यूएनआई टेलीविजन का उद्घाटन



यूएनआई टेलीविजन का उद्घाटन के दौरान लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार का आह्वान

समाज को बेहतर बनाने में मीडिया अपनी भूमिका निभाये

नयी दिल्ली। लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने मीडिया से समाज को बेहतर बनाने में अपना योगदान देने का आह्वान करते हुये इस बात पर खेद व्यक्त किया कि आज मीडिया की प्राथमिकता सनसनीखेज खबरों में ही हो गयी और राष्ट्र हित में इस प्रवृति को तत्काल दूर किया जाना चाहिये।

श्रीमती मीरा कुमार ने यहां शनिवार को यूनाइटेड न्यूज आफ इंडिया (यूएनआई) की टेलीविजन सेवा - यूएनआई टेलीविजन का उद्घाटन करते हुये उम्मीद जतायी कि यूएनआई टेलीविजन आने वाले समय में देश के विकास और समाज की बेहतरी में अमूल्य योगदान देगा।
लोकसभा अध्यक्ष ने कहा कि कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के साथ-साथ लोकतंत्र के चैथे स्तम्भ मीडिया को भी समाज को हर दृष्टि से बेहतर बनाने में अपना हर संभव योगदान देना चाहिये और इस मामले में किसी तरह का समझौता नहीं होना चाहिये।
इस मौके पर मध्य प्रदेश के राज्यपाल रामेश्वर ठाकुर, केन्द्रीय इस्पात मंत्री वीरभद्र सिंह, कांग्रेस महासचिव जर्नादन द्विवेदी, राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष अजीत सिंह, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सत्यव्रत चतुर्वेदी और श्री मोतीलाल वोरा, जनता दल (यूनाइटेड) के अध्यक्ष शरद यादव तथा भारतीय जनता पार्टी के नेता रविशंकर प्रसाद सहित राजनीति एवं सामाजिक क्षेत्र की अनेक जानी-मानी हस्तियां मौजूद थीं।
श्रीमती मीरा कुमार ने कहा, ‘‘आज देखा यह जा रहा है कि संसद की कवरेज के दौरान ज्यादातर समाचार चैनल एवं समाचार पत्र संसद में होने वाले शोर-शराबे, हंगामे, बर्हिगमन और नारेबाजी को ही प्रमुखता देते हैं जबकि संसद में होने वाले महत्वपूर्ण विचार-विमर्श एवं संसद में पारित होने वाले विधेयकों को दरकिनार कर देते हैं। ’’
उन्होंने कहा कि अगर मीडिया संसद में उठने वाले महत्वपूर्ण मुद्दों तथा उन पर होने वाली बहस पर अधिक ध्यान दे तो यह समाज के लिये फायदेमंद हो सकता है।
श्रीमती मीरा कुमार ने कहा कि देश में 1961 में स्थापित यूएनआई ने अपने 48 वर्ष के सफर में मीडिया जगत में खास पहचान बनायी है और उसने देश के दूरदराज के इलाकों से प्रकाशित होने वाले लघु समाचार पत्रों के अलावा विश्व के कई देशों के मीडिया संस्थानों को सकारात्मक समाचारों को प्रमुखता के साथ संप्रेषित किया है।
उन्होंने कहा कि यूएनआई को देश की पहली ऐसी समाचार एजेंसी होने का भी गौरव प्राप्त है जिसने वित्तीय, शेयर बाजार और राष्ट्रीय स्तर के फोटोग्राफों और ग्राफिक्स के साथ-साथ विज्ञान एवं स्वास्थ्य के क्षेत्र की जनहित की खबरों के प्रेषण में महारत दिखाई है।
इस मौके पर राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल, प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह, केन्द्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत समेत विभिन्न मंत्रियों एवं नेताओं ने अपने बधाई संदेशों में यूएनआई टेलीविजन की सफलता की कामना करते हुये कहा कि यह सेवा इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के क्षेत्र में अपनी विशिष्ट पहचान बनायेगा।
इस मौके पर श्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि मीडिया के लिये टीआरपी के बजाय आम आदमी का दर्द ज्यादा महत्वपूर्ण होना चाहिये। उन्होंने कहा कि आज सोचना होगा कि मीडिया पूरी तरह से व्यापार में तब्दील हो जाये या उसका कोई सामाजिक सरोकार भी बचा रहे।
श्री शरद यादव ने सरकार से मीडिया पर निगरानी रखने के लिये कोई तंत्र विकसित करने की पहल करने की सलाह देते हुये कहा कि अगर ऐसा नहीं किया गया तो मीडिया को मिली मौजूदा आजादी लोकतंत्र को ही खा जायेगी। उन्होंने कहा कि आज समाचार चैनलों में समाचार कम और अश्लीलता एवं मनोरंजन ज्यादा है।

यूएनआई टेलीविजन
यूएनआई की टेलीविजन सेवा देश-विदेश में फैले अपने विशाल नेटवर्क और मंजे हुए पत्रकारों की बदौलत टेलीविजन चैनलों एवं अन्य इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों को ताजे समाचारों एवं विश्लेषणों की आडियो वीडियो क्लिपिंग उपलब्ध करायेगी।
इस सेवा के जरिये टेलीविजन चैनलों को राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की सही एवं संतुलित खबरों की कमी दूर होगी। यूएनआई के महाप्रबंधक एवं प्रधान संपादक अरुण कुमार भंडारी ने राष्ट्रीय हितों की कसौटी पर खरा उतरने वाली कवरेज के जरिये यूएनआई जिम्मेदार पत्रकारिता की सर्वोच्च परम्परा एवं आदर्शों को कायम रखेगी। हमारा उद्देश्य केवल मुनाफा कमाना नहीं है बल्कि देश की संस्कृति विविधता एवं उसकी संभावनाओं को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उजागर करना है।
देश में एजेंसी पत्रकारिता के क्षेत्र में एकाधिकार को समाप्त करने और स्वस्थ प्रतिद्वंदिता के साथ पक्षपात रहित समाचार कवरेज के पांच दशकों के इतिहास को कायम रखने वाली यूएनआई देश और विदेश में फैले अपने नेटवर्क के बूते पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को विभिन्न घटनाओं का अचूक और त्वरित कवरेज आधुनिक स्टूडियो और अत्याधुनिक तकनीक के जरिए मुहैया कराएगा और इसके जरिए प्रतिदिन 40 वीडियो और आडियो क्लिप सभी प्रमुख राष्ट्रीय तथा अंतराष्ट्रीय घटनाक्रमों को कवर करते हुए उपलब्ध कराई जाएगी। इनमें अंतर्राष्ट्रीय खबरों से जुड़े पैकेज के अलावा, कारोबार, खेल, मनोरंजन और स्टाक मार्केट आदि से जुड़े समाचार भी शामिल होंगे। यूएनआई टेलीविजन के जरिए देश के विभिन्न हिस्सों से सकारात्मक फीचर रिपोर्टों की विशेष श्रृंखला भी आरंभ की जाएगी। इसका उद्देश्य राष्ट्रीय स्तर पर सरकारी और निजी क्षेत्रों में होने वाली विकास गतिविधियों से जुड़ी सूचनाओं को प्रमुखता देना है।
श्री भंडारी ने कहा कि हमारा जोर दूरदराज के उपेक्षित ग्रामीण और आदिवासी बहुल इलाकों पर होगी, जिनकी दुनिया से जुड़े समाचार खास खबरें जनरुचि के समाचार और विशेष समाचार अभी तक समाचार चैनलों के दरवाजे पर दस्तक नहीं दे पाए हैं। उन्होंने कहा कि वैश्विक मंदी और कठिनाई के इस दौर में श्यूएनआई टीवीश् की यह सेवा टेलीविजन न्यूज चैनलों के लिए आर्थिक बचत का एक बड़ा जरिया साबित होगी क्योंकि वर्तमान में दूर दराज के इलाकों तक अपना नेटवर्क कायम रखना उनके लिए काफी खर्चीला सौदा साबित होता है।

यूएनआई
गौरतलब है कि यूएनआई वर्तमान में एक हजार से अधिक ग्राहकों को अपनी सेवाएं उपलब्ध करा रही है और दुनिया के प्रमुख शहरों में उसके प्रतिनिधि हैं। यूएनआई का विदेशी न्यूज एजेंसियों के साथ खबरों के आदान प्रदान का समझौता है और इसकी सेवाएं अंग्रेजी और उर्दू में हैं। इसकी दो वेबसाइटों को पूरी दुनिया में आम व्यक्ति के साथ-साथ नीति निर्धारकों द्वारा भी देखा जाता है। एजेंसी की ग्राफिक्स और फोटो सेवा भी है। यूएनआई ने छोटे और मझोले समाचार पत्रों के लिए यूएनआई.नेट सेवा आरंभ की है और वित्तीय तथा संदर्भ, बैकग्राउंडर सेवा को नए कलेवर में पेश किया है।

यूएनआई टेलीविजन का उद्घाटन



यूएनआई टेलीविजन का उद्घाटन के दौरान लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार का आह्वान

समाज को बेहतर बनाने में मीडिया अपनी भूमिका निभाये

नयी दिल्ली। लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने मीडिया से समाज को बेहतर बनाने में अपना योगदान देने का आह्वान करते हुये इस बात पर खेद व्यक्त किया कि आज मीडिया की प्राथमिकता सनसनीखेज खबरों में ही हो गयी और राष्ट्र हित में इस प्रवृति को तत्काल दूर किया जाना चाहिये।
श्रीमती मीरा कुमार ने यहां शनिवार को यूनाइटेड न्यूज आफ इंडिया (यूएनआई) की टेलीविजन सेवा - यूएनआई टेलीविजन का उद्घाटन करते हुये उम्मीद जतायी कि यूएनआई टेलीविजन आने वाले समय में देश के विकास और समाज की बेहतरी में अमूल्य योगदान देगा।
लोकसभा अध्यक्ष ने कहा कि कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के साथ-साथ लोकतंत्र के चैथे स्तम्भ मीडिया को भी समाज को हर दृष्टि से बेहतर बनाने में अपना हर संभव योगदान देना चाहिये और इस मामले में किसी तरह का समझौता नहीं होना चाहिये।
इस मौके पर मध्य प्रदेश के राज्यपाल रामेश्वर ठाकुर, केन्द्रीय इस्पात मंत्री वीरभद्र सिंह, कांग्रेस महासचिव जर्नादन द्विवेदी, राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष अजीत सिंह, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सत्यव्रत चतुर्वेदी और श्री मोतीलाल वोरा, जनता दल (यूनाइटेड) के अध्यक्ष शरद यादव तथा भारतीय जनता पार्टी के नेता रविशंकर प्रसाद सहित राजनीति एवं सामाजिक क्षेत्र की अनेक जानी-मानी हस्तियां मौजूद थीं।
श्रीमती मीरा कुमार ने कहा, ‘‘आज देखा यह जा रहा है कि संसद की कवरेज के दौरान ज्यादातर समाचार चैनल एवं समाचार पत्र संसद में होने वाले शोर-शराबे, हंगामे, बर्हिगमन और नारेबाजी को ही प्रमुखता देते हैं जबकि संसद में होने वाले महत्वपूर्ण विचार-विमर्श एवं संसद में पारित होने वाले विधेयकों को दरकिनार कर देते हैं। ’’
उन्होंने कहा कि अगर मीडिया संसद में उठने वाले महत्वपूर्ण मुद्दों तथा उन पर होने वाली बहस पर अधिक ध्यान दे तो यह समाज के लिये फायदेमंद हो सकता है।
श्रीमती मीरा कुमार ने कहा कि देश में 1961 में स्थापित यूएनआई ने अपने 48 वर्ष के सफर में मीडिया जगत में खास पहचान बनायी है और उसने देश के दूरदराज के इलाकों से प्रकाशित होने वाले लघु समाचार पत्रों के अलावा विश्व के कई देशों के मीडिया संस्थानों को सकारात्मक समाचारों को प्रमुखता के साथ संप्रेषित किया है।
उन्होंने कहा कि यूएनआई को देश की पहली ऐसी समाचार एजेंसी होने का भी गौरव प्राप्त है जिसने वित्तीय, शेयर बाजार और राष्ट्रीय स्तर के फोटोग्राफों और ग्राफिक्स के साथ-साथ विज्ञान एवं स्वास्थ्य के क्षेत्र की जनहित की खबरों के प्रेषण में महारत दिखाई है।
इस मौके पर राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल, प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह, केन्द्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत समेत विभिन्न मंत्रियों एवं नेताओं ने अपने बधाई संदेशों में यूएनआई टेलीविजन की सफलता की कामना करते हुये कहा कि यह सेवा इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के क्षेत्र में अपनी विशिष्ट पहचान बनायेगा।
इस मौके पर श्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि मीडिया के लिये टीआरपी के बजाय आम आदमी का दर्द ज्यादा महत्वपूर्ण होना चाहिये। उन्होंने कहा कि आज सोचना होगा कि मीडिया पूरी तरह से व्यापार में तब्दील हो जाये या उसका कोई सामाजिक सरोकार भी बचा रहे।
श्री शरद यादव ने सरकार से मीडिया पर निगरानी रखने के लिये कोई तंत्र विकसित करने की पहल करने की सलाह देते हुये कहा कि अगर ऐसा नहीं किया गया तो मीडिया को मिली मौजूदा आजादी लोकतंत्र को ही खा जायेगी। उन्होंने कहा कि आज समाचार चैनलों में समाचार कम और अश्लीलता एवं मनोरंजन ज्यादा है।

यूएनआई टेलीविजन
यूएनआई की टेलीविजन सेवा देश-विदेश में फैले अपने विशाल नेटवर्क और मंजे हुए पत्रकारों की बदौलत टेलीविजन चैनलों एवं अन्य इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों को ताजे समाचारों एवं विश्लेषणों की आडियो वीडियो क्लिपिंग उपलब्ध करायेगी।
इस सेवा के जरिये टेलीविजन चैनलों को राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की सही एवं संतुलित खबरों की कमी दूर होगी। यूएनआई के महाप्रबंधक एवं प्रधान संपादक अरुण कुमार भंडारी ने राष्ट्रीय हितों की कसौटी पर खरा उतरने वाली कवरेज के जरिये यूएनआई जिम्मेदार पत्रकारिता की सर्वोच्च परम्परा एवं आदर्शों को कायम रखेगी। हमारा उद्देश्य केवल मुनाफा कमाना नहीं है बल्कि देश की संस्कृति विविधता एवं उसकी संभावनाओं को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उजागर करना है।
देश में एजेंसी पत्रकारिता के क्षेत्र में एकाधिकार को समाप्त करने और स्वस्थ प्रतिद्वंदिता के साथ पक्षपात रहित समाचार कवरेज के पांच दशकों के इतिहास को कायम रखने वाली यूएनआई देश और विदेश में फैले अपने नेटवर्क के बूते पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को विभिन्न घटनाओं का अचूक और त्वरित कवरेज आधुनिक स्टूडियो और अत्याधुनिक तकनीक के जरिए मुहैया कराएगा और इसके जरिए प्रतिदिन 40 वीडियो और आडियो क्लिप सभी प्रमुख राष्ट्रीय तथा अंतराष्ट्रीय घटनाक्रमों को कवर करते हुए उपलब्ध कराई जाएगी। इनमें अंतर्राष्ट्रीय खबरों से जुड़े पैकेज के अलावा, कारोबार, खेल, मनोरंजन और स्टाक मार्केट आदि से जुड़े समाचार भी शामिल होंगे। यूएनआई टेलीविजन के जरिए देश के विभिन्न हिस्सों से सकारात्मक फीचर रिपोर्टों की विशेष श्रृंखला भी आरंभ की जाएगी। इसका उद्देश्य राष्ट्रीय स्तर पर सरकारी और निजी क्षेत्रों में होने वाली विकास गतिविधियों से जुड़ी सूचनाओं को प्रमुखता देना है।
श्री भंडारी ने कहा कि हमारा जोर दूरदराज के उपेक्षित ग्रामीण और आदिवासी बहुल इलाकों पर होगी, जिनकी दुनिया से जुड़े समाचार खास खबरें जनरुचि के समाचार और विशेष समाचार अभी तक समाचार चैनलों के दरवाजे पर दस्तक नहीं दे पाए हैं। उन्होंने कहा कि वैश्विक मंदी और कठिनाई के इस दौर में श्यूएनआई टीवीश् की यह सेवा टेलीविजन न्यूज चैनलों के लिए आर्थिक बचत का एक बड़ा जरिया साबित होगी क्योंकि वर्तमान में दूर दराज के इलाकों तक अपना नेटवर्क कायम रखना उनके लिए काफी खर्चीला सौदा साबित होता है।

यूएनआई
गौरतलब है कि यूएनआई वर्तमान में एक हजार से अधिक ग्राहकों को अपनी सेवाएं उपलब्ध करा रही है और दुनिया के प्रमुख शहरों में उसके प्रतिनिधि हैं। यूएनआई का विदेशी न्यूज एजेंसियों के साथ खबरों के आदान प्रदान का समझौता है और इसकी सेवाएं अंग्रेजी और उर्दू में हैं। इसकी दो वेबसाइटों को पूरी दुनिया में आम व्यक्ति के साथ-साथ नीति निर्धारकों द्वारा भी देखा जाता है। एजेंसी की ग्राफिक्स और फोटो सेवा भी है। यूएनआई ने छोटे और मझोले समाचार पत्रों के लिए यूएनआई.नेट सेवा आरंभ की है और वित्तीय तथा संदर्भ, बैकग्राउंडर सेवा को नए कलेवर में पेश किया है।

धर्म के नाम पर दे दे बाबा - विनोद विप्लव

भारत में आज धर्म का बोलबाला है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के चरम विकास के इस युग में हमारे देश की बहुसंख्यक जनता की सोच में धर्म और आस्था हावी होती जा रही है। कुछ समय पूर्व एक प्रमुख राष्ट्रीय साप्ताहिक समाचार पत्रिका की ओर से कराये गये सर्वेक्षण में यह तथ्य उभर कर सामने आया कि हमारे देश में लोगों का धर्म, ईश्वर और कर्मकांडों के प्रति विश्वास बढ़ा है। यहां तक कि नयी पीढ़ी खास तौर पर सूचना प्रौद्योगिकी, कम्प्यूटर, ई- काॅमर्स, मीडिया, फैशन, मार्केटिंग बीपीओ, एनपीओे और और प्रबंधन जैसे आधुनिक पेशों से जुड़े युवा वर्ग के लोगों की धर्म के प्रति आस्था और पूजा-पाठ जैसे विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों में हिस्सेदारी बढ़ी है।
विज्ञान, शिक्षा और संचार जैसे क्षेत्रों में तीव्र विकास के कारण आम लोगों के विवेक एवं मानसिक स्तर में भी विकास एवं विस्तार होना चाहिये था लेकिन आज हम देखते हैं कि हमारी मानसिक सोच दिनोंदिन और संकीर्ण होती जा रही है। हम जाति भेद, साम्प्रदायिकता, धर्म, अंधविश्वास, कर्मकांड जैसी प्रतिगामी प्रवृतियों के दलदल में फंसते जा रहे हैं। आखिर क्या कारण है कि आज जब आधुनिक विज्ञान जीवन-जगत के रहस्यों की परतों को एक के बाद एक करके उघाड़ता जा रहा है और सदियों से कायम धर्म आधारित अंधविश्वासों, कर्मकांडों, पाखंडों और भ्रांतियों के झूठ को उजागर करता जा रहा है, लोगों के मन-मस्तिष्क पर धार्मिक कर्मकांड और अंधविश्वास अधिक हावी होते जा रहे हैं। क्या ऐसा स्वतः स्फूर्त हो रहे हैं या इन सब के पीछे कोई संगठित या असंगठित साजिश चल रही है। आज शायद ही किसी शहर का कोई मोहल्ला, कस्बा या गांव हो, जहां आये दिन भजन-कीर्तन-प्रवचन के आयोजन नहीं होते हों। इन आयोजनों पर करोड़ों रुपये खर्च होते हैं। आप कहीं भी-कभी भी नजर उठाकर देख लें कोई न कोई धार्मिक आयोजन-अनुष्ठान होते अवश्य मिल जायेंगे। कहीं भगवती जागरण तो कहीं सत्संग हो रहे हैं। कहीं राम की सवारी तो कहीं शोभा यात्रा और कहीं तजिया निकल रही है। कहीं मंदिर तो कहीं मस्जिद और कहीं गुरूद्वारे बन रहे हैं। कहीं मंदिर के नाम पर तो कहीं मजिस्द के नाम पर दंगे हो रहे हैं। कभी नये धार्मिक टेलीविजन चैनल खुल रहे हैं तो कहीं किसी धार्मिक पत्रिका का लोकार्पण हो रहा है। कभी किसी सरकारी काॅलेज या अस्पताल में मंत्र चिकित्सा विभाग खोला जा रहा है तो कभी देश का कोई केन्द्रीय मंत्री गले में नाग लपेट कर आग पर चल रहा है और तंात्रिकों को सम्मानित कर रहा है और कभी कोई केन्द्रीय मंत्री तंत्र-साधना और ज्योतिष को स्कूल-काॅलेजों एवं विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में शामिल करा रहा है। आखिर इन सब के क्या निहितार्थ हैं। क्या हमारा देश पूरी तरह से धार्मिक देश बन गया है और यहां के लोग अत्यंत धार्मिक जीवन जीने लगे हैं अथवा क्या देश और यहां की जनता को धार्मिक बनाये रखने तथा यहां के लोगों को धर्म, अंधविश्वासों एवं कर्मकांडों के बंधनों से जकड़ कर रखने की सतत् कोशिश हो रही है ताकि राजनीतिज्ञों, पुजारियों, पादरियों, मौलवियों, तांत्रिकों-मांत्रिकों, ओझाओं, बाबाओं, साधु- साध्वियों और विभिन्न धार्मिक संस्थाओं की दुकानदारी बेरोकटोक चलती रहे। कहीं धार्मिकता के इस अभूतपूर्व विस्फोट के पीछे धर्म को बाजार और व्यवसाय में तब्दील करने की साजिश तो नहीं है। धर्मनिरपेक्ष कहे जाने वाले बुद्धिजीवी और राजनीतिज्ञ धर्म को राजनीति का हिस्सा बनाये जाने पर चिंता करते हुये दिखते हैं लेकिन आज देश भर में जो पूरा तामझाम चल रहा है वह दरअसल धर्म को राजनीति का हिस्सा बनाने का नहीं, बल्कि धर्म को व्यवसाय बनाने के दीर्घकालिक अभियान का हिस्सा है। जिस तरह से सौंदर्य प्रसाधन बनाने और बेचने वाली कंपनियां अपने उत्पादों के बाजार के विस्तार के लिये सौंदर्य प्रतियोगिता और फैशन परेड जैसे आयोजनों तथा प्रचार एवं विज्ञापन के तरह-तरह के हथकंडों के जरिये गरीब से गरीब देशों की अभाव में जीने वाली भोली-भाली लड़कियों के मन में भी सौंदर्य कामना एवं सौंदर्य प्रसाधनों के प्रति ललक पैदा करती है, उसी तरह से विभिन्न धार्मिक उत्पादों के व्यवसाय को बढ़ाने के लिये धार्मिक आयोजन, अंधविश्वास, अफवाह और चमत्कार जैसे तरह-तरह के उपायों के जरिये लोगों के मन में धार्मिक आस्था कायम किया जा रहा है ताकि धर्म के नाम पर व्यवसाय और भांति-भांति के धंधे किये जा सकें। यह कोशिश कितने सुनियोजित तरीके से चलती है इसका पता कुछ साल पहले गणेश की प्रतिमाओं को दूध पिलाये जाने की सुनियोजित घटना से चलता है, जब पूरे देश में ही नहीं विदेशों में भी इसकी अफवाह फैलायी गयी। इस तरह की कोशिश केवल भारत या हिन्दू धर्म में ही नहीं, हर देशों में और हर धर्मों में हो रहा है। आखिर अगर लोगों में धार्मिक आस्था नहीं बढ़ायी गयी और उनमें धर्म के प्रति भय नहीं पैदा किया गया तो कौन मंदिरों में चढ़ावे चढ़ायेगा, कौन मस्जिदों, गुरुद्वारों और चर्चों के लिये लाखों-करोड़ों रुपये का दान देगा, कौन पूजा-पाठ करायेगा, कौन सैकड़ों-हजारों रुपयों की फीस देकर नयी पीढ़ी के ज्योतिषियों से भविष्य जानेगा, धार्मिक चैनलों को कौन देखेगा, फिल्मी गानों की पैरोडी पर बनने वाले कैसेटों को कौन खरीदेगा, कौन भगवती जागरण करायेगा। अगर धार्मिकता का यह तामझाम नहीं चलता रहा तो धर्म के नाम पर राजनीति करने वालों की रोटी कैसे सिंकेगी और कैसे साधुओं, पंडितों, मौलवियांे, धर्म गुरुओं और गं्रथियों की विशाल फौज का पेट भरेगा। धर्म को व्यवसाय बनाने के अभियान में हमेशा से सरकार का समर्थन और सहयोग रहा है लेकिन केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में बनी गठबंधन सरकार ने तो इस अभियान को अपना मूल लक्ष्य बना लिया है। सभी धर्मों के उद्यमी अर्थात पुरोहित वर्ग इस बात को विरासतन साफ तौर पर जानते हैं कि उनके उद्यम अर्थात् धर्म को कोई दिव्य शक्ति न तो चला सकती है और न ही चला रही है। धर्म को वही शक्तियां चला रही हैं जो बाजार की शक्तियां हंै और जो किसी भी उद्यम को चलाती हंै। इसलिये धर्म के प्रबंधन में हम वे सभी तिकड़में देखते हैं जो बाजार के प्रबंधन में मिलती हैं, बल्कि अब तो धर्म की यह हेरा-फेरी बाजार की कुत्साओं को काफी पीछे छोड़ चुकी है। हमारे देश में हर बातों के लिये कानून है और कानून का उल्लंघन करने वालों के लिये सजा का प्रावधान है। लेकिन धर्म के नाम पर दुकानदारी चलाने वाले, अपराध करने वाले, मासूम बच्चों की बलि देने वाले, डायन बताकर विधवाओं की हत्या करने वाले, मंदिर-मस्जिद के नाम पर जमीन हड़पने वाले, टैक्स चोरी करने वाले और दंगे करने वाले इस देश के कानून से परे हैं। अगर कोई गरीब अपने बाल-बच्चों का पेट पालने के लिये कहीं कोई रेहड़ी लगा ले तो उससे पैसे वसूलने और उसे वहां से हटाने के लिये तत्काल पुलिस वाले आ धमके लेकिन मंदिर-मस्जिद बनाने के लिये जहां चाहे और जितना चाहे जमीन पर कब्जा कर लें कोई बोलने वाला नहीं है। अगर कोई वेतनभोगी किसी साल का आयकर का रिर्टन नहीं भरे तो उस पर जुर्माने का नोटिस आ जायेगा लेकिन मंदिर-मजिस्दों के नाम पर चाहे जितने धन हड़प लंे और धार्मिक संस्था बनाकर चाहे जितना मन करे टैक्सचोरी करते रहंे, पूछने वाला कोई नहीं है। चमत्कारिक एवं दैवी इलाज के नाम पर कोई चाहे जितने पैसे कमाते रहें और मरीजों को मौत के घाट उतारते रहें।, धार्मिक स्कूूल चलाकर चाहे जितनी फीस लंे और बच्चों तथा अभिभावकों को चाहे जितना लूट लें, कोई शिकायत भी नहीं करेगा। जहां दिल करे वहां रास्ता जाम कर दंे, जहां मन आये वहां दंगे करा दंे और चाहे जिसकी जान ले लें या किसी की सम्पत्ति हड़प लंे, चाहे डायन, अधार्मिक, नास्तिक बताकर हत्या कर दंे। धर्म के नाम पर सब कुछ जायज है। आज धर्म और मजहब के नाम पर अपराध, व्यवसाय और भ्रष्टाचार पहले की तुलना में अधिक तेजी एवं खुले तरीके से जारी है। पिछले दो हजार वर्षों में ईश्वर और धर्म उत्पादन में किसी भी तरह की भूमिका नहीं निभाने वाले निकम्मों, ढोंगियों, ठगों और धोखेबाजों के लिये उत्पादन में लगे कामगारों और मेहनतकशों से धन-सम्पत्ति के लूटने-खसोटने तथा विलासिता का जीवन जीने का कारगर हथियार बन गया है। आज धर्म की सौदागिरी और ठेकेदारी सबसे मुनाफे का, सबसे निरापद एवं सबसे आसान धंधा है क्योंकि इसमें न तो कोई पूंजी लगती है और न ही श्रम एवं कौशल की दरकार होती है जबकि धन-संपदा, सम्मान, प्रसिद्धि और ऐशो-आराम छप्पड़ फाड़ कर मिलते हैं। साथ ही साथ सरकार-दरबार तक आकर चरण पखारते हैं। भारत के बारे में बिना किसी हिचक के कहा जा सकता है कि धर्म इस देश का सबसे बड़ा उद्योग-व्यवसाय है जिससे लाखों लोगों की रोजी-रोटी और ऐय्याशी चलती है। जिस पर करोड़ों की पूंजी लगी है। हर वर्ष धर्म के प्रदर्शन एवं दिखावे पर हजारों करोड़ की रकम पानी की तरह बहा दी जाती है। भारत जैसे गरीब देश में धर्म के नाम पर धार्मिक उत्सवों एवं प्रवचनों पर जो फिजूलखर्ची होती है उसका कभी आकलन नहीं किया गया। यह रकम लाखों-करोड़ों में नहीं, अरबों-खरबों में है और इसका बड़ा हिस्सा देश के राजस्व बढ़ाने अथवा समाज कल्याण में नहीं, बल्कि कुछ मुठ्ठी भर पुजारियों, पंडितों एवं धर्म के नाम पर ठगी का धंधा करने वालों की विलासिता में खर्च होता है। देश में जगह-जगह होने वाले धार्मिक आयोजनों पर करोड़ों रुपये खर्च होते हैं। देश में स्कूलों और अस्पतालों से अधिक संख्या धार्मिक स्थलों की है। गरीब हिन्दुओं के पास रहने को छत नहीं है, पीने के लिये पानी नहीं है, यहां तक कि उनके लिये शौच की भी पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। लेकिन अरबों रुपये मंदिरों के निर्माण के लिये लगाये जा रहे हैं। सरकारी अस्पतालों, जन कार्यों में लगी सरकारी संस्थाओं, सरकारी स्कूलों और अनुसंधान संस्थाओं के पास पैसे की भारी तंगी है, कई राज्यों में शिक्षकों और चिकित्सकों को वेतन तक देना मुश्किल हो पा रहा है, कई स्कूलों में ब्लैकबोर्ड तक नहीं हैं, लेकिन मठों, मंदिरों, मस्जिदों, दरगाहों, मजारों, चर्चों, गुरुद्वारों की अरबों-खरबों की पूंजी है। कुछ मंदिरों में तो इतनी सम्पत्ति एवं धन है कि उससे कोई छोटे-मोटे देश का पूरा खर्च निकल सकता है। विश्व के सबसे धनाढ्य एवं संपत्तिशाली देव मंदिर अर्थात जग प्रसिद्ध तिरूपति देवस्थानम् को एक अनुमान के अनुसार हर साल करीब 50 करोड़ रुपये दान एवं चढ़ावे में मिलते हैं। आंध्र प्रदेश के इस मंदिर में प्रतिष्ठापित प्रतिमा पर करोड़ों रुपये के वस्त्राभूषण लदे रहते हैं। तिरूपति, बालाजी, सबरीमाला, मीनाक्षी और अक्षरधाम जैसे प्रसिद्ध मंदिरों में चढ़ावे के लिये न केवल देश-विदेश के बड़े-बड़े उद्योगपतियों एवं व्यावसायियों के बीच होड़ लगी रहती है, बल्कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, केन्द्रीय मंत्री और विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री पूजा अर्चना एवं चढ़ावे के लिये पहुंचते हैं। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जानकी जयललिता जैसी हस्तियां तिरूपति मंदिर में करोड़ों रूपये के सोने-चांदी और अन्य जेवरात चढ़ाते रहते हैं। कुछ समय पूर्व कि नागपुर (महाराष्ट्र) के एक प्रसिद्ध स्वर्णकार ने विश्व का सबसे महंगा माणिक रत्न (जिसका मूल्य दो हजार करोड़ रुपये के लगभग है) पत्थर के भगवान बालाजी को चढ़ाया। पंजाब में एसजीपीसी का वार्षिक बजट ही सौ करोड़ से ऊपर है। इसके द्वारा नियंत्रित कुल संपत्ति का मूल्य तो अरबों में होगा। यही वजह है कि इस पर कब्जे के लिए पंजाब के राजनीतिक दलों में भी होड़ लगी रहती है। इन मंदिरों, धार्मिक स्थलों एवं धार्मिक संस्थाओं को न केवल देश से, बल्कि विदेशों से भी भारी पैमाने पर दान मिलते हैं। गृह मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार देश के विभिन्न स्वैच्छिक एवं धार्मिक संगठनों को विदेशों से खरबों रुपये मिलते हैं जिनमें साल दर साल वृद्धि हो रही है। गृह मंत्रालय के एक नवीनतम आंकड़े के अनुसार देश के 14 हजार 598 स्वैच्छिक संगठनों तथा धार्मिक समूहों को 2000-2001 के दौरान चार खरब 53 अरब पांच करोड़ 23 लाख रुपये के विदेशी धन प्राप्त हुये। अमरीका स्थित ईसाई राहत एवं विकास संगठन वल्र्ड विजन इंटरनेशन अनेक भारतीय स्वैच्छिक संगठनों के लिये सबसे बड़ी दानदाता एजेंसी है। आंध्र प्रदेश स्थित श्री सत्य साई केन्द्रीय न्यास सबसे अधिक विदेशी धन पाने वाला संगठन है। सत्य साई न्यास को 88 करोड 18 लाख रुपये का विदेशी धन मिला। विदेशी धन पाने वालों में दूसरे स्थान पर वाॅच टाॅवर बाइबिल ट्रैक्ट सोसायटी इंडिया (महाराष्ट्र) है जिसे 74 करोड़ 88 लाख रुपये मिले। तीसरे स्थान पर केरल के गाॅस्पेल फाॅर एशिया को 58 करोड़ 10 लाख जबकि केरल के माता अमृतानंदमायी मिशन को 23 करोड़ 19 लाख रुपये मिले। विदेशी सहायता नियमन कानून 1976 के तहत धार्मिक एवं गैर-सरकारी संस्थाओं को मिलने वाले धन पर नियंत्रण रखने का प्रावधान किया गया है। इस कानून के तहत 22 हजार 924 संस्थाओं को विदेशी धन प्राप्त करने के लिये पंजीकृत किया गया है, लेकिन गृह मंत्रालय के हाल के आंकडों के अनुसार केवल 14 हजार 598 संस्थानों ने विदेशी धन प्राप्त करने के संबंध में अपने रिर्टन भरे। आयकर, संपत्ति कर आदि से छूट तथा अन्य रियायतों से भी धार्मिक संस्थाओं को काफी लाभ होता है। कानूनी रियायतों का लाभ उठाकर ये धार्मिक संस्थान न तो रिर्टन भरते हैं न कोई लेखा-जोखा देते हैं। इस कारण इस बात का अंदाजा लगाना मुश्किल होता है कि इन धार्मिक स्थलों एवं संस्थानों के पास कितनी सम्पत्ति है। कुछ सर्वाधिक संपत्तिशाली संस्थाओं पर नजर डालें तो तिरूपति तिरुमल देवस्थानम् संभवतः पहले स्थान पर होगा। इसके अलावा दक्षिण भारत में सबरीमाला मंदिर, मदुरै का मीनाक्षी मंदिर, उत्तर भारत में गोरखनाथ मंदिर, स्वर्गाश्रम ट्रस्ट, अक्षरधाम मंदिर, बोधगया का बौद्ध मठ, शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी, अजमेर में मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह, वप्फ बोर्ड तथा कई बड़े चर्चों के नाम गिनाये जा सकते हैं। ये तो मात्र कुछ उदाहरण भर हैं। धार्मिक संस्थाओं की कमाई का एक और बहुत बड़ा स्रोत है इनके परिसरों में स्थित दूकानों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों से होने वाली आय। ज्यादातर बड़े मंदिर एवं अन्य धार्मिक स्थल शहरों की प्राइम लोकेशन पर स्थित हैं और वहां श्रद्धालुओं के अलावा अन्य लोगों का भी भारी संख्या में आना-जाना लगा रहता है। पहले तो मंदिरों एवं धार्मिक स्थलों के परिसरों में प्रसाद, फूल-मालाओं एवं अन्य पूजा सामग्रियों की ही बिक्री होती थी लेकिन अब तो मांस-मदिरा छोड़कर सांसारिक भोग-विलास की हर उपभोक्ता वस्तुयें इन पूजा परिसरों में अथवा आसपास की दुकानों में मिल जायेगी। कई पूजा स्थलों से लगे भवनों में तो सौ-सौ, दो-दो सौ दुकानें और पूरे के पूरे शाॅपिंग काॅम्प्लेक्स खुल हुये हैं। हरियाणा के डेरा सच्चा सौदा जैसे आश्रमों ने तो अब खुद ही दुकानें चलानी शुरू कर दी है। आश्रम में आने वाले भक्त बारी-बारी से इनको निःशुल्क सेवायें देते हैं। कई साल पहले नई दिल्ली नगर पालिका के एक सचिव ने माता का मंदिर बनाने के लिये न्यू फं्रेडस कालोनी में जमीन एलाट करायी थी। इस जमीन पर सफेद संगमर्मर का एक विशाल मंदिर बनाया गया लेकिन अब इसका इस्तेमाल चैथा और उठाला जैसे रस्मों के लिये होता है और इसके लिये बकायदा शुल्क लिये जाते हैं। लगभग हर दिन दोपहर के बाद यहां चमचमाती गाड़ियों के कारण रास्ता जाम सा हो जाता है। यही नहीं दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) ने मंदिर के पुजारियों और श्रद्धालुओं के रहने के लिये धर्मशाला, डायग्नोस्टिक सेंटर और रिसर्च लेबोरेट्री बनाने के लिये मंदिर के बगल में अलग से जमीन आबंटित किया। कुछ साल पहले धार्मिक संस्थाओं के पास जो धन एवं जमीन-जायदाद होते थे वे निष्क्रिय पड़े रहते थे, लेकिन अब धार्मिक संस्थायें भी बड़े-बड़े कारपोरेट एवं व्यापारिक घरानों की तरह अत्यंत व्यावसायिक एवं प्रबंधकीय दक्षता के साथ सुनियोजित तरीके से उद्योग-व्यापार चला रहे हैं। ये धार्मिक संस्थायें दान में मिली सैकड़ों-हजारों एकड़ की जमीन पर आधुनिक तरीके से नगदी फसलें उगा रही हैं, डेयरी उद्योग चला रही हैं, एवं तरह-तरह की व्यावसायिक गतिविधियों में संलग्न हैं। कई संस्थायें स्कूल, काॅलेज, इंजीनियरिंग एवं प्रबंधन संस्थान आदि चला रहे हैं, जिनमें शिक्षण शुल्क अन्य व्यावसायिक शैक्षिक संस्थाओं की तरह ही बहुत अधिक होता है, लेकिन इनमें पढ़ाने वाले शिक्षकों एवं अन्य कर्मचारियों को काई वेतन नहीं दिया जाता या नाममात्र का पारिश्रमिक दिया जाता है, क्योंकि इन्हें यह कहकर बहलाया जाता है कि वे धर्म का काम कर रहे हैं। नये उभरे मठ एवं धार्मिक संस्थायें इस काम में अधिक आगे आशा राम बापू, सुधांशु महाराज, ओशो, श्री रविशंकर अैर बाबा रामदेव जैसे आधुनिक गुरूओं के पास तावीज, चूर्ण, मंजन, आयुर्वेदिक औषधियों, माला, पेन, काॅपी, किताबें, कैलंेडर, पोस्टर, स्टिकर, घड़ी, बेल्ट आदि विभिन्न प्रकार के वस्तुओं के उत्पादन एवं विपणन का एक विराट तंत्रा है। इनके उत्पादन पर बहुत कम या नाममात्र की लागत लगती है जबकि इन्हें बाजार में बहुत अधिक कीमत पर बेचा जाता है क्योंकि इनके भक्त गण धर्मसेवा के नाम पर बिना कुछ वेतन लिये कार्य करते हैं तथा श्रद्धालु भक्तिभाव के कारण इन्हें ऊंची दाम होने के बावजूद खरीदते हैं। तिरूपति तिरूमल देवस्थानम् ट्रस्ट सबसे संगठित ढंग से कारपोरेट गतिविधियां चलाता है। इस ट्रस्ट ने अनेक काॅलेज-अस्पताल आदि खुलवाये हैं जिन्हें बिल्कुल प्रोफेशनल ढंग से संचालित किया जाता है। साथ ही, यह विभिन्न कारोबारी गतिविधियों का प्रबंधन करता है। यहां तक कि तिरुपति बालाजी के मंदिर में प्रतिदिन तीन हजारों लोगों के मुंडन से गिरने वाले बालों से भी यहां कंबल, ऊनी वस्त्र जैसी वस्तुएं तैयार की जाती हैं जिनका बड़े पैमाने पर निर्यात होता है। प्रसाद को सामान्य, डीलक्स तथा सुपर डीलक्स जैसी श्रेणियों में बांटकर इसे भारी मुनाफादेह कारोबार में बदलने का काम भी सबसे पहले यहीं शुरू हुआ था। पंजाब में शिरोमणि गुरुद्वारा कमेटी की ओर से दर्जनों काॅलेज तथा वोकेशनल इंस्टीच्यूट चलते हैं। इनमें कैपिटेशन फीस सहित ऊंची फीस वसूल की जाती है। देश में छोटे-छोटे गांव-गिरांव से लेकर महानगरों तक में न जाने कितने धर्म पुरुष, महापुरुष, विविध नामों वाले बाबाओं के, गुरूओं के, महात्माओं के और संतों के शानदार आश्रम पाये जा सकते हैं जिसकी भव्यता एवं रौनक देखते बनती है। हमारे देश में 50 लाख के करीब साधु-संत, इमाम, पादरी और गं्रथी हैं जिनमें से ज्यादातर को धर्म और देश-दुनिया का क, ख, ग का भी पता नहीं है लेकिन वे लोगों को धर्म की शिक्षा देते हैं और लोगों को मूर्ख बना कर ऐश करते हैं। देश में उत्सवों-कीर्तनों, प्रवचनों और धार्मिक स्थलों के रख-रखाव और पुजारियों-पादरियों की ऐय्याशी पर वर्ष भर में जो रकम खर्च होती है, वह अगर देश के विकास पर खर्च होता तो स्कूलों-काॅलेजों और अस्पतालों का जाल बिछ जाता। हर गांव में बिजली, सड़क और पेय जल जैसी सुविधायें उपलब्ध हो गयी होती। न कोई निरक्षर रहता और न कोई इलाज के अभाव में मरता। यह आलेख मेरी शीध्र प्रकाशित होने वाली पुस्तक ‘‘धर्म का धंधा’’ से लिया गया है। इस पुस्तक का इंटरनेट संस्करण प्रकाशित हो चुका है जिसे indiaebooks.com से इसके पीडएफ फार्मेट को डाउनलोड किया जा सकता है। डाउनलोड के लिये लिंक निम्न है

कितने बड़े संगीत प्रेमी हैं हम हिंदुस्तानी

प्रसून जोशी
पिछले दिनों मैं एक म्यूजिक रिकॉर्डिंग सेशन से लौटा, खीझ से भरा हुआ। इस तरह की खीझ के जिम्मेदार हम और आप हैं। आखिर क्यों हर
प्रड्यूसर बार-बार यही कहता है कि आजकल तो साहब यही ट्यून चल रही है, बस इसी के हिसाब से बोल गढ़ दीजिए। ज्यादा शब्दों और भावों के फेर में मत पड़िए। होता यह है कि प्रड्यूसर के सामने म्यजिक डाइरेक्टर कोई धुन सुनाता है। हम उस धुन की तर्ज पर कुछ शब्द गुनगुनाने लगते हैं। फौरी तौर पर उन लाइनों को लिख दिया जाता है और इन्हें डमी लिरिक्स कहा जाता है। जब धुन और बोल फाइनल करने की बात आती है, तो बाजार का प्रेशर दिखने लगता है। आजकल तो यही ढिंचिक-ढिंचिक चल रहा है, उसी में कुछ आगा-पीछा कर लिया जाए। मुझसे अक्सर कहा जाता है कि अब आप नए शब्दों के चक्कर में मत पड़िए, वही डमी के बोल रहने दीजिए। और यह सब किसके नाम पर किया जाता है, आपके, जनता के नाम। ऐसा क्यों होता है कि नया म्यूजिक, नए ताजा बोल आपको उतने नहीं लुभाते या फिर हो सकता है कि बाजार ही आपकी चॉइस की गलत व्याख्या कर रहा है।

जब इन तमाम चीजों पर सोचने बैठता हूं तो एक बात ध्यान में आती है, जो अक्सर कही जाती है। यह बात है भारत को संगीत प्रेमी बताने की। मगर हम लोग संगीत के नाम पर कुछ फॉर्म्युलों के गुलाम बनकर रह गए हैं। जिस चीज को हम संगीत के प्रति अपनी दीवानगी या पसंद कहते हैं, वह भी कुछ यादों-कुछ बातों की बिना पर महसूस करना ही है और कुछ नहीं। नए संगीत को हम लोग कितना खुले दिल से स्वीकारते हैं।

संगीत एक ऐसा कला रूप है, जिसमें किसी कमिटमेंट की डिमांड नहीं की जाती। मसलन, कविता में किसी विचार की स्पष्टता होती है। तो आप उसे सुनकर बता सकते हैं कि भाई हमें इसका यह विचार, यह भाव पसंद आया। आपका रुझान साफ होता है। मगर म्यूजिक को लेकर यह बात नहीं है। आप उसे सुनते हैं, पसंद करते हैं, मगर साफ-साफ नहीं बता सकते कि ऐसा क्यों करते हैं।

संगीत के नाम पर फिल्मी संगीत है और दूसरी तरह का संगीत हम सुनना ही नहीं चाहते। जो लोग कहते हैं कि वे संगीत सुन रहे हैं, दरअसल वे उस संगीत के बोलों और छवियों से जुड़ी यादों को गुनते हैं। शायद सुनने वाले को कोई चेहरा, कोई पल याद आ रहा है। आपको लग रहा है कि आप संगीत पसंद कर रहे हैं, लेकिन सचाई यह है कि आप संगीत की सप्लाई कर रहे चित्र पसंद कर रहे हैं। बार-बार एक गाने को सुनना इस बात की निशानी है कि आप उस गीत संगीत से जुड़ी किसी चीज को पसंद कर रहे हैं और मैं कहना चाहता हूं कि आजकल लोग अजीब चीजें पसंद कर रहे हैं।

यह सिर्फ एक मुगालता है कि हम संगीत प्रेमी हैं। हमारे यहां संगीत के क्षेत्र में प्रयोगों का नितांत अभाव है। दूसरे देशों में रॉक, जैज और ब्लूज जैसा म्यूजिक पनपा है। मसलन, ब्लूज ब्लैक कम्युनिटी का म्यूजिक था। उसमें गुलामी का दर्द था, जो रात को थके मजदूर की आह में व्यक्त होता था। वेस्टर्न वर्ल्ड में इसे काफी सफल माना गया। हमारी बात की जाए तो हमने क्या इस तरह की कोई अभिरुचि रखी है कि तमाम किस्मों का संगीत पनपे? ऐसा नहीं है और इसी वजह से हमारे संगीत में नए के नाम पर बहुत कुछ नहीं है।

हमारे यहां यह सोचनीय स्थिति है कि फिल्मों के अलावा कोई संगीत बिकता नहीं है। चाहे गजल हो या ठुमरी, इनसे जुड़ा फनकार फिल्म की तरफ आना चाहता है। गजलें वही बड़ी हुईं जो फिल्मों में आ गईं। हमारे अंदर एक ही तरह का टेस्ट है और बाकी कुछ नहीं। लोग एक कलाकार की नकल कर संगीत साधना की बात करते हैं। मुकेश और किशोर की कॉपी कर संगीत प्रेमी खुश हो गए। क्यों, क्योंकि हम संगीत को नहीं, उससे जुड़ी चीजों को पसंद करते हैं, जिन्हें शायद हम जानते नहीं। पहले से फैसला कर लेते हैं कि आज मैं दर्द भरा गाना सुनना चाहता हूं। अपने जेहन में खांचे बना रखे हैं जिनके हिसाब से एप्रीशिएट करते हैं। मस्त गाना है तो नाचो।

बड़ी अजीब स्थिति है। संगीत के साथ किए गए प्रयोग सफल होते नहीं दिखते। कुछ लोग हैं जो ढूंढकर संगीत निकाल रहे हैं। उन्हीं की वजह से कुछ कलाकार बचे हुए हैं। इस स्थिति की वजह है हमारे अंदर नए विचारों की कमी। विचारों की आजादी बहुत कम है। हमारे यहां जब भी कोई बात होती हैं, तुरंत किसी को कोट कर दिया जाता है। हर बात पर कहना कि फलां जगह यह लिखा है। सब कुछ लिखा हुआ है, क्या इसीलिए आप कुछ सोचते ही नहीं है? हमारे यहां ऐसे विचारक न के बराबर हैं जो धामिर्क डोमेन से बाहर सोचते हैं। नए विचारों के प्रति आग्रह न होना ही नए संगीत के न पनपने की अहम वजह है।
(बातचीत : सौरभ द्विवेदी)