ज्ञान से नहीं, अज्ञान से हुई धर्म की उत्पत्ति


धर्म का धंधा: भाग - 2

धर्म की उत्पत्ति
- विनोद विप्लव

मानव समाज के आविर्भाव के सबसे प्रारंभिक काल में आदि मनुष्यों के बीच धर्म उसके यथावत अर्थों में विद्यमान नहीं था। आदिकालीन पाषाण युग के अन्न संग्रह करने वाले शिकारियों में देवी-देवताओं, आराधनाओं और पूजा-पाठ आदि की ओर न तो कोई झुकाव था और न उसके लिए उनके पास अवकाश ही था। उनके क्रियाकलापों का एकमात्र प्रेरणा स्रोत जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करना मात्र था। उनका मुख्य लक्ष्य ‘‘परम जीव’’ अथवा ब्रह्म नहीं, वरन् जीवित रहने और अपना आहार- फल, मूल और पशुओं का मांस प्राप्त करने के लिए संघर्श करना था। उन्हें पशु में स्थित ‘पशुत्व’ की चिंता नहीं थी। वे पशु जिनका वे शिकार करते थे और आदिकालीन हथियार उनके लिए अज्ञात तत्व नहीं थे, ये उनके लिए वस्तुपरक यथार्थ थे। इस दृष्टिकोण से आदिकालीन मनुष्य आदर्शवादी अथव अध्यात्मवादी नहीं थे, बल्कि प्राकृतिक भौतिकवादी थे।
इस प्रकार आदिकालीन मनुष्यों के दिन-प्रतिदिन के जीवन में एक स्वतः स्फूर्त भौतिकवादी दृष्टिकोण ही उनका पथ प्रदर्शन करता था। प्रकृति पर अधिकार करने के हर कदम के साथ उनका क्षितिज विस्तृत होता गया, लेकिन प्राकृतिक घटनाओं की विशाल श्रंृखला उनकी समझ से परे की चीज थी। वे इन घटनाओं को भौचक्के होकर देखते रह जाते थे। संभवत इसी अज्ञान से रहस्यपूर्ण एवं धार्मिक अवधारणाओं का जन्म हुआ और इन अवधारणाओं के आधार पर उन्होंने प्रकति की अज्ञात एवं रहस्यमय शक्तियों के प्रकोप बचने की कोशिश में यज्ञ, पूजा-पाठ और अन्य धार्मिक अनुष्ठानों तथा जादू-टोने जैसी रहस्यमय क्रियाओं का जन्म हुआ। लेकिन इन सबका उद्देेश्य अपने प्रकति की लीलाओं एवं आपदाताओं से अपने को बचाना था। अपने अस्तित्व को बनाये रखने के संघर्ष में जूझते रहने के कारण पशु-पक्षी, जंगली जानवर, जंगल आदि भी आदिम मनुष्यों के लिए कहीं अधिक बलवान प्रतीत होते थे और उन्होंने उनपर काबू पाने के लिये उन पर अलौकिक तथा रहस्यमयी शक्तियां आरोपित करके पूजा शुरू कर दी। वास्तव मंे उनकी समझ से सभी वस्तुओं में, प्रकृति की सभी घटनाओं में, अलौकिक गुण विद्यमान थे। इससे ही धार्मिक मान्यताओं तथा अन्य अंधविश्वासों का आरंभ हुआ।
ब्रह्मांड के वास्तविक स्वरूप तथा जीव-जंतुओं की भौतिक, शरीर विज्ञान संबंधी और मनोवैज्ञानिक गठन से अनभिज्ञ और जन्म, मृत्यु, विचार और स्वप्नों के कारणों की कोई वैज्ञानिक व्याख्या न कर पाने के कारण ये आदिम मनुष्य समझने लगे थे कि मनुष्य की अनुभूतियां, संवेदनाएं और विचार मानव शरीर में कही अवस्थित उस अवर्णनीय आत्मा की सृष्टि है, जो मृत्यु के साथ शरीर को छोड़ देती है। इसी प्रकार वे यह भी सोचते थे कि यह संसार केवल भौतिक वस्तुओ से ही नहीं भरा है, अपितु इसमें एक अध्यात्म पदार्थ अथवा जीव भी है, जिसे आत्मा कहते हैं और जो भौतिक वस्तुओं में छिपी रहती है अथवा उनसे अलग और स्वतंत्र भी उसका अस्तित्व है।
आदिम मनुष्यों के लिये चूंकि प्रारंभिक शक्तियों को नियंत्रित करना उनकी सामर्थ्य से परे था इसलिए उन्होंने इनपर विजय पाने या इन शक्तियों को खुश रखने के लिये तरह-तरह के कर्मकांड, रस्म, समूह नृत्य एवं गीत जैसे उपायों का सहारा लेने लगे। आदिम मनुष्य मौसम मं हेर-फेर नहीं कर सकता था। अनुभव ने उसे सिखाया कि वह अपने हाथ से वर्शा, धूप, हवा, गरमी और ठंडक नहीं पैदा कर सकता, चाहे वह ऐसी घटनाओं के बारे में कितना ही सोेचे और कितनी ही कोशिश करे। अतः उसने उनसे निपटने के लिए जादू का सहारा लिया। जादू इस समझ पर आधारित है कि यदि आप यह भ्रम पैदा कर दें कि आप वास्तविकता को अपने नियंत्रण में ला रहे हैं तो आप सचमुच उसे नियंत्रण में ले आएंगे। मानव-प्रयत्नों की कमी को पूरा करने, मनुष्य की सीमाओं को दूर करने और उत्पादन के साधनों में तकनीकी कमी को पूरा करने के लिए वे अलौकिक शक्तियों और भूत-प्रेतों की सहायता की याचना करते थे। वृक्षों, सांपों, जंगली जानवरों और सभी तरह के भूत-प्रेतों की और पूर्वजों की प्रेतात्माओं की वे पूजा करने लगे। आत्मा, मरोणोपरांत जीवन, पुनर्जन्म भूत-प्रेत, मृत्यु लोक, स्वर्ग-नर्क आदि की अवधारणाओं का विकास एवं उन पर विश्वास दरअसल आदिकालीन मनुष्यों के सीमित ज्ञान, अनुभव एवं व्यवहारों के परिणाम थे। आदिमकालीन मनुष्य विश्वास करते थे कि उनकी भावनाएं, संवदेनाएं और विचार स्वयं उनकी अपनी चेतना की उपज नहीं है, वरन आत्मा उपज है ओर जो जो शरीर में निवास करती है तथा मृत्यु के बाद शरीर छोड़कर उड़ जाती है। ये लोग इसी समझ के कारण मरने के बाद जीवन में विश्वास करने लगे और आत्मा के प्रसादन के लिए बलि देने लगे।
इस तरह से धर्म आस्तित्व में आया। दरअसल धर्म केवल ईश्वर अथवा देवी-देवीताओं पर विश्वास और उनकी आराधना मात्र नहीं बल्कि व्यापकतम अर्थ में मनुष्यों के पारस्परिक संबंधों, क्रिया कलापों, उद्देश्यों और विचारों की समविष्ट था जो अलौकिक शक्तियों के विश्वास पर आधारित है। अलौकिक शक्तियों पर विश्वास सभी धर्मों की अनिवार्य विशिष्टता है, वही उनका आधार है। इस प्रकार, किसी निषिद्ध कार्य के उल्लंघन के लिए मिलने वाले अलौकिक दंड का विश्वास उसे कुछ न कुछ धार्मिक बना देता है। किसी भौतिक वस्तु में अलौकिक गुणों की मौजूदगी का विष्वास उसे धार्मिक आराधना की वस्तु बना देता है। कह सकते हैं कि अलौकिक एवं जादुई शक्तियों पर विश्वास एवं धर्म का उदय ज्ञान के फलस्वरूप नहीं, वरन् अज्ञान और अंधविश्वास के फलस्वरूप हुआ जबकि विज्ञान का उदय प्रकृति संबंध्ाी गलत धारणाओं के विरुद्ध संघर्ष के फलस्वरूप हुआ था।
एंगेल्स ने लिखा है, ‘‘जहां तक विचारधारा की बात है जो आज भी अंतरिक्ष में उंची-उंची उड़ाने भर रही है- धर्म, दर्शन, आदि- इनका एक प्रागैतिहासिक मूल है, जिसका पहले से ही अस्तित्व था और जिसे ऐतिहासिक काल ने अपना लिया था। किंतु आज हम उसे निरर्थक कह सकते हैं। प्रकृति, मनुष्श्य के अस्तित्व, भूत, प्रेतों, जादुई शक्तियों आदि से संबंधित अनेक गलत धारणाओं के आधार के रूप में केवल एक निषेधात्मक आर्थिक तत्व था। प्रकृति संबंधी गलत धारणाएं प्रागैतिहासिक काल के निम्नस्तरीय आर्थिक विकास को और तीव्र करती थीं, आंशिक रूप में उसका स्वभाव निर्धारित करती थीं और एक हद तक उसका कारण भी थीं। और, यद्यपि प्रकृति के संबंध में ज्ञान प्राप्त करने की मूल प्रेरक शक्ति आर्थिक आवश्यकताएं थीं- और आज तो वे और अधिक हैं- तो भी तमाम आदिकालीन मूर्खता भरी बातों का मूल कारण आर्थिक बताना या आर्थिक कारणांे में उनकी खोज करना दंभपूर्ण कार्य होगा। विज्ञान का इतिहास इन निरर्थक बातों का क्रमशः उन्मूलन करने का, अथवा उनके स्थान पर नयी-नयी, परन्तु हमेशा कम मूर्खतापूर्ण और कम निरर्थक, बातों को रखने का इतिहास है।’’
उत्पादन की शक्तियों के विकास के साथ, विशेशकर कृषि की तकनीक में विकास के साथ, प्रारंभिक काल की वस्तुवादी तथा धार्मिक धारणाओं में आमूल परिवर्तन हुए। एक ओर अपने वातावरण और प्रकृति के संबंध में मनुष्य के ज्ञान में वृद्धि हुई, दूसरी ओर नये-नये देवी-देवताओं, पूजा-पाठ के नये तरीकों का भी आविर्भाव हुआ।