कितने बड़े संगीत प्रेमी हैं हम हिंदुस्तानी

प्रसून जोशी
पिछले दिनों मैं एक म्यूजिक रिकॉर्डिंग सेशन से लौटा, खीझ से भरा हुआ। इस तरह की खीझ के जिम्मेदार हम और आप हैं। आखिर क्यों हर
प्रड्यूसर बार-बार यही कहता है कि आजकल तो साहब यही ट्यून चल रही है, बस इसी के हिसाब से बोल गढ़ दीजिए। ज्यादा शब्दों और भावों के फेर में मत पड़िए। होता यह है कि प्रड्यूसर के सामने म्यजिक डाइरेक्टर कोई धुन सुनाता है। हम उस धुन की तर्ज पर कुछ शब्द गुनगुनाने लगते हैं। फौरी तौर पर उन लाइनों को लिख दिया जाता है और इन्हें डमी लिरिक्स कहा जाता है। जब धुन और बोल फाइनल करने की बात आती है, तो बाजार का प्रेशर दिखने लगता है। आजकल तो यही ढिंचिक-ढिंचिक चल रहा है, उसी में कुछ आगा-पीछा कर लिया जाए। मुझसे अक्सर कहा जाता है कि अब आप नए शब्दों के चक्कर में मत पड़िए, वही डमी के बोल रहने दीजिए। और यह सब किसके नाम पर किया जाता है, आपके, जनता के नाम। ऐसा क्यों होता है कि नया म्यूजिक, नए ताजा बोल आपको उतने नहीं लुभाते या फिर हो सकता है कि बाजार ही आपकी चॉइस की गलत व्याख्या कर रहा है।

जब इन तमाम चीजों पर सोचने बैठता हूं तो एक बात ध्यान में आती है, जो अक्सर कही जाती है। यह बात है भारत को संगीत प्रेमी बताने की। मगर हम लोग संगीत के नाम पर कुछ फॉर्म्युलों के गुलाम बनकर रह गए हैं। जिस चीज को हम संगीत के प्रति अपनी दीवानगी या पसंद कहते हैं, वह भी कुछ यादों-कुछ बातों की बिना पर महसूस करना ही है और कुछ नहीं। नए संगीत को हम लोग कितना खुले दिल से स्वीकारते हैं।

संगीत एक ऐसा कला रूप है, जिसमें किसी कमिटमेंट की डिमांड नहीं की जाती। मसलन, कविता में किसी विचार की स्पष्टता होती है। तो आप उसे सुनकर बता सकते हैं कि भाई हमें इसका यह विचार, यह भाव पसंद आया। आपका रुझान साफ होता है। मगर म्यूजिक को लेकर यह बात नहीं है। आप उसे सुनते हैं, पसंद करते हैं, मगर साफ-साफ नहीं बता सकते कि ऐसा क्यों करते हैं।

संगीत के नाम पर फिल्मी संगीत है और दूसरी तरह का संगीत हम सुनना ही नहीं चाहते। जो लोग कहते हैं कि वे संगीत सुन रहे हैं, दरअसल वे उस संगीत के बोलों और छवियों से जुड़ी यादों को गुनते हैं। शायद सुनने वाले को कोई चेहरा, कोई पल याद आ रहा है। आपको लग रहा है कि आप संगीत पसंद कर रहे हैं, लेकिन सचाई यह है कि आप संगीत की सप्लाई कर रहे चित्र पसंद कर रहे हैं। बार-बार एक गाने को सुनना इस बात की निशानी है कि आप उस गीत संगीत से जुड़ी किसी चीज को पसंद कर रहे हैं और मैं कहना चाहता हूं कि आजकल लोग अजीब चीजें पसंद कर रहे हैं।

यह सिर्फ एक मुगालता है कि हम संगीत प्रेमी हैं। हमारे यहां संगीत के क्षेत्र में प्रयोगों का नितांत अभाव है। दूसरे देशों में रॉक, जैज और ब्लूज जैसा म्यूजिक पनपा है। मसलन, ब्लूज ब्लैक कम्युनिटी का म्यूजिक था। उसमें गुलामी का दर्द था, जो रात को थके मजदूर की आह में व्यक्त होता था। वेस्टर्न वर्ल्ड में इसे काफी सफल माना गया। हमारी बात की जाए तो हमने क्या इस तरह की कोई अभिरुचि रखी है कि तमाम किस्मों का संगीत पनपे? ऐसा नहीं है और इसी वजह से हमारे संगीत में नए के नाम पर बहुत कुछ नहीं है।

हमारे यहां यह सोचनीय स्थिति है कि फिल्मों के अलावा कोई संगीत बिकता नहीं है। चाहे गजल हो या ठुमरी, इनसे जुड़ा फनकार फिल्म की तरफ आना चाहता है। गजलें वही बड़ी हुईं जो फिल्मों में आ गईं। हमारे अंदर एक ही तरह का टेस्ट है और बाकी कुछ नहीं। लोग एक कलाकार की नकल कर संगीत साधना की बात करते हैं। मुकेश और किशोर की कॉपी कर संगीत प्रेमी खुश हो गए। क्यों, क्योंकि हम संगीत को नहीं, उससे जुड़ी चीजों को पसंद करते हैं, जिन्हें शायद हम जानते नहीं। पहले से फैसला कर लेते हैं कि आज मैं दर्द भरा गाना सुनना चाहता हूं। अपने जेहन में खांचे बना रखे हैं जिनके हिसाब से एप्रीशिएट करते हैं। मस्त गाना है तो नाचो।

बड़ी अजीब स्थिति है। संगीत के साथ किए गए प्रयोग सफल होते नहीं दिखते। कुछ लोग हैं जो ढूंढकर संगीत निकाल रहे हैं। उन्हीं की वजह से कुछ कलाकार बचे हुए हैं। इस स्थिति की वजह है हमारे अंदर नए विचारों की कमी। विचारों की आजादी बहुत कम है। हमारे यहां जब भी कोई बात होती हैं, तुरंत किसी को कोट कर दिया जाता है। हर बात पर कहना कि फलां जगह यह लिखा है। सब कुछ लिखा हुआ है, क्या इसीलिए आप कुछ सोचते ही नहीं है? हमारे यहां ऐसे विचारक न के बराबर हैं जो धामिर्क डोमेन से बाहर सोचते हैं। नए विचारों के प्रति आग्रह न होना ही नए संगीत के न पनपने की अहम वजह है।
(बातचीत : सौरभ द्विवेदी)

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