पद न जाये -

- विनोद विप्लव
पुराने समय में जब प्राणों का उतना महत्व नहीं था और जब पद नाम की अमूल्य धरोहर का अविर्भाव नहीं हुआ था, तब लोग अपने वचन की रक्षा के लिये फटाफट प्राण त्याग दिया करते थे। रामायण, महाभारत और अन्य प्राचीन ग्रंथों में ऐसे उदाहरणों की भरमार है। उस समय लोग फालतू-बेफालतू बातों पर प्राण देने के लिये उतावले रहते थे। सदियों बाद जब लोगों को कुछ अक्ल आयी और जब प्राण को मूल्यवाण समझा जाने लगा तो लोग प्राण के बदले पद त्यागने लगे। इतिहास का यह ऐसा भयावह दौर था जिसे सोच कर सिर फोड़ने का मन करने लगता है। ऐसे मूर्ख अधिकारियों, मंत्रियों और नेताओं की भरमार थी जो उस तत्परता एवं निर्ममता के साथ पद त्यागते थे जिस निर्ममता के साथ लोग चिथड़े-चिथड़े हो गये कपड़े को भी नहीं त्यागते। पलायनवाद का ऐसा शर्मनाक दौर था। जब प्राण मिली है तो प्राण का और जब पद मिला है तो पद का सम्मान करो। लेकिन इन पलायनवादियों को कौन समझाता। सभी एक से बढ़कर एक पलायनवादी थे।

लेकिन अब हमारा देश अंधकार के युग से निकल चुका है। अब लोगों ने प्राण और पद के महत्व को भली भांति समझ लिया है। लोगों को पता चल गया है कि प्राण और पद कितने मूल्यवाण है। जिस तरह से मानव प्राण पाने के सांप-बिच्छुओं आदि के रूप में असंख्य जन्म लेने पड़ते हैं उसी तरह से हजारों पापड़ बेलने, लोहे के सैकड़ों चने चबाने तथा लाख तरह के जुगाड़ और पुण्य-अपुण्य कार्य करने के बाद पद मिलता हैं। इसलिये इतने मुश्किल से मिले पद को त्यागना सरासर मूर्खता नहीं तो और क्या है। जब प्राण मिला है तो जी भर के जियो और पद मिला तो मनभर कर उसका उपभोग करो। यही आदर्श जीवन दर्शन है और खुशी की बात है कि आज लोगों ने इस दर्शन को अपना लिया है। पहले तो लोग ऐसे-ऐसे कारणों से पद त्याग देते थे जिसे सोचकर इनके दिमाग पर तरस आता है। किसी ड्राइवर या गार्ड की गलती से कोई ट्रेन कहीं भिड़ गयी या पटरी से उतर गयी तो रेल मंत्री ने पद त्याग दिया। किसी क्लर्क ने सौ-दो सौ रूपये का घूस खा लिया तो वित्त मंत्री ने इस्तीफा दे दिया। किसी राज्य में पुलिस के किसी जवान ने किसी को डंडा छूआ दिया तो मुख्यमंत्री ने पद छोड़ दिया। लेकिन अब हमारे देश का लोकतंत्र परिपक्व हो चुका है। हमारे नेता कर्तव्यों और भावनाओं के मायाजाल में नहीं फंसते। हालांकि आज भी कुछ ऐसे लोकतंत्र विरोधी लोग हैं जो महिलाओं को सरेआम नंगा किये जाने, उनका सामूहिक बलात्कार किये जाने और निर्दोश छात्र-छात्राओं को आंतकवादी बताकर उन्हें पुलिसिया मुठभेड़ में मार गिराये जाने जैसी छोटी-मोटी घटनाओं को लेकर मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों से इस्तीफे की मांग करते रहते हैं, लेकिन अब मंत्री-मुख्यमंत्री इतने कच्चे दिल के नहीं हैं कि वे ऐसी घटनाआंे पर इस्तीफा दे दें। ऐसी घटनायें तो रोज और हर कहीं होती हैं और अगर इन्हें लेकर इस्तीफा देने की पुरातन कुप्रथा फिर शुरू हो गयी तो फिर राज-काज कौन संभालेगा। फिर कैसे सरकार, संसद और विधानसभायें चलेंगी। ऐसे में तो लोकतंत्र का चारों खंभा ही ढह जायेगा और देश रसातल में चला जायेगा। यह तो गनीमत है कि हमारे नेताओं और मंत्रियों में सद्बुद्धि आ गयी है जिसके चलते देश और लोकतंत्र बचा हुआ है।

No comments: