसर चाहे बेटे के जन्मदिन का हो, मित्र अपनी आधुनिकता का प्रदर्शन करने से जरा भी नहीं चूकना चाहते थे । इसलिए पार्टी में सारे इंतजाम थे । डीजे था, आधुनिक खेल थे, कुछ एडल्ट गेम भी थे । यहां तक कि शौकिनों के लिए ‘अलग’ से भी इंतजाम था । पार्टी शबाब पर पहुंचने के बाद केक काटा गया और ‘हैप्पी बर्थ डे’ का गीत गाया गया । उसके तुरंत बाद वहां एक बड़े से डोंगे में गोल-गोल पकौडे़नुमा चीज लाई गई थी । बर्थ डे ब्वाय को कुर्सी पर बैठाकर उनके ऊपर से वे पकौड़े जिन्हें ‘गुलगुले’ कहा गया न्यौछावर किए गए । उस आधुनिकता में ‘गुलगुले’ कहीं फिट होते दिखाई नहीं पड़ रहे थे । पता चला कि बेटा पूरे खानदान का इकलौता लड़का है, लिहाजा पुराने रस्मों रिवाज को निभाने की अम्माजी यानी मित्र की माता जी की सख्त ताकीद थी । एक तरफ ‘आधुनिकता’ के नाम से ‘अलग’ से इंतजाम और दूसरी तरफ ‘इकलौते लड़के’ के नाम से ‘गुलगुले’ के जरिए परंपराओं की दस्तक । कहां मेल बैठा पाएंगे हम इन सबका । मन हो रहा था पूछने का कि क्या ‘अलग’ से पीने पिलाने का इंतजाम करने की भी ताकीद अम्माजी ने ही दी है ।
आधुनिकता को परंपरा के साथ मिलाकर प्रस्तुत करने की जो भोंडी कोशिश हमारे माध्यमों के जरिए हो रही है, उस पर गंभीरता से विचार करने का समय आ गया है । हम शालीनता और संस्कारों की सीमाएं लांघते जा रहे हैं । हमारी मान्यताओं, परंपराओं और संस्कृति पर निरंतर आधुनिकता, बाजार और उपभोक्तावाद के नाम पर आक्रमण होते जा रहे हैं । भीच का रास्ता निकलता परंपरा और आधुनिकता का मिलाजुला एक विद्रूप चेहरा सामने आ रहा है । टीवी पर इन दिनों चल रहे एक मोबाइल फोन के विज्ञापन में, जिसमें नवविवाहिता जोड़ा मोबाइल फोल को लेकर छीना-झपटी कर रहा है, मिश्रित संस्कृति का वह भोंडा चेहरा बखूभी देखा जा सकता है । वर्षों पहले ‘रुक्मिणी-रुक्मिणी’ गाने को अश्लील करार देने वाले हमारे समाज को अपरिहार्यता में ऐसे विज्ञापन भी देखने पड़ रहे हैं, जो दुर्भाग्यशाली, चिंताजनक और भविष्य के लिए विनाशकारी है । संस्कृति पर यह आक्रमण किसी भी बड़े आतंकवादी खतरे से भी कहीं ज्यादा खतरनाक है और उसे रोका जाना चाहिए ।
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This article has been published in the latest issue of Media Vimarsh,। published from Indore.
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